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श्रावकधर्मप्रदीप में अक्षय कीर्ति का सम्पादन करता है। स्वार्थी मनुष्यों की ही संसार में अकीर्ति होती है। इन्हीं सिद्धान्तों के आधार पर पाक्षिक श्रावक जाति सम्प्रदाय-ग्राम-प्रान्त आदि भेद भाव को भुलाकर समस्त मानवों के साथ सम-दुख-सुख-भागी बनकर बंधुत्व भाव स्थापित करता है।।१२।।
(उपजाति:) सुखी ह्यधर्मेण भवामि नित्यं
ह्येवञ्च भावो न कदापि कार्यः । भवामि धर्मेण सुखी सदेति
कार्यात्मशान्तेर्वरभावनैव ।।१३।। सुखीत्यादिः- अधर्मेण हिंसयाऽसत्यसम्भाषणेन परधनापहरणेन परवनितासंभोगेन कूटकपटव्यवहारेणात्मस्वार्थसाधनेन स्वभोगोपभोगसाधनाय परप्राणपीडनेन अखिललोकानामपि द्रारित्र्याभिभूतक्षुत्क्षामपीडितनिर्वस्त्रकत्वादिभीमदुःखोत्पादकेन धान्यवस्त्रादिपरिग्रहसञ्चयरूपमहापापेन नित्यं सर्वदा सुखी भवामि भविष्यामि, एवं भावः कदापि न कार्यः। तथा सदा धर्मेणैव उत्तमक्षमादुःखितसेवापरोपकारवृत्तिसम्यग्ज्ञानार्जनदेवतीर्थवन्दना सम्यग्गुरुसेवादुःखितदानादिकर्मणा अहं सुखी भवामि भविष्यामि इति आत्मशान्तेः स्वात्मनिर्वृत्तिहेतोः वरभावना श्रेष्ठभावना सदा कार्या।।१३।।
हिंसादिरूप पापों के द्वारा परधनहरण कूटकपट द्वारा स्वार्थ साधन परस्त्रीभोग अपने भोगोपभोग के निमित्त पर प्राणियों को पीड़ा देना आदि दुष्कर्मों के द्वारा अधिकांश मानवों को दरिद्र-क्षुधापीडित और नग्न बना देनेवाले धन-धान्य, वस्त्रादि परिग्रह को अतिसंग्रह करने रूप महापाप रूप व्यापार के द्वारा मैं सुखी हो जाऊँगा- ऐसा भाव कभी नहीं करना चाहिए। पाक्षिक गृहस्थ को सदा यह भावना सर्वोत्तम प्रकार से करनी चाहिए कि उत्तमक्षमा, दुखियों की सेवा, परोपकार, सम्यग्ज्ञान का लाभ करना व कराना, देववन्दना, तीर्थवन्दना और सम्यग् गुरु की सेवा व दुखित दानादि सत्कर्म स्वरूप धर्म के द्वारा ही मैं सदा सुखी हो सकूँगा ऐसी उत्कृष्ट भावना संतोष सुख और शान्ति प्राप्त करने के लिए सदा हृदय में रखनी चाहिये।
भावार्थ- धर्म सुख का साधन है और अधर्म दुःख का ऐसा प्रायः सभी कहते हैं किन्तु धर्म क्या है और अधर्म क्या है इस विषय में बड़ा विवाद है और इसी विवाद के कारण सिद्धान्तवादी भी भटक जाते हैं। उन्हें भी वास्तविक मार्ग नहीं मिल पाता।
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