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राजविद्या।
[२१] बन्धानां स्थैर्यम् । अहिंसायाऽऽयूश्च संवर्धनम् । वराशीष या शुद्धः संततिरुत्पत्ति वावतरणम् । धमेण धनानि सुखमेवच । पुरुषार्थेन मान प्रतिष्टा स्थितिश्चाधारः सदाचरणन स्वस्थ: स्थितं स्थिराम् ॥ मनोऽन्न धन सत्कार: तैश्च स्वदेश वीर सुभटांच बुद्धां सद्विद्यायुक्ता स्वकरणम् तथा दीन प्रजा पालनम् तथा दुष्टानदण्डः राज्य सु. स्थिरमचलं ध्रुवम् ॥
भाषार्थ प्रजा को राजी रखे वह राजा है। राजा इस जगत की वृद्धि का कारण है अच्छी तरह समजने वाला पाण्डेत बुद्धिमान जगत के अनु. भवी ( तजुरबेकार ) अपनी जाती का अपने मालिक का सुभाचिन्तक और बुढों की संगति
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