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। कोबातीर्थमंडन श्री महावीरस्वामिने नमः ।।
।। अनंतलब्धिनिधान श्री गौतमस्वामिने नमः ।।
।। गणधर भगवंत श्री सुधर्मास्वामिने नमः ।।
।। योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।।
। चारित्रचूडामणि आचार्य श्रीमद् कैलाससागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।।
आचार्य श्री कैलाससागरसूरिज्ञानमंदिर
पुनितप्रेरणा व आशीर्वाद राष्ट्रसंत श्रुतोद्धारक आचार्यदेव श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा.
जैन मुद्रित ग्रंथ स्केनिंग प्रकल्प
ग्रंथांक :१
जैन आराधना
न
कन्द्र
महावीर
कोबा.
॥
अमर्त
तु विद्या
श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र
शहर शाखा
आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर-श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर-३८२००७ (गुजरात) (079) 23276252, 23276204 फेक्स : 23276249 Websiet : www.kobatirth.org Email : Kendra@kobatirth.org
आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर शहर शाखा आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर त्रण बंगला, टोलकनगर परिवार डाइनिंग हॉल की गली में पालडी, अहमदाबाद - ३८०००७ (079)26582355
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SEE ॐ शिव ®
राज विद्या सृष्टि में खस्ति सुख शान्तिः स्थिति वृद्धि का सम्पति भूति दीर्घायु सिखलाती है
जिसका प्रकाशक वाल ब्रह्मचारी योगीराज श्रीलालजी) महाराज राजर्षि सोनजी महाराज ज्वालेश्वर महादेव रवामी लालपुरी शिवपुरी ठी.फतेहसागर जोधपुरने रावराजाजी श्री गुलाबसिंहजी साहिष की अधिकतर सहायता से छपाकर प्रसिद्ध की है और जिसे इन हीरावराजाजी साहिब
की प्राज्ञा विना छापने वा छपवाने का अधिकार किसीका नहीं है
राजी महाराजाओं के लिये श्रमूल्य समत १९८७ सरदार धनाढयोंके लिये मू.२५) सन् १९३० सर्व साधारण और राजपूत प्रथमवार २००० विद्यार्थियों के लिये ७)
सजिल्द ...)
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श्री श्री १०८ श्री उम्मेदसिंहजी साहिक बहादुर मरुधराधीश
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*श्री
प्राक कथन
यह स्पष्ट होचुका है कि किसी समय में यह आर्यवर्त भरतखण्ड समस्त विद्याओं में सर्वोपरी था और आज दिन भी युरोप देश के जो सभ्यता में प्रथम है, बड़े २ विद्वानों ने इस देश की विद्याओं से बोहतसा लाभ उठाया है और मान प्रशंसा करते हैं । उनहीं विद्याओं में की एक राज विद्या का जो राज्य करने की विद्या है, सात आठ हजार वर्षों से लोप होना श्री मद्भगवदगीता के चौथे अध्याय मे साबित है और नवमें अध्याय में भी थोड़ा वर्णन है वही ये विद्या अत्यन्त पारे श्रम मे अब मर्माण मिली है । इस विद्या प्रचार के समय में क्षत्रियाँ का राज्य समस्त भूमण्डल में था। इसको प्रचार करने के लिये बोहत से बड़े २ उच्च श्रेणी के
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(ख) सरदारो ने सहायता सम्मति दी है परन्तु इस सर्वोपरि जगत हितकारी कार्य में सब से अधिक सहायता तो रावराजाजी श्री गुलाबसिंहजी साहिब ने दी है, जो एक उदारवित्त वीर क्षत्री बड़े रावराजाजी श्री तेजसिंहजी साहिब के पाटवी पुत्र जिनकी योग्यता एक अधिक उच्च क्षत्रियों की योग्यता से समानता रखने वाली है। आप सरल स्वभाव सर्व दुर्व्यसनों से निवृत सब गुण सम्पन्न सच्चे न्याय धर्म को समझने वाले उच्च भाव के सच्चे राज भक्त स्वामी के शुभचिन्तक निरन्तर इस सत्य वचन को अपने ध्यान में प्रीति प्रशंसा के साथ रखते हैं कि“विधना अपने हाथसे तोले सर्व करम्म । सौ सुकृत इक पालड़े एको साम घरम्म ॥” . इस प्रकार सत्री भक्ति से साम धर्म को पालने वाले बड़े महाराजाजी श्री श्री १०८ श्री तखत. सिंहजी साहिब बहादुर की अधिक योग्य सन्तान में से हैं इस अद्वितीय परम उपयागी अत्यन्त
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(ग)
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लाभ दायक जगतांतकारी राजा प्रजावों में सुख शान्ति दृढ रखनेवाली विद्या का प्रचार और अधिक द्रव्य व्यय का भार अपने ऊपर लिया है ये स्वयं साम धर्म पालना साबित कर रहा है ।
