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श्रावकधर्मप्रदीप
परस्पर अनुराग का उपदेश कैसे दिया गया? उसका समाधान यह है कि त्याग के मार्ग में भी कुछ क्रम है। पहिले द्वेष का त्याग होगा, द्वेष का त्याग करके सर्व जीवों पर स्नेह भाव रखना यह वीतरागी बनने की पहिली सीढ़ी है। जिसने द्वेष भाव पर विजय प्राप्त कर ली और सबसे स्नेह करने लगा वह व्यक्ति भी जबतक अपने स्वार्थसाधक व्यक्तियों को स्वजन मानकर अधिक स्नेह और शेष पर केवल द्वेषभाव मात्र स्नेह रखता है तबतक वह पूर्ण वीत-द्वेष नहीं कहा जा सकता। उसे अभी अपने स्नेह को बखेरने में उदारता से काम लेना होगा। जब वह ऐसा कर सकेगा और 'उदार चरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्' के सिद्धान्त का परिपूर्ण अनुयायी हो जायगा तब समझा जावेगा कि वह पूर्ण वीतरागी हुआ। सच्चा शास्त्र पारस्परिक कलहोत्पादक उपदेश की रचना नहीं कर सकता। यह सुनिश्चित है कि वक्ता के हृदय का भाव उसके वचनों में अवश्य अंकित हो जाता है। अपने भावों को दूसरों को समझाने के लिए ही तो मनुष्य को शब्दों का आश्रय लेना पड़ता है। तब यह कैसे संभव हो सकता है कि हितोपदेशी वीतरागी सर्वजीवसमभावी सर्वज्ञ भगवान् के वचनों में पारस्परिक वैर को दूर करने वाला उपदेश न हो? इससे यह सिद्ध है कि सच्चा शास्त्र वही है जो जिनोक्त हो और उसकी परीक्षा यही है कि वह हमारे पारस्परिक कलह को जो सम्प्रदायभेद के कारण भी उत्पन्न हो जाती है उसको प्रोत्साहित न करे। बल्कि जो मत विभिन्नता को दूर कर सर्वहितकारी कर्तव्यों की ओर प्राणिमात्र का ध्यान आकर्षित करे।
प्रायः देखा जाता है कि अपने विषय को प्रतिपादन करने के लिए और उसका प्रभाव जनता पर जमाने के लिए लोग आत्म-प्रशंसा व परनिन्दा इस पद्धति को अंगीकार कर लेते हैं। परन्तु सच्छास्त्र इसे दोष ही बताते हैं। इसे निन्दनीय तथा नीच गोत्र का बंध करानेवाला अर्थात् उसे इस लोक में नीच विचारवाला घोषित ही नहीं करते, बल्कि जन्मान्तर में भी ऐसे व्यक्ति को “नीच विचारवाला लोकनिन्द्य होगा" ऐसा घोषित करते हैं। आत्म-प्रशंसा और परनिन्दा की पद्धति ही परस्पर में वैर का बीज बोती है। यह सच है कि किसी भी व्यक्ति को अपने मत को प्रतिपादन करने के लिए उसके गुण और अपने मतविरुद्ध विषय के दोष कहने पड़ेंगे। इसके बिना वह अपने इष्ट तत्त्व का स्वरूप ठीक-ठीक लोगों को नहीं बता सकता। तथापि सच्चे शास्त्र का उपदेश वस्तु के गुण दोषों का ही विवेचन करता है, किन्तु निन्दात्मक पद्धति से किसी व्यक्ति को जनता की दृष्टि में गिराने का प्रयत्न नहीं करता। बल्कि तत्त्वमार्ग से भूले हुए विभिन्न मत के व्यक्तियों को भी अपने कल्याण-मार्ग को स्वीकार कर लेने के लिए उत्साहित करता है। ऐसा जिस
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