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नैष्ठिकाचार
१- धर्मपालकों को धर्म का सच्चा स्वरूप समझाना अर्थात् उनके अज्ञान को दूर
करना। २- उनमें भावधर्म उत्पन्न करना जिससे वे केवल धर्मात्मापने की नकल करनेवाले
न हों बल्कि सच्चे धर्मात्मा बन सकें। ३- यदि किसी असामर्थ्य से वे चारित्रभ्रष्ट हुए हों तो उन्हें ऐसे मार्ग पर लगा देना
ताकि वे प्रायश्चित्त द्वारा शुद्ध हो सन्मार्गगामी बन सकें। यदि धर्मात्मा पुरुषों को धर्मपालन करने में राजा की ओर से, राज्याधिकारियों की ओर से, विरोधियों की ओर से और देश-काल की परिस्थिति के निमित्त से बाधा आती हो तो जिस प्रकार भी हो सके धनबल, तनबल, विद्याबल, तपोबल और बुद्धिबल से उस बाधा को दूर कर उन्हें धर्मपालन करने योग्य निर्विघ्न स्थिति पैदा कर देना। धर्म प्रभावना के अनेक अंगों द्वारा जैसे धर्मोपदेश देकर, अनेक उत्तम पुस्तकें वितरण कर, श्री जिनेन्द्रदेव के जलविहार, रथोत्सव आदि के द्वारा, प्राचीन स्थानों के उद्धार के द्वारा, विद्यार्थियों को ज्ञानवान् बनाकर, उत्तमोत्तम जिनमन्दिर बनवाकर, लोकोपकारी अनेक संस्थाओं जैसे- धर्मशालाअन्नसत्र-औषधालय-जलपीने के स्थान- विद्यालय-छात्रावास-विधवा संरक्षक आश्रम - ग्रंथालय आदि का निर्माण कर व अनेक धार्मिक स्थानों के निर्माण आदि के द्वारा भी धर्म की कीर्ति फैलाकर निन्दा दूर की जा सकती है।
ये सब उपगूहन अंग को पालन करने के मार्ग हैं। धर्मात्मा की रक्षा व उसके सुधार से तथा अज्ञानी व द्वेषी पुरुषों में ज्ञान के प्रचार से धर्म की निन्दा स्वयं दूर हो जाती है। जो अत्यन्त मिथ्यामती सद्धर्म द्वेषी हैं, जिनमें ज्ञान प्रचार से भी काम नहीं चलता उनमें अपने व्यक्तिगत बल व प्रभाव के द्वारा वह स्थिति पैदा कर देनी चाहिए जिससे धर्म की निन्दा दूर हो जाय। यह उपगूहन अंग है जो सम्यग्दर्शन का पाँचवां अंग हैं।२९।
प्रश्न:-किं स्थितीकरणस्य च चिह्नं वदास्ति मे गुरो। स्थितीकरणस्य किं चिह्नमस्ति? हे गुरो! मे कथय । स्थितीकरण नामक अंग का क्या स्वरूप है? हे गुरु कृपा कर बताइए
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