इस परम पवित्र विद्या को अपने स्वजाति क्षात्र हितकारी समझ और उपरोक्त सर्व वार्ताओं को अपने लक्ष में रख श्री महाराजाजी साहिब बहादुर की पवित्र सेवा में प्रकाश करने के लिये एवम परिश्रम और व्यय कीया है ।
इस विद्या का प्रभाव आज तक भी न्यूनांश तक क्षत्रियों के रक्त में रम रहा है यही कारण है कि जगदारम्भ से अभी तक क्षत्रियों का राज्य स्थिर है ये विद्या राजा प्रजाओं में स्वस्ति सुख शान्ति स्थिति और सुख पूर्वक आयुस वर्धक प्रबन्धों की कुशलता सिखलाती है । इस विद्या का पूर्ण ज्ञान अद्वितीय है इसीलिये चक्रवर्ती सम्राट सूर्य इक्ष्वाकु मनु आदिकों ने इसको सर्वो परी विद्या कही है, ये वही क्षात्र विद्या है जिसके
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(घ)
पूर्ण पवित्र ज्ञान से क्षत्री समस्त भूमण्डल भर में राज्य किया करते थे, अब इस समय में लगभग पूर्ण अभाव सा हो जाने से पतन लक्ष में आ रहा है परन्तु परम दयालु जगदीश्वर को इस विद्या का ज्ञान प्रकाश फिर स्वीकार हुवा है वरन क्षत्री तो इस का नाम तक भी भूल गय है उसी की मेहर है जिसका परिवर्तन उत्थान पतन होता रहता है कोटान कोट धन्यवाद उस जगत पिता सर्व शक्तिमान को है जिसने मेहर की दृष्टो इस सर्वोनम ज्ञान प्रकाश द्वारा स्वीकार को है इस परम तत्व को इन रावराजाजी साहिब ने समझकर अपने स्वामी महाराजाजी साहिब बहादुर की सेवा में अपना आत्मिक भाव समर्पण. किया है।
स्वामी लालपुरी ठी० फतेह सागर.
जोधपुर.
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त
॥ श्री॥ समर्पण पत्र । मेजर हिज हाइनेस राज राजेश्वर महाराजाधिराज महाराजाजी श्री श्री १०८ श्री उम्मेदसिंहजी
साहिक बहादुर के० सी० पी० मो,० के० सी० एस० माइ, जी० सी०
भाइ० इ०.
मारवाड (जोधपुर) १-हे भगवन आपके तप तेज प्रताप सदाचार और सुभ गुणों के कारण ही सारे देश में स्वस्ति सुख शान्ति स्थिति निर्विघ्नता के साथ छा रही है । कोइ भी किसी पर किसी प्रकार से अत्याचार नहीं कर सकता, सारी आपते शान्त हो रही हैं। उत्तमोत्तम कार्य उन्नति के सम्बन्ध में हो रहे हैं, प्रजा गणों
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आनन्द मंगलाचार की बधाय बट रही है । विद्धान गुणी जनों का यथावत सत्कार होता है, दुष्ट उपद्रवों के शान्ति की शिक्षायें हो रही है न्याय मर्यादों के प्रबन्धों में सुधार हो रहा है प्रजावों में विविध विद्यावों का प्रचार हो रहा है गरीब दीन प्रजा विधवा स्त्रियां अपणे पोषण में असमर्थों का तथा अन्ध पंगु अनाथ बालकों का पालन पोषण हो रहा है | आप जब से राज सिंहाशन पर सुशोभित हुवे है राम राज्य वा धर्म राज्य चल रहा है आप स्वयं प्रजा को शिक्षा कर रहे हैं जैसे श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है ''यद्यदाचर ति श्रेष्ठः ततदेवेतरोजनः' याने जो बड़े श्रेष्ठ पुरु. पचा राजा करता है उसी माफिक या उसी की नकल दूसरे करते है याने आप दुर्व्यशनों से निर्वत है तो प्रजा भी दुर्व्यशनोंको त्याग रही है
आपने मर्यादा पूर्वक एक ही विवाह श्रेष्ठ समझा है तो प्रजावों में भी सदाचार फैल रहा है।
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(छ) जगदारम्भ से आपके घराणों में राज्य चला ही
आरहा है इतना पायदार और प्राचीन राज्यकुल (खान्दान ) सृष्ठि में अन्य कहीं नहीं है। आप प्रजा वात्सल्य सदाचार परम्परा की मर्यादा पूर्वक पुत्रवत प्रजा पालनादि दिव्य दैविक गुण सम्पन्न है इसी वास्ते हम सब आपके वास्ते तन मन धन और प्राणों से सर्वथा तत्पर कटिवध हैं।
२-आपके विद्यानुराग से आज उस विद्या के दर्शण का सु अवसर प्राप्त है जिसके प्रभाव से आप ही के धराणों में पूर्वज क्षत्रिय राजा समस्त पृथिवी मण्डल में राज्य करते थे । ये अद्वितीय विद्या आप हो के घराणों की है, इस से समानता रखने वाली अन्य कोइ विद्या नहीं है इसलिये जगदारम्स में आप के ही वंश में राजा सूर्यमनु इक्ष्वाकु आदिकों ने इसको सर्वोपरी विद्या नही है इसी के प्रभाव से अनुभवी शोल राजