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श्रावकधर्मप्रदीप
सन्नद्ध रखता है। धर्म व धर्मात्मा की रक्षा के प्रति ऐसा जिसका निर्मल भाव है वही पाक्षिक गृहस्थ है।।११।।
प्रश्न- पाक्षिकस्य विशेषा तु प्रवृत्तिः कीदृशी वद। अत्र पाक्षिकश्रावकस्य कर्तव्यविशेषा निर्दिश्यन्ते। आगे पाक्षिक श्रावक के विशेष कर्तव्यों का उपदेश आचार्य महाराज करते हैं
(उपजातिः) कार्या स्वबुद्ध्या भुवि मित्रताऽपि
प्रमुच्य मायां सकलैः समं हि । यतो भवेत्ते विमलैव कीर्तिः
स्वराज्यलक्ष्मीश्च सदा स्वदासी ।।१२।। कार्येत्यादि- यतो भुवि विमला कीर्तिः प्रस्फुरति। न केवलं कीर्तिरेव भवति अपि तु स्वराज्यलक्ष्मीः। स्वं च तद् राज्यं स्वराज्यं तदेव लक्ष्मीः इति स्वराज्यलक्ष्मीः सदा स्वदासी इव तं सेवते। तस्मात् कारणात् स्वबुद्ध्या स्वबुद्धिपूर्वकं मायां-कपटवृतिं प्रमुच्य परित्यज्य सकलैः समं “सत्त्वेषु मैत्री विदधातु” इति अमितगत्याचार्योपदेशपरम्परामनुस्मरता जाति-कुल-विभव-संपत्ति-ज्ञान-बलगति-दारिद्र्य जरा-रोग-सुभगत्व-दुर्भगत्वादिभेदमनालभ्य दीनींनैर्दारिद्र्योपेतैर्जरारुजापीडितैहीनकुलजैः कुलीनैः श्रीमद्भिः संपत्तिशालिभिर्विद्वद्भि-मूखैर्निर्बलैर्बलवद्भिर्दुभंगैः सुभगैर्वा पुरुषस्त्रीनपुंसकैः पशु-पक्षि-कीटपतङ्गादिभिश्च सर्वैः प्राणिभिः सह समानरीत्या मित्रता नामसुखदुःखसमभागित्वरूपं बन्धुत्वम् । अवश्यं कार्या करणीया ।।१२।।
इस लोक और परलोक में सुख के अभिलाषी श्रावक को उचित है कि वह प्राणिमात्र के साथ सुख-दुःख में समभागी बने। धर्मज्ञ सज्जन की यही पहिचान है कि उसे किसी प्राणी को दुःखी देखकर करुणापूर्ण खेद उत्पन्न होता है और शक्त्यनुसार उसके कष्ट को दूर कर देने की भावना व प्रवृत्ति पाई जाती है तथा दूसरे प्राणियों को सुखी देखकर उसे प्रमोद होता है। इस भाव का नाम ही मैत्रीभाव या बन्धुत्वभाव है। श्रावक निष्कपट भाव से प्राणिमात्र में ऐसा भाव रखे तो संसार में उसकी निर्मलकीर्ति फैले और सर्वतन्त्र स्वतन्त्र शासनरूपी संपत्ति सदा उसकी दासी के समान सेवा करे।
भावार्थ- प्रत्येक प्राणी की प्रवृत्ति ऐसी है कि वह पराधीनता और अकीर्ति को किसी भी हालत में पसन्द नहीं करता। वह घर में, मुहल्ले में, ग्राम में, देश में, राष्ट्र में, जाति में और सभा में सर्वत्र अपनी प्रशंसा और स्वतन्त्र-वृत्ति का अभिलाषी है।
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