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राजविद्या। [११] सरूपेणाविभवति च प्रकाशयति ।
भाषार्थ य योग मायावश लुप्त प्रकाश होता रहता है तोभा जगत समूल नाश कभी नहीं होता है कम जादा अंशसे मनुष्यों की बुद्धि में प्रति रहता है । महत्काल से (हजारोंवाँस ) स्वार्थ सुख भोगेश्वर्य की अधिकता आपढ़ती है तब नष्ट व लुप्त होकर वेदोंमें श्रीमद्भग द्धं ता में उपनिषदोंमें बीजरूपसे बाकी रह जाता है उम बीजरूप रहेहुवे को दवतों के शिवाय कोइ भी नहीं जान सकता है उत्थान पतन प्रकृतिका स्वभाव है तदनुसार क्षत्रि. या क उदय समय में वा विद्या पूर्ण विस्तार सरू. पस आती है और प्रकार होती है ।।।
स्वेष्ट प्रेरणा सायोगयुक्तमाया से योगमाया प्रसन्ना त्रिभिगुणः संवर्ति वा साम्यास्था त्रिगुणात्मिक माया क्षात्रः जातिषु शुद्धोचेश्वरभावं वित तिसति शुद्धोचेश्वर भावाहि स्थितिः॥ त्रिशुला
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