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श्रावकधर्मप्रदीप
है। जिसने इस प्रकार ग्लानि को जीत लिया है उसे सम्यक्त्व का तृतीय निर्विचिकित्सित
अंग होता है । २७ ।
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प्रश्नः - वदास्ति सिद्धये किं मेऽमूढदृष्ट्यङ्गलक्षणम् ।
गुरो ! मम इष्टसिद्ध्यर्थं चतुर्थाङ्गस्य लक्षणं कथय ।
गुरो ! मेरी इष्टसिद्धि के लिए चौथे अमूढ़दृष्टि अंग का लक्षण कहिए
(वसन्ततिलका)
दुःखादिक्लेशकलिते कुटिले कुमार्गे भ्रान्तिप्रदे सुखहरे विषमे विधर्मे ।
श्रद्धा स्थितिर्ह्यनुमतिः क्रियते न येन
या मूढ़ताङ्गमपि तस्य परं पवित्रम् ।। २८ ।।
दुःखादित्यादिः - सम्यग्दृष्टेर्जिनोक्तपवित्रमार्गे परमश्रद्धा भवति । स जानाति यज्जिनोक्तधर्म एव संसारदुःखनिवारकोऽनुकूलः स्वात्मनो हितकारको ऽभ्रान्तोऽस्ति । तद्विरुद्धधर्मः दुःखादिक्लेशकलितः कुटिलः कापथः विषमः भ्रमोत्पादकः सुखविघातकोऽननुकूलः वर्तते अतः तस्मिन् तस्य श्रद्धा न जायते तत्र स्थितिमपि न करोति न तमनुमोदते। लोक-देव-गुरुमूढ़तासु न तस्य कदापि प्रवृत्तिर्भवति इति तात्पर्यम्। शापादिभयात्, लौकिकलाभाकांक्षया, संतानादिप्राप्त्याशया कौटुम्बिकस्नेहवशादपि सम्यग्दृष्टिः मिथ्यात्वं मिथ्यात्वाराधकम् च न सेवते । सुमेरुवत्तस्याचला श्रद्धा जिनदेवे तत्प्रतिपादके धर्मे तदाराधके गुरौ च जायते । एतदेव सम्यक्त्वस्य परं पवित्रं “अमूढ़दृष्टिः” अङ्गमस्ति । २८ ।
सम्यग्दृष्टि पुरुष की पवित्र जिनमार्ग में सुमेरु की तरह अचल श्रद्धा होती है। वह यह निश्चित जानता है कि जिनोक्त धर्म संसार के महान् दुखों से बचाने वाला है, वह आत्मा के लिए हितकारक है, वह राजमार्ग की तरह प्राणिमात्र के लिए निर्भ्रान्त है। उससे विरुद्ध कोई भी धर्म विधर्म है, वह कभी भी हमारे संसार परिभ्रमणजन्य महान् दुःखों को दूर करने में समर्थ नहीं हो सकता। वह सुख मार्ग का कण्टक होगा, भ्रम में फँसानेवाला होगा, आत्महित के प्रतिकूल होगा। सम्यक्त्वी न उस पर श्रद्धा लाता है, न वैसा विचार रखता है और न तदनुकूल आचरण करता है।
लौकिक चमत्कार के वश होकर, शाप आदि का भयंकर अथवा संतानादि की अभिलाषा वश अथवा धन की आशा से अथवा ये हमारे कुटुम्बी जन हैं या सगे सम्बन्धी हैं इसलिए मिध्यादृष्टि होने पर भी इनकी सेवा करनी चाहिए, इन पर श्रद्धा करनी चाहिए, यह बात सम्यग्दृष्टि कभी नहीं स्वीकार करता। उसके इस निर्मल अचल परिणाम
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