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राजविद्या ।
॥ चतुर्थोपदेश ||
बुद्धिः कर्मयोगः न्यायश्च
[ ३६ ]
ज्ञानेच्छा कृतिभिरेव स्वार्थिकी पारमार्थिक्यौ बुद्धः सम्भवः अनेकापु योनिषु मनुष्य योनि (शरीर ) माययै दृशी रचिता ययानेकजन्माभिर्निष्पा दितानि शुभाशुभानि कर्माणि मनुजो विशिष्य दुरिता बहानि सुकृता बहानि वा सुसम्पादयितुम् शक्नुयात् ॥
भाषार्थ
बुद्धि कर्मयोग और न्याय ज्ञान इच्छा और क्रियावों से स्वार्थिकी और पारमार्थिक बुद्धियों का होना सम्भव है || अनेक योनियों (शरीर ) में मनुष्य शरीर माया से एसा रचा है | जिससे अनेक जन्मों से किया हुआ शुभ अशुभ कर्म
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