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नैष्ठिकाचार
बन्ध होने का कोई कारण नहीं है । परन्तु जब तक कर्म पूर्ण न गल कर थोड़ा गला है, या उपशम हो गया है तो ऐसी स्थिति में जो संयम भाव होगा वह अपूर्ण संयम होगा और यदि पूर्ण उपशम से पूर्ण संयम होगा भी तो अल्पकालीन होगा, कारण उपशम भाव अन्तर्मुहूर्त (४८ मिनिट के भीतर) मात्र में ही मिट जाता है और उपशम भाव को प्राप्त हुई प्रकृतियों का उदय आ जाता है। इस स्थिति से उठने के लिए आत्मा का स्वयं का पुरुषार्थ ही कारण है, किसी दूसरे के पुरुषार्थ की उसे आवश्यकता नहीं है, और न वह उसके अनुसार चल सकता है।
मन्दकषायवाले संयमी अपरिपूर्ण संयमी हैं, इनमें साधु भी हैं और श्रावक भी। यद्यपि श्रावक को देशसंयमी शास्त्रकारों ने बताया है और साधु को सकलसंयमी ही लिखा है तथापि यह कथन केवल बाह्य चारित्र तथा ज्ञात अभ्यन्तर चारित्र की अपेक्षा है अथवा चरणानुयोग की अपेक्षा है। साधु अपनी जानकारी में और अपने प्रयत्न भर असंयमी नहीं है, इससे सकलसंयमी है, तथापि जब तक संज्वलन कषाय का थोड़ा भी अंश है तब तक करणानुयोग की दृष्टि से परिपूर्ण संयमी नहीं है। यह ग्रंथ चरणानुयोग का है, इसलिए चरणानुयोग की दृष्टि से साधु को सकलसंयमी और श्रावक को देशसंयमी मानकर ही स्थितीकरण अंग का लक्षण बताया गया है।
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यदि श्रावक या श्राविका, साधु या साध्वी (आर्थिका ) किसी कषाय के तीव्र उदय आ जाने पर अपने संयम मार्ग से विचलित होने लगे तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। संयम का मार्ग बहुत कठिन है। असिधारा पर चलने की अपेक्षा संयममार्ग पर चलना अधिक कठिन है। असिधारा पर चलना तो केवल शारीरिक अभ्यास साध्य है पर संयममार्ग पर चलना केवल शारीरिक अभ्यास साध्य नहीं है, उसमें चित्तवृत्ति को साधना भी आवश्यक है। भूख-प्यास - शीतबाधा तथा रोगादि कारणों के निमित्त से होनेवाले कष्टों को न सह सकने के कारण अनेक श्रावक या साधु अथवा श्राविकाएँ और आर्यिकाएँ अपने धर्म मार्ग से विचलित हो उठते हैं। सम्यग्दृष्टि अर्थात् जैनधर्मी का यह कर्त्तव्य हो जाता है कि ऐसे व्यक्तियों को उनकी आवश्यकता के अनुसार सहायता दे।
बुभुक्षित को अन्नदान, निर्वस्त्र को वस्त्रदान, रोगी को औषधिदान, असमर्थों को सेवा, निःसहायों को सहायता आदि देकर उनके कष्ट को दूर करना उचित है। सेवा इस प्रकार विवेक के साथ करनी चाहिए कि जिससे उनके संयम का विनाश न हो। यह ध्यान सदा रखना चाहिए कि जिस किसी भी प्रकार संयमी संयम के मार्ग में स्थिर रहे
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