________________
पाक्षिकाचार
२४०
हो तो उन देशवासियों में भी पारस्परिक स्नेह बंधन दृढ़ होता है और संगठन सुदृढ़ होता है।
यही स्वार्थ वासना रहित सर्व सुख-दुःख समभागीपना देश के संगठन को मजबूत करता है और वहाँ देश स्वराज्य प्राप्त कर सकता है इसके विपरीत नहीं कर सकता। जो मनुष्य अपने स्नेह की सीमा अपने देश या राष्ट्र तक ही सीमित नहीं रखता बल्कि समूचे संसार के प्राणियों को अपना बन्धु मानता है वह गार्हस्थिक स्थिति से दूर हो जाता है। गार्हस्थिक स्थिति अपने व्यक्तिगत भोगोपभोग के स्वार्थ साधन करने का एक गुट है जिसकी सीमा उस घर के निवासियों तक है। जो अपने ग्राम की भलाई उसकी स्वतन्त्रता का विचार रखता है उसे अपने घर में विशेष स्वार्थ के साधक व्यक्तियोंका मोह कम कर देना पड़ता है और अपने स्नेह के क्षेत्र को बढ़ाना पड़ता है। जो ग्राम के बाहर अपने देश या राष्ट्र को अपने स्नेह का क्षेत्र बनाता है उसे ग्राम या प्रान्त का मोह छोड़ देना पड़ता है और उसका उतना ही ख्याल रखता है जितना अपने देश के दूसरे ग्रामों का। ___अखिल विश्व को अपना स्नेह बखेरने की इच्छा रखने वाले तथा सारे संसार के प्राणिमात्र के सुख दुःख में समभागी होने वाले महापुरुष को अपने देश व राष्ट्र के स्वार्थ को भी दुनिया के स्वार्थ में मिला देना होगा। अपने इस महान यज्ञ को पूरा करने के लिए उसे गार्हस्थिक जीवन का त्याग करना होगा, व्यक्तिगत स्वार्थ को किनारे रखना होगा, कठोर साधना करनी होगी तब वह अखिल विश्व को अपना आत्मराज्य पाने का शुभसंदेश सुना सकेगा।
यह साधु पुरुष संसार के विषय-भोगगत स्वार्थ को झूठा स्वार्थ मानता है, उसे कलह का बीज मानता है, शारीरिक आवश्यकताओं की अभिलाषा को आत्म-भिन्न निर्जीव पदार्थ की सेवा मानकर उससे आत्म-धर्म का कुछ भी स्वार्थ नहीं मानता। पौद्गलिक तत्त्वमय शरीर और पुद्गल कर्म दोनों आत्मतत्त्व को बंधन में डालने वाली-पराधीनकरनेवाली वस्तु हैं। साधु के सम्पूर्ण प्रयत्न दोनों के मूल विनाश की ओर सदा रहते हैं। यह परिपूर्ण अहिंसादि पाँच महाव्रतों का पालन करता हुआ जब अपने प्रयत्न में सफल होता है तब आत्मराज्य-स्वराज्य को प्राप्त कर लेता है।
ऊपर के व्याख्यान से यह सिद्ध है कि चाहे सांसारिक दृष्टि से हो चाहे पारमार्थिक दृष्टि से, जो मनुष्य स्वराज्य के स्वातन्त्र्य सुख का अनुभव करना चाहता है उसे व्यक्तिगत स्वार्थों का मोह त्यागकर विश्व के प्राणियों से मित्रता करनी चाहिए। ऐसा व्यक्ति संसार
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org