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नैष्ठिकाचार
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'आप्त' ‘परमात्मा' आदि शब्दों से कहे जाने योग्य है। ऐसे श्रेष्ठ आदर्श की पूजा-उपासना-ध्यान ही देवोपासना है। इसके विरूद्ध जिसका स्वरूप हो, जिसमें उक्त गुण न पाए जायँवह हमारा आदर्श नहीं हो सकता, वह हमें उन्नत मार्ग नहीं बता सकता; क्योंकि वह स्वयं अनुन्नत है। अतः 'देव' नहीं है, फिर भी उसे देव मानकर उपासना करना “देवमूढ़ता" है। जैन तीर्थकरों का यह उपदेश है कि वही व्यक्ति मान्य है जिसमें मान्यता के योग्य गुण हों। ऐसे व्यक्ति की उपासना से व्यक्ति ऊँचा उठेगा। स्वयं योग्य
और मान्य बन जायगा। वह सच्चा स्व-परोपकार कर सकता है। जो व्यक्ति गुणवान् तो नहीं है किन्तु उसे या तो भ्रमवश गुणवान् मान लिया गया है या उसके अवगुणों में ही हमने गुणपने की मान्यता कर ली है, उस व्यक्ति की मान्यता से हम उन्नत नहीं हो सकते। हमारा उक्त भ्रम ही मूढ़ता है जो देव विषयक होने से ‘देव मूढ़ता' कही गई है।३५।
प्रश्न:-किं गुरुमूढ़ताचिह्नं वर्तते मे गुरो वद?
हे गुरुदेव! गुरुमूढ़ता क्या है उसका क्या लक्षण है कृपाकर मुझे बतावें। ऐसा प्रश्न होने पर गुरुदेव गुरुमूढ़ता का स्वरूप बताते हैं
(वसन्ततिलका) स्वात्मच्युतस्य भुवि कुर्वत एव पापम्
सेवाऽसतः क्रियत एव धनादिहेतोः। स्यात्तस्य दुःखजनिका गुरुमूढताऽपि
ज्ञात्वेति सत्यरसिकैः परिवर्जनीया।।३६॥ स्वात्मच्युतस्येत्यादि:- मुवि अस्मिन्ननादिनिधने संसारे स्वात्मच्युतस्य स्वात्मबोधविमुखस्य पापमेव कुर्वतः केवलं हिंसादिकर्मप्रयोजकं पञ्चाग्नितपःप्रभृतिबालतपो विदधानस्य असतः कुगुरोः धनादिहेतोः धनादिलौकिककार्यसिद्ध्यभिलाषवशात् येन सेवा परिचर्या एव क्रियते तस्य प्राणिनः दुःखजनिका जन्मजरामरणप्रभृतिदुःखोत्पादिका गुरुमूढ़ता स्याद् इति ज्ञात्वा तत्त्वरसिकैः तत्त्वविद्भिः सा परिवर्जनीया परिहर्तव्या।।३६।।
इस अनादिनिधन संसार में आत्मज्ञान रहित और इन्द्रियविषय लम्पट अनेक पापात्मा 'गुरु' नाम रखाकर लोगों को ठगते हैं। उनमें गुरुपना तो नाम निशान को भी नहीं है। जो व्यक्ति इन्द्रिय विषयों के दास नहीं है, हिंसादि पञ्च महापापों से दूर रहते हैं, निरभिमानी सरल प्रकृति व क्षमाशील हैं वे ही 'सद्गुरु' हैं, ऐसा स्वामी समन्तभद्राचार्य ने श्रावकाचार में वर्णित किया है। कुगुरु जन इष्ट वियोग और अनिष्ट संयोगादि तथा पीड़ा और रोगादि से व्याकुल प्राणियों को देखकर कहा करते हैं कि हम
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