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नैष्ठिकाचार
(अनुष्टुप्)
कुदेवस्य तथा तस्य भक्तस्य वन्दनादिकम् । न कार्यं तत्त्वतो भक्तिः सेवा वा शुश्रूषादिकम् ।। ३८।। सत्यार्थवस्तुनो लाभो यतः स्यात् स्वैररोधनम् । सुदेवस्य सदा तस्य भक्तस्य वन्दनादिकम् ।। ३९ ।।
कुदेवस्येत्यादिः - कुदेवस्य देवलक्षणरहितो देववदवभासमानो देवाभास एव कुदेवः तस्य तथा तस्य भक्तस्य कुदेवानुयायिनः भक्तिः सेवा शुश्रूषादिकं वा वन्दनादिकं वा न कार्यम् । तत्करणे हि अनायातनदोषः स्यात् । सुदेवस्य अज्ञानरागादिदोषरहितोऽशेषज्ञस्तथा हितोपदेशक एव पुरुष आप्तः स एव सुदेवः तस्य तथा तस्य भक्तस्य सुदेवानुयायिनः वन्दनादिकं कार्यम् । यतः सत्यार्थवस्तुनः जीवादितत्त्वस्य लाभः सम्यग्ज्ञानं स्वैररोधनं च स्वहितविरोधिप्रवृत्तिपरित्यागश्च स्यात् । ३८ । ३९ ।
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तत्त्वार्थ का परिपूर्ण ज्ञाता न होवे, अज्ञानादि दोषों से मुक्त न हो और परहित कामना से रहित हो, वही कुदेव नाम से प्रख्यात है। उसकी तथा उसके सेवकादिक की पूजा भक्ति वन्दनादि कभी न करनी चाहिए। 'देव, ईश्वर, आप्त और परमात्मा' आदि अनेक नामों द्वारा लोग किसी एक ऐसे आदर्श को मानते हैं जिसे वे संसार में सर्वोत्कृष्ट समझते हों। विचार यह करना चाहिए कि हम उसे सर्वोत्कृष्ट क्यों मानें? इसका उत्तर सीधा है कि वह हम सबसे अधिक गुणवान्, निर्दोष, ज्ञानवान् व समर्थ है और हमारा उससे हित होगा इसीलिए हम उसे मानते हैं- पूजते हैं और स्तुति आदि करते हैं। यदि उस व्यक्ति में ये आदर्श गुण न हों तो वह किसलिए वन्दनीय माना जाय? इसी बात को दूसरे शब्दों में ग्रथंकार आचार्य लिखते हैं कि उक्त प्रकार के गुणों से रहित यदि कोई देवस्थानीय है तो वह कुदेव है और उसकी या उसके मानने वालों की सेवा शुश्रूषा आदि दोषकारक है।
यद्यपि जैनधर्म प्राणिमात्र में प्रेम का उपदेश देता है तथापि पदवीरूढ़ व्यक्ति यदि उस पद के योग्य न हो और उसे उस पद पर प्रतिष्ठित किया जाय तो यह बुद्धि में भ्रमोत्पादक होने से मिथ्यात्व कहा गया है। जिस सत्यार्थ वस्तु का स्वरूप परिज्ञान सुदेव के द्वारा हो सकता है वह कुदेवादि से नहीं, इसलिए कुदेव को छोड़ सुदेव का तथा उसकी मान्यता करनेवाले भक्तजनों का आदर करना समुचित है, कुदेव का नहीं । इसतरह कुदेव और कुदेव पूजक इन दोनों का आदरादि करना अनायतन सेवा है, इस प्रकार इन दोनों अनायतनों का स्वरूप कहा । ३८। ३९ ।
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