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श्रावकधर्मप्रदीप
(उपजाति:)
वादो विवादोऽपि मिथो विधेयः कदापि न प्राणहरः कुबुद्धया । ज्ञात्वेति पूर्वोक्तविधिर्विधेयो
यतो भवेच्छान्तिकरी प्रवृत्तिः ।। १५ ।।
बाद इत्यादिः - कुबुद्ध्या दुर्बुद्ध्या मिथः परस्परं वादः परपराजयेच्छ्या प्रवर्त्तमानो वार्तालापः कदापि न विधेयो न कर्तव्यः । विवादः विरोधोत्पादको वादो विवादः सोऽपि नाङ्गीकर्त्तव्यः । यतः कषायोत्पादकत्वादसौ प्राणघातकः प्राणहरो भवति । आत्माभिमानदग्धानां प्राणिनां स्वपराजयः परविजयोत्कर्षश्च प्राणघातादप्यधिककष्टप्रदो भवति इति यावत् । वस्तुतस्तु नायमेकान्तः । किन्तु बुद्धिमन्तः तत्त्वान्वेषिणो वस्तुस्वरूपं ज्ञातुमिच्छन्ति तदा कुतत्त्वखण्डनं सुतत्त्वप्रकाशनं प्राणदायकमिव भवति। अतएव पूर्वोक्तविधीन् स्वबुद्धिवैभवेन तोलयित्वा यथावसरं तत्र प्रवृत्तिर्निवृत्तिर्वा कार्या । एवं विचार्य विहिता स्वप्रवृत्तिः सदा शान्तिकरी भवेत् स्यात् ।। १५ ।।
इति श्रीकुन्धुसागराचार्यविरचिते श्रावकधर्मप्रदीपे पण्डितजगन्मोहनलालसिद्धान्तशास्त्रिकृतायां प्रभाख्यायां व्याख्यायां प्रथमोऽध्यायः समाप्तः ।
किसी भी पुरुष के पराजय की इच्छा से परस्पर कलह और वैर को उत्पादन करनेवाला वाद और विवाद नहीं करना चाहिए। अनेक प्राणी जो अपने घमंड में ही चूर रहते है, अतत्त्व को ही तत्त्व समझ कर अपने को धर्मज्ञ या धर्मतत्त्व - वेत्ता मान लेते है, वे मानधनी वाद में अपनी पराजय देखकर जीवित ही प्राण देने को तैयार हो जाते हैं - स्वपराजय से होनेवाली तीव्र कषाय के कारण आत्मघात कर लेते हैं। उनकी इस कुबुद्धि को धिक्कार है जो उन्हें तत्त्वज्ञान नहीं उत्पन्न करने देती। आचार्य उपदेश देते हैं कि ऐसे पुरुषों से वादविवाद नहीं करना चाहिए, जिन्हें वाद-विवाद तत्त्वदर्शक न हो सके बल्कि उनके लिए जीवितावस्था में भी प्राणघातक जैसा हो जावे । सज्जन सद्गुणग्राही पुरुष को अतत्त्व खण्डन पूर्वक तत्त्वज्ञान की कथनी करनी हानिप्रद नहीं है। उपर्युक्त विधि को यथार्थ समझकर ही इसका प्रयोग करना शान्ति को उत्पन्न करता है, अन्यथा तत्त्वोपदेश के हृदय में भी अशान्ति उत्पन्न होकर हानिकर हो सकती है।
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भावार्थ - अपने विषय का दूसरे के प्रति प्रतिपादन करना तबतक नहीं बनता जब तक कि उस विषय का खण्डन न किया जावे जो हमें इष्ट नहीं है। इस कार्य को ही वाद कहते हैं तथा यही वाद जब विशेष रूप में बढ़ जाता है तो उसे विवाद कहते हैं, यदि वह स्वजय और परपराजय चाहते हुए किया जाय। इसके विरुद्ध बिना जयपराजय
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