________________
श्रावकधर्मप्रदीप
के घातक - शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, मूढ़दृष्टि अनुपगूहन, अस्थितीकरण, अवात्सल्य और अप्रभावना— ये आठ दोष तथा ज्ञान, प्रतिष्ठा (यज्ञ) कुल, जाति, शक्ति, सम्पत्ति, तपस्या और शरीरसौन्दर्य इन आठ के आश्रय से उत्पन्न आठ प्रकार का मद और कुदेव, कुशास्त्र, कुगुरु तथा कुदेव के आराधक, कुशास्त्र के स्वाध्याय करनेवाले और कुगुरुसेवी ऐसे ६ प्रकार के अनायतन तथा लोकमूढ़ता, देवमूढ़ता एवं गुरुमूढ़ता ऐसी ३ मूढ़ता सब मिलाकर २५ प्रकार के दोषों को दूर करके सम्यग्दर्शन को निर्मल बनाता है। यही प्राणी इसी अप्रत्याख्यानकषाय के अनुदय में द्यूत, मद्य, मांस, वेश्यागमन, परस्त्रीगमन, चोरी और शिकार इस संग्रह रूप पांचों पापों से यथाशक्ति दूर रहता है।
४२
यह बड़, पीपल, ऊमर, कठूमर, पाकर, मद्य, मांस, मधु रूप आठ अति हिंसाकारक पदार्थों के खाने का त्यागकर आठ मूलगुणों का पालन करता है। वह ऐसा भाव रखता है कि संयमरूपी महल की मूलभित्तिस्वरूप ये आठ मूलगुण मेरे लिए यथार्थ में कल्याणकारक हैं। संयम के बिना इस दुःखमय संसार से छुटकारा मिलना असम्भव है। परिपूर्ण संयम का पालन प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय में उसे अपने लिए संभावनीय नहीं प्रतीत होता, फिर भी उसकी भावना उसे प्राप्त करने के लिए सदा रहती है । वह प्रथम प्रतिमा का आराधक होने पर भी दूसरी, तीसरी आदि प्रतिमाओं के पालन करने के प्रति सदा उत्सुक रहता है। उसकी आकांक्षा सदैव आत्मपद प्राप्ति तथा आत्मानुभव के आनंद से प्राप्त अमृत को आस्वादन करने की रहती है। वह बुद्धिमान् निःसंशय आत्मोत्कर्ष के लिए प्रयत्नशील रहता है। ऐसा गुणवान् पुरुष लोक. व शास्त्र में 'दार्शनिक' अर्थात् प्रथम दर्शन प्रतिमा का धारी माना जाता है ।१७/१८/१९|
प्रश्नः - किं सम्यक्त्वस्य चिह्नं स्यात् कदा वा वद में गुरो ?
नैष्ठिकश्रावकस्वरूपनिरूपणावसरे प्रथमं तावत् सम्यक्त्वमूलनाशकानां पञ्चविंशतिदोषाणाम्परित्यागस्योपदेशः ः कृतः । तत्र न ज्ञायते यत् किं सम्यक्त्वस्य चिह्नमस्ति कदा वा तद्भवति तदुत्पत्तिनिमित्तं किमित्यर्थः। हे गुरो! तत्सर्वं मे कथय ।
इस द्वितीयाध्याय के प्रारम्भ में नैष्ठिक श्रावक का वर्णन प्रारम्भ करते ही आचार्य महाराज ने सम्यक्त्व के २५ दोषों के त्याग का उपदेश दिया है। शिष्य कहता है कि सम्यक्त्व की क्या पहिचान है और वह किस निमित्त से होता है यह बात गुरुवर्य मुझे पहले बतावें। इन प्रश्नों का गुरु उत्तर देते हैं
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org