________________
नैष्ठिकाचार
इति जिनागमतो निश्चिन्वन्तस्तु सम्यग्दृष्टयः कथं मदयुक्ताः स्युः । हीनाधिकगुणेष्वेव मात्सर्यमदादीनां संभावना भवति न तु समगुणेषु प्राणिषु तत्संभावना जायते। जिनागमश्रद्धया विरहिता मिथ्यादृष्टयः हीनाधिकज्ञानं प्राप्नुवन्तः मदं कुर्वन्ति । विशिष्टज्ञानिभिः सदा ज्ञानदानं कार्यम् । दानतस्तु ज्ञानंस्य वृद्धिरेव भवति न कदापि हानिः स्यात् । दानाभावे तु विद्या लुप्यते, तस्माद् विद्यादानं स्वोपकार एव न परोपकारः । मत्तानां तु ज्ञानादिगुणः सदोषो भवति । सदोषस्तु संसारे परिभ्रामयति, दुःखञ्चोत्पादयति इति बुद्ध्वा भवदो भवकरो मदः न कदाचिदपि कार्यः । ४२ ।
ज्ञान आत्मा का लक्षण है। प्रत्येक जीव में केवल ज्ञान शक्ति है। संसार दशा में वह ज्ञान ज्ञानावरणादि कर्म द्वारा लुप्त सा हो रहा है, अतः जिन जीवों को कर्म का जितना क्षयोपशम प्राप्त है उतना ही ज्ञान खुला हुआ है। कर्म का नाश करने पर पूर्ण ज्ञान प्रकाशमान हो जाता है। जिनागम के श्रद्धानवाले सम्यग्दृष्टि जीवों को उक्त प्रकार का पूर्ण निश्चय रहता है, इसलिए स्वात्मबोध प्राप्त उन विवेकी पुरुषों को ज्ञानादि जन्य अहंकार नहीं उत्पन्न होता। उनकी बुद्धि दूसरों को ज्ञान दान देने की ओर ही प्रेरणा करती है। ज्ञान दान से विवेक उत्पन्न होता है और विवेक से वे स्वात्मपद में ही रमण करते हैं। मदादि या मात्सर्यादि दुर्गुणों में उनकी प्रवृत्ति नहीं जाती है।
७३
यदि ज्ञानादि में हीनाधिकता हो तो मदादि उत्पन्न हों। जब सम्यग्दृष्टि जीवमात्र के परिपूर्ण ज्ञानरूपी धन है, ज्ञान जीव की सम्पत्ति है ऐसा दृढ़ निश्चय रखता है तो ईर्ष्या मात्सर्य और मद उत्पन्न होने का अवसर ही कहाँ है? यदि इतने पर भी जिनको मद उत्पन्न होता है तो समझना चाहिए कि उनको सम्यग्दर्शन नहीं है, जिनोदित तत्त्व पर श्रद्धा नहीं है। सभी जीव अपने को ज्ञानी और अन्य को अज्ञानी मानकर ज्ञान का गर्व करते हैं, क्योंकि कर्म के क्षयोपशम के अनुसार सांसारिक अवस्था में ज्ञान गुण की व्यक्ति में हीनाधिकता पाई जाती है। अतः अविवेकी मिथ्यादृष्टि मद करता है, विवेकी सम्यग्दृष्टि नहीं करता।
विवेकी सोचता है कि ज्ञानदान से ज्ञान की वृद्धि होती है। कदापि हानि नहीं होती । दान के अभाव में विद्या लुप्त हो जाती है, इसलिए विद्या देना परोपकार नहीं, स्वोपकार है। स्वोपकार करते हुए यदि परोपकार हो जाय तो इसमें अहंकार के लिए स्थान ही कहाँ है। फिर भी मिथ्यादृष्टि व्यर्थ ही अहंकार करते हैं। अहंकार ज्ञानादि गुणों का दूषण है। दूषण संसार परिभ्रमण का कारण है। संसार परिभ्रमण जन्म जरा रोगाक्रान्त होने से दुःखरूप है। इसलिए भयंकर संसार दुःखवर्द्धक ज्ञान का मद कदापि नहीं करना चाहिए | ४२ |
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org