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श्रावकधर्मप्रदीप
स्थिति में कदाचित् उसे उपर्युक्त लौकिक लाभों के निमित्त से और पुण्योदय की प्रबलता में प्राप्त भोगोपभोगों के निमित्त से अभिमान उत्पन्न हो जाय तो वह तत्काल आत्मग्लानि से दुःखी हो स्वात्मनिन्दा करता है। |
उसकी यह ‘गाँ' उसे प्रिय है। वह उसे ही अपने आत्मा के लिए कल्याणदायिनी मानता है। इस गुण के निमित्त से उसे तत्काल आत्मस्वरूप का और पररूप का बोध होता है और वह आत्महत में सावधान होकर अपनी भूल को दूर कर लेता है।७२।
अनुकम्पा गुण का स्वरूप
(अनुष्टुप्) स्वान्योपरिदयादृष्टिकरणमेव तत्त्वतः।
ह्यनुकम्पागुणो ज्ञेयः सर्वसौख्यप्रदर्शकः।।७३।। स्वान्येत्यादि:- भावस्त्वयम्-दुःखितान् प्राणिनो विलोक्य तदुःखापाकरणार्थं यत् चिन्तनं तत् अनुकम्पाशब्देन कथ्यते। सदृष्टिः गहनदुःखपरिपूरिते संसारे परिभ्रमतां जीवानामुपरि सानुकम्पया बुद्ध्या दुःखदूरीकरणार्थं तदुद्धारार्थं च यतते। स्वमपि दुःखमूलाद्रागादिपरिणामाच्च दूरीकरोति। एतदेव सदृष्टेः अनुकम्पागुणः।७३।
दुःखित प्राणी को देखकर उसके दुःख को दूर करने की इच्छा या चिन्ता को अथवा प्रयत्न को अनुकम्पा या दया कहते हैं। सदृष्टि पुरुष सतत दयालु होता है। केवल व्यावहारिक दुःखों से परिपीड़ित पुरुषों पर ही वह दया नहीं करता बल्कि व्यवहारदृष्ट्या जो विषयान्ध पुरुष अपने को सुखी मानते हैं उनकी उस अनर्थ परम्परा को उत्पन्न करनेवाली विषयान्धता को भी दूर कर उन्हें आत्मिक सच्चे सुख की प्राप्ति होवे ऐसा प्रयत्न करता है। स्वयं अपने को भी दुःख का मूल राग, द्वेष, काम और क्रोधादि विकृत परिणामों से बचाता है। उसका यह सत्प्रयत्न ही अपने व अन्य पर की गई दया दृष्टि है जो सर्वप्रकार सुख प्रदायिनी है। इसे ही अनुकम्पानामा सम्यक्त्व का गुण कहते हैं।७३।
आस्तिक्यगुण का स्वरूप
(अनुष्टुप्) देवे शास्त्रे गुरौ यस्य बन्धे मोक्षे शुभेऽशुभे।
श्रद्धास्ति शर्मदा तस्याऽस्तिक्यनामा भवेद् गुणः।।७४।।
देवे इत्यादिः- देवे सर्वसत्त्वहितङ्करे रागद्वेषकामक्रोधादिरहिते विज्ञानधनस्वरूपे अर्हत्परमेष्ठिनि शास्त्रे तदुपदुष्टे परस्परविरोधरहिते दयामयसद्धर्मप्रकाशके शास्त्रे गुरौ तत्प्रतिपादितसन्मार्गावलम्बिनि
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