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श्रावकधर्मप्रदीप
न रख सकने के कारण मृत्यु को भी प्राप्त होते हैं। घ्राण इंद्रिय से वशी पुरुष की भी ऐसी ही स्थिति है। चक्षु और श्रोत्र के वशवर्ती प्राणियों की दशा भी छिपी नहीं। इनके निमित्त से अपनी व दूसरों की दुर्दशा होते हुए हम रोज देखते हैं। इससे कहना पड़ता है कि ये पंचेन्द्रिय विषय भोग में भी सुखदायक नहीं प्रतीत होते हैं।
तीसरी बात यह है कि जब इनके संग्रह और भोग में कष्ट हो तो क्या इनका वियोग इष्ट होगा ? इस स्थिति में विचार करने पर ज्ञात होगा कि इनको सुख साधन माननेवाला जीव भला इनका वियोग कैसे सहेगा? वह इनके वियोग में अत्यन्त दुःखी होता है। सारांश यह कि इन्द्रिय विषयों के संग्रह करने भोगने और वियोग में भी महान् दुःख का सामना करना पड़ता है। अतः सम्यग्दृष्टि इन्हें हेय ही मानता है। वह समझता है कि इनका प्रारम्भ, मध्य और अन्त तीनों दुःखमय हैं। तब ये सुखदायी कैसे? इतने पर भी ये क्षणिक हैं, अल्पकालस्थायी हैं, अधिक काल नहीं ठहर सकते, तब वियोग अनिवार्य है। इनका संयोग भी कर्मोदय से होता है वह हमारे हाथ नहीं है तथा इनका वियोग भी हमारे हाथ की वस्तु नहीं है, न इनका संरक्षण हमारे हाथ है। तब ऐसे पदार्थ तो निश्चित दुःखदायक ही होंगे। वे कभी सुखदायी नहीं हो सकते। यह पुद्गलोद्भव सुख भी स्वात्मबाह्य होने से और क्षणिक होने से निन्दनीय है, ग्रहण करने योग्य नहीं है, अतएव जिसकी मोह निद्रा छूट गई है वह शुद्ध चैतन्य चमत्कार रूप, शुद्धानुभव का धनी, बाह्य विमुख अन्तर्दृष्टि का अधिकारी सम्यग्दृष्टि आत्मा इन इन्द्रियजन्य सुखों की कभी भी आकांक्षा नहीं करता। इसे सर्वज्ञ आप्त के वचन पर दृढ़ आस्था है अतः वह इन दुःखदायी विषयों की वांछा स्वप्न में भी नहीं करता। इस वांछा या इच्छा का न होना ही कांक्षारहितत्व या निष्कांक्षितत्व नाम का सम्यग्दर्शन का दूसरा अंग है। यह गुण सम्यग्दृष्टि को संयमभाव की ओर प्रेरणा करता है। संघर्षमय जीवन से बचाता है। अपरिग्रहत्व की भावना उत्पन्न करता है। लौकिक व पारलौकिक उभय शान्ति का दाता है। अतः निराकांक्षता सम्यग्दर्शन का प्रधान अंग है और वह पवित्र गुण सम्यग्दृष्टि को अत्यन्त प्रिय है।२५।२६।
प्रश्नः-निर्विचिकित्सिताङ्गस्य किं चिह्नमस्ति मे वद।
तृतीयगुणस्य कानि चिह्नानि सम्यग्दृष्टिषु उत्पद्यन्ते यैस्तेषु तन्निर्णयः स्यात् इति प्रश्ने सति आह।
सम्यग्दृष्टियों में वे कौन से चिह्न हैं जिनसे उनका तीसरा निर्विचिकित्सित गुण पहिचाना जाय, वह मुझे कृपाकर बताइए, शिष्य के इस प्रश्न पर आचार्य निम्न उत्तर
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