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श्रावकधर्मप्रदीप
ही संसार के दुःखों से बचाने में समर्थ हैं। शुद्ध सम्यग्दर्शन के संसारोत्तरण का कोई दूसरा उपाय है ही नहीं। अतः उसकी प्राप्ति के लिए सदा प्रयत्न करना ही चाहिए।
विशेषार्थ- सम्यग्दर्शन यथार्थ वस्तुतत्त्वश्रद्धा को कहते हैं। यथार्थ वस्तु की श्रद्धा ही यथार्थ ज्ञान प्राप्त कराने और यथार्थ ज्ञान ही सच्चारित्र पर चलाने का साधन है। इन तीनों उपायों से ही मनुष्यादि प्राणिवर्ग इष्ट सिद्धि को प्राप्त हो सकता है, अन्यथा नहीं। श्रद्धा, ज्ञान और क्रिया की उपयोगिता न केवल मुक्ति कार्य के लिए आवश्यक है, किन्तु संसार के किसी भी ध्येय की प्राप्ति के लिए इन तीनों की नितान्त आवश्यकता है। इन तीनों में यद्यपि क्रिया ही इष्ट वस्तु की प्रप्ति का मुख्य साधन है, तथापि क्रिया करना या न करना इस बातपर अवलम्बित है कि हमें उसके करने का ज्ञान हो। ज्ञानाभाव में अज्ञानियों की क्रिया ध्येय प्राप्ति के अनुकूल ही हो यह घुणाक्षर न्यायवत् है। यथार्थतया ऐसा हो ही नहीं सकता। इसलिए यह निश्चित हुआ कि ध्येय प्राप्ति के प्रयत्नस्वरूप क्रिया के पूर्व उसका ज्ञान होना नितान्त आवश्यक है। सभी संसारी प्राणी न तो सर्वज्ञ होते हैं और न विशेषज्ञ। अतएव यथार्थ ज्ञान के लिए किसी विशेषज्ञ या सर्वज्ञ के प्रति हमारी आस्था (श्रद्धा) भी नितांत आवश्यक है।
बहुत से सज्जन ऐसा प्रश्न करते हैं कि पहले ज्ञान होता है और फिर ज्ञान द्वारा विज्ञात तत्त्वों की श्रद्धा होती है। बिना ज्ञान के श्रद्धा किसकी? अतः सम्यग्दर्शन के पूर्व ही सम्यग्ज्ञान आवश्यक है न कि पश्चात् । प्रश्नकर्ता का यह प्रश्न तब ठीक होता जब हममें वस्तुतत्त्व को परखने की पूर्ण सामर्थ्य होती। संसार और उसके कारण, मुक्ति और उसके कारण भूत तत्त्वार्थों का निर्णय तद्विषय के विशेषज्ञ गुरु तत्प्रतिपादक देव या तत्प्रतिपादित आगम के बिना नहीं हो सकता और इनके उपदेश से तत्त्वज्ञान तब हो सकता है जब इन पर हमारा विश्वास हो। विश्वास के बिना कौन किसकी बात को स्वीकार करे? अतः यह सुनिश्चित हुआ कि तत्त्वनिर्णय के परिपूर्ण साधनों के अभाव के कारण तत्त्वनिर्णय के लिए तात्त्विकी श्रद्धा अनिवार्य है। तभी तत्त्वनिर्णयरूप सम्यग्ज्ञान होगा
और ज्ञानी हो जाने पर वह तद्रूप आचरण करेगा और उस आचरण से ही इष्टध्येय की प्राप्ति कर सकेगा।
आत्मतत्त्व को भूला हुआ यह प्राणी अपनी शक्ति को न पहिचानता हुआ ही कायर हो रहा है, आत्महित मार्ग से पराङ्मुख है। यदि वह आत्मतत्त्व को स्वयं समझ सकता तो अबतक संसार में परिभ्रमण ही क्यों करता? तब यह आवश्यकता हो जाती
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