________________
७४
श्रावकधर्मप्रदीप
प्रश्नः-किं पूजामदचिह्नं मे वदास्ति शान्तये गुरो!
हे गुरु! आठ मदों में पूजा का मद क्या वस्तु है? कृपया मेरे प्रश्न का समाधान कीजिए
(वसन्ततिलका) पूजादिदानकरणात् सुगुरोः प्रभोः स्यात्
पूजा सदा निजमतिर्विमलाऽपि कीर्तिः। स्वानन्दशुद्धहृदयश्च कृतीति बुद्ध्वा
पूजामदं कुभवदं न करोति विज्ञः।।४३।। पूजादिदानकरणादित्यादिः- पूजया तत्र आहारादिचतुर्विधदानेन च दातुरेव लोके पूजा भवति। सर्वत्र तस्य विमला कीर्तिर्भवति। निजमतिः तस्य मतिरपि.सदा विमला निर्दोषा भवति। अतएव एवं विभावयेत् यत् पूज्यानां गुरुपादानां पूजया एव मम कल्याणं स्यात्। सुगुरोः महानुपकारोऽस्ति यत् स मांकुमार्गात् परावृत्य सुमार्गे नियोजयति। सुमार्गचलनादेव स्वानन्दशुद्धहृदयः स्वानन्दरूपः शुद्धहृदयः कृती च भवामि। इति बुद्ध्वा स विज्ञः कुभवदं संसारार्णवकारणभूतं पूजामदं कदाचिदपि न करोति ।।३।।
सम्यक् वीतरागी, निर्मोही, विषयसंगविरक्त, सच्चे साधु की सेवा-विनय-पूजा तथा उनकी आहारादि दान से शुश्रुषा आदि से लोक में दाता की ही प्रतिष्ठा बढ़ती है। उसकी लोक में कीर्ति होती है तथा पवित्र भावनावाले साधुओं की सेवा से उसकी भावना भी पवित्र होती है। वह विचार करता है कि यदि संसार में मेरी कीर्ति हैं, प्रतिष्ठा है तो यह कोई अभिमान करने की बात नहीं है। सुगुरु सेवा करनेवाले दाता धर्माताओं की प्रशंसा सर्वत्र होती है। यह तो सुगुरु का मुझ पर महान् उपकार है जो मुझ जैसे अनादिकाल से भूले हुए पाथिक को दुख के गर्त से निकालकर कल्याण के सिंहासन पर बैठाया है। यदि मैं सुमार्ग पर चलने लगा तो इसमें घमंड करने योग्य क्या बात है। मैं कुमार्गगामी था अतः निन्दा का पात्र था, अब सुगुरु कृपा से निन्दा का पात्र नहीं रहा सो यह तो मेरा महान् उपकार हुआ। अब मैं व्यर्थ का घमण्ड कर क्यों नरकादि कुगति का पात्र बनें। इस तरह के विचारों से वह बुद्धिमान् अपनी प्रतिष्ठा का मद नहीं करता और समभाव रहकर अपना कल्याण करता है।४३।
प्रश्न:- उच्चकुलमदस्यास्ति किं चिह्न? मे गुरो वद। अहं कुलवानस्मि इति कुलमदस्य किं लक्षणमस्ति इति हे गुरो मे कथय।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org