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श्रावकधर्मप्रदीप
सम्यग्दृष्टि सप्त भय रहित होता है प्रश्नः-इहलोकभयस्यास्ति किं चिह्नं मे गुरो वद। सप्तभयेषु सर्वप्रथमं इहलोकसंबंधिनो भयस्य स्वरूपनिरूपणार्थं पृच्छति शिष्यः।
भय सात प्रकार के होते हैं। उनका वर्णन इस प्रकरण में क्रम से किया है। इनमें से सर्वप्रथम इस लोक संबंधी भय है। इसका क्या स्वरूप है ऐसा शिष्य श्रीगुरु से प्रश्न करता है
(अनुष्टुप्) स्वीयाज्ञानाद्यवस्थायां यत्किञ्चिद्धि कृतं मया । तदेव भुज्यते काले भावो यस्येति जायते ।।५३।। तस्येहलोकभीतिर्न जायते तत्त्ववेदिनः। सम्यग्दृष्टेस्तु जीवस्याऽचिन्त्योऽस्ति महिमा सदा ।।५४॥युग्मम्।।
अज्ञानादित्यादिः- सुगमम् । तात्पर्यमेतत् इहलोकसंबंधिनांजीवरक्षोपायभूतानां पदार्थानां अर्जनं तेषां सञ्चयञ्च कुर्वन्ति जनाः। एतत्कृते प्रयत्ने कृते सति यदि पौरुषं विफलं स्यात् तदा नानाचिन्ताभिर्मीतास्ते निरुत्साहाः म्लानाश्च भवन्ति। सम्यग्दृष्टिस्तु जानाति यत् सर्वमेतत् मम कर्मफलमस्ति। निजार्जितं कर्म विहाय कश्चिदपि मे हानि वृद्धिं वा कर्तुमसमर्थोऽस्ति। यत् किल स्वाज्ञानावस्थायां मयापराधः कृतः तत्फलमेव भुज्यते मयाऽधुना। एवंविचारयतस्तस्य स्वल्पमपि भयोत्पादनं न भवति। तत्त्वस्वरूपबोधकस्य तस्य महान् महिमा अस्ति। ५३।५४।
लोक में अपने-अपने जीवन की रक्षा के लिए अनेक पदार्थों का अर्जन और सञ्चय तथा उनका रक्षण लोग करते हैं। उनके प्रयत्न करने में कदाचित् पौरुष विफल हो जाय तो अनेक चिन्ताएँ उन्हें आ घेरती हैं और वे जीवन रक्षा के अभाव से भयभीत हो उत्साह रहित होकर म्लानचित्त हो जाते हैं। सम्यग्दृष्टि पुरुष तत्त्ववेदी है। वस्तु के स्वरूप का उसे परिज्ञान है। संपत्ति और विपत्ति दोनों अवस्थाओं में वह समभावी रहता है। न संपत्ति से फूल उठता है और न विपत्ति में चिन्तातुर होता है। वह जानता है कि मैने पूर्व में अच्छे या बुरे जो भी कर्म किए हैं उसके फलस्वरूप ही यह सम्पत्ति या विपत्ति है। अपने कर्मोदय के सिवाय अन्य कोई मेरी हानि या वृद्धि करने में समर्थ नहीं है। मैंने अपनी अज्ञानावस्था में जो अपराध किए हैं उनका ही कटुक फल मैं इस समय भोग रहा हूँ। इस प्रकार के तात्त्विक विचार से उसका चित्त सदा निर्भय रहता है। उसके चित्त में भय की रेखा का कभी उदय नहीं होता। यह सब उस महान् तत्त्वबोध की ही अचिन्त्य
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