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श्रावकधर्मप्रदीप
नाम तृतीयो दोषः भवेत् । मिथ्यामार्गप्रतिपादकानां दुर्दृशां स्तुतिप्रतिपादकं प्रशंसात्मकं वचनं व्याहरतः तस्य सुदृशः मूढदृष्टिः नाम चतुर्थो दोषः। तस्यैव सुदृशः परदोषोद्बोधनेच्छा स्वगुणप्रकाशनेच्छा च अनुपगूहनो नाम पञ्चमो दोषः स्यात् । सन्मार्गात्पतनोन्मुखान् पुरुषानवलोकय तेषामुद्धरणाय कदाचिद् मतिर्यदि न स्यात् तदाऽस्थितीकरणो नाम षष्ठः सम्यक्तादोषः स्यात् । धार्मिकानवलोक्य प्रीतिमतोऽपि तस्य यदि कदाचिद् ईर्ष्याविद्वेषश्चेत् तर्हि अवात्सल्यं नाम सप्तमो दोषः। परोपकारकरणसमर्थस्य जिनमार्गस्य कीर्तिप्रसारं कामयमानस्यापि कदाचित्तदकरणेऽप्रभावना नामाष्टमो दोषः संपद्यते। एतेऽष्टदोषाः षडनायतनेन मदाष्टकेन त्रिमूढ़ताभिः सङ्कलिताः सन्तः सम्यक्त्वविराधकाः पञ्चविंशतिर्दोषः भवन्ति।१।२।३।४।५।
श्री जिनेन्द्रदेव, जिनमें किवीतरागता, सर्वज्ञता और हितोपदेशित्व गुणों के कारण आप्तता सुनिश्चित की गई है उनके द्वारा उपदिष्ट प्रवचन को जिनागम कहते हैं। जिनागम के प्रत्येक वचन पर सम्यग्दृष्टि को परम श्रद्धा होती है। जिनागम के वचनों की सत्यता पर संदेह होना सम्यक्त्व का शंका नामक दोष है। भगवान् जिनेश के उपदेश से संसार परिभ्रमण के कारणभूत पंचेन्द्रियों के विषयों में उसे विराग होना चाहिए। यदि विषयों की अभिलाषा और उनके प्राप्त करने की आशा उसे रहे तो वह सम्यक्त्व का दूसरा कांक्षा नामा दोष है। किसी भी प्राणी का शरीर मल मूत्रादि का घर है तथापि, सम्यग्दर्शन ज्ञान व चारित्र से पवित्रित साधु पुरुष के गुणों में प्रीति सम्यक्त्व के होने पर अवश्य होती है और वह शरीर की अपवित्रता के कारण उनसे ग्लानि नहीं करता, यदि करे तो तृतीय दोष विचिकित्सा नाम का है। मिथ्यामार्ग के प्रचारक मिथ्यादृष्टियों की और उनके कार्यों की प्रशंसा करना मूढदृष्टित्व नामक चतुर्थ दोष होता है, इस दोष के कारण मिथ्यामार्ग का प्रचार व उसकी प्रभावना होती है। दूसरे असमर्थ पुरुष के दोषों के प्रकाशन की इच्छा और अपने गुण कीर्तन की अभिलाषा सम्यग्दृष्टि का अनुपगृहननामक पांचयाँ दोष है। सन्मार्ग से गिरनेवाले प्राणियों के उद्धार करने का उपाय न करना उन्हें पुनः सन्मार्ग पर न लगाना यह अस्थितीकरण नाम का छठा दोष है। धर्मात्मा पुरुषों को देखकर उनके प्रति प्रीति, श्रद्धा और भक्ति होने की अपेक्षा यदि ईर्ष्या और विद्वेष हो तो वह अवात्सल्य नाम का सातवाँ दोष है। संसार के प्राणी मात्र का उद्धारक जिनधर्म है। इसका सदा कीर्तिगान करना चाहिए। अनेक प्राणी उसकी कीर्ति से आकृष्ट होकर भी अपने कल्याण के मार्ग पर लग जाते हैं, ऐसा न करना अथवा अपने निमित्त से जिनधर्म की अपकीर्ति होने देना सम्यक्त्व का अप्रभावना नामक आठवाँ दोष है। ये आठ दोष आठ प्रकार के मद तथा छह अनायतन और तीन मूढ़ता (जिनका कि विशेष स्वरूप आचार्य स्वयं आगे प्रतिपादन करेंगे) मिलकर सब पच्चीस दोष सम्यक्त्व के घातक
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