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राजविद्या
[६६ ।
देशक) शास्त्र से हीन जगत में निरर्थक (निकम्मे) है । इस तत्त्व को जान्ता हुवा दान पुण्य करना चाहिये । सुपात्र को जगत हित के लिये दान पुण्य करे ।। अति तृष्णा जगत में मिथ्या है वे लोग अति तृष्णा वाले दुःख पाते हुवे अपना सर्वस्त्र को नाश करलेते है । परमार्थिक बुद्धि से सभ्यता और संयम ( अपने आपे को अपने वश में रखना अवश्य है ।। प्रजा के हाल को सुनना चाहिये इससे ज्ञान की प्राप्ती होती है। ज्ञान ही महा प्रबल बल है ।। राजा को अति प्रबल दण्ड न देना चाहिये ।। मनुष्य जातियों में भूखी जा. तियां व दरिद्री होजाय उन मनुष्यों को राजा यथाचित कामा में लगादे जिससे उनका पालन विवाह होता है तिससे वे पाप कर्मों में न प्रवरी होवे सोही धर्म है । क्षत्रिय शरीर के लिये अप. नी राजविद्या में श्रद्धा पुरुषार्थ मेरी ही आराधना उपासना सब ही है । ये कार्य सन्यासी पण्डित के हात में हो ॥
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