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पाक्षिकाचार
लिए वे लोगों को नाना कष्ट देने लगे। साथ ही कुछ ऐसे भी वर्ग के लोग हुए जो दूसरों के कार्यों में मदद कर परोपकार करने लगे। अतएव इन दोनों प्रकार के दुर्जनों और सज्जनों का क्रमशः निग्रह करने और उपकार करने का कार्य आवश्यक हो गया। मुख्यतया सज्जन का सम्मान और दुष्टों का मानमर्दन करना राजधर्म था। तथापि यथावसर प्रजा के प्रत्येक गृहस्थ को भी यह आवश्यक हो गया कि वह दुष्ट का मर्दन तथा शिष्ट की रक्षा व सम्मान को अपना कर्त्तव्य-धर्म समझे, क्योंकि बिना ऐसा किये धर्म का परिपालन नहीं किया जा सकता था।
गृहस्थों में भी अनेक भेद होते हैं। कुछ तो ऐसे हैं जो लौकिक कार्यों को संसार बन्धन का कारण मानकर कम करते जाते हैं और आध्यात्मिक प्रवृत्ति को बढ़ाते जाते हैं। वे नैष्ठिक श्रावक कहलाते हैं। उनके उस अलौकिक मार्ग में बढ़ने का क्रम ग्यारह प्रतिमा के रूप में विभाजित है। इनमें प्रत्येक के लिए यह आवश्यक है कि वह अपने चारित्र को उज्ज्वल रखते हुए भी अपने समकक्ष या अपने से उन्नत चारित्रवाले की धर्मरक्षा अवश्य करे ।
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जबतक कोई धर्मप्रेमी गृहस्थ अपने को नैष्ठिक श्रावक नहीं बना सकता तबतक वह पाक्षिक कहलाता है। इस प्रकरण में इन्हीं पाक्षिक श्रावकों के कर्त्तव्यों का प्रतिपादन किया गया है। इस पाक्षिक श्रावक का यही धर्म है कि वह धर्मसेवी सज्जनों की रक्षा करे। उनके धर्मसेवन कार्य में यथोचित सहायता दे और उनमें बाधा देनेवाले दुष्ट मनुष्यों को दण्ड दे।
विश्व में यदि शान्ति की स्थापना करनी है और सम्पूर्ण प्रजा को सुखी बनाना है तो प्रत्येक पाक्षिक को स्वयं सुजनता का व्यवहार करना होगा और सुजनों के साथ भाईचारे का व्यवहार करते हुए दुष्टों का निराकरण करना होगा। ऐसा करना पाक्षिक अपना धर्म मानता है। वह समझता है कि यदि मैं स्वयं उच्चतम धर्म का पालन नहीं कर सकता तो मेरा यह तो अवश्य कर्त्तव्य है कि दूसरों को उसका परिपालन करने दूँ, उनकी मदद करूँ तथा उनके कार्य में आनेवाले विघ्नों को दूर करूँ।
वह धर्मात्मा पुरुषों को देखकर प्रसन्न होता है। उसके अंग-अंग पुलकित हो उठते हैं। वह सेवा करने को लालायित हो उठता है। थोड़े शब्दों में यह कहा जा सकता है कि धर्म शासन के चलाने के लिए वह स्वयं सेवक वीर सैनिक की भाँति अपने को सदा
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