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श्रावकधर्मप्रदीप
(वसन्ततिलका)
स्वर्मोक्षशान्तिसुखतश्चलते जनाय दत्त्वान्नवस्त्रनिलयानि हितोपदेशम् । तत्रैव तं प्रणयतोऽतिदृढ़ीकरोति
श्रेष्ठं स्थितीकरणमस्य पवित्रमङ्गम् ।। ३० ।।
स्वर्मोक्षेत्यादिः– सांसारिकसुखशान्तिस्थलं स्वर्गं पारमार्थिकसुखशान्तिस्थलं मोक्षं च प्राप्तुकामः पुरुषः क्रमेण मन्दकषायरूपमकषायरूपाञ्च प्रवृत्तिं करोति । यदि मोहोदयात्क्वचित् रागांधीभूतः कषायाविष्टश्च तस्मात् विचलति अथवा सांसारिकदुःखभूतबुभुक्षादारिद्र्यवशात् अशरणत्वात् हिततो विमुखीभूय कुमार्गगामी भवति तदा अन्नप्रदानेन वस्त्रदानेन संरक्षणार्थमावासदानेन अनेकांश्च हितोपदेशान् प्रदाय सन्तोष्य च तं प्रणयतः स्नेहात् धर्मे यो दृढ़ीकरोति तस्य पवित्रं श्रेष्ठं स्थितीकरणं नाम सम्यक्त्वस्याङ्गमस्ति इति विज्ञेयम् । ३० ।
स्वर्ग और मोक्ष के कारणभूत सुख और शान्ति के मार्ग चारित्र से किसी कारण से विचलित होने वाले गृहस्थ को उसकी आवश्यकतानुसार अन्न, वस्त्र और घर आदि तथा हितरूप उपदेश देकर संयम मार्ग में स्थिर कर देना, विचलित न होने देना सम्यक्त्व का स्थितीकरणनामा अंग है।
भावार्थ - सांसारिक सुख और शान्ति का स्थान स्वर्ग और पारमार्थिक सुख व शान्ति का स्थल मोक्ष माना जाता है। उन दोनों की प्राप्ति मन्द कषाय से और कषाय रहित प्रवृत्ति से होती है। ये दोनों प्रवृत्तियाँ धार्मिक प्रवृत्तियाँ है; क्योंकि इनसे कषाय का क्रमशः या साक्षात् अभाव होता है। कषाय रूप प्रवृत्ति ही असंयम है और तद्विनाशिनी प्रवृत्ति ही संयम है। यदि कोई धर्मात्मा पुरुष क्वचित् कदाचित् मोहनीय कर्म के उदय से रागी हो जाय या किसी भी कषाय के वशीभूत हो अपने संयम रूपी उच्च प्रासाद से गिरने लगे; तो उसे धर्म में पुनः स्थिर करना चाहिए। यह धर्म प्रेमी मनुष्य का प्रधान कर्त्तव्य है।
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यह संसार दुःखमय है। अपनी कषायें ही दुःख की प्रधान हेतु हैं। कषाय संयुक्त मानसिक वाचनिक और कायिक प्रवृत्ति को ही असंयम कहते हैं। कषायांश को पूर्ण रीति दूर करने का उपाय ही संयम है। जिसके सम्पूर्ण कषाय गल गई वह अकषाय गुणस्थानवाला ही परिपूर्ण संयमी है। वे कभी अपने मार्ग से विचलित हो सकेंगे इसकी कभी भी सम्भावना नहीं है। आत्मा से कर्म एक बार पूर्णरीत्या दूर हो जाय तो
पुनः
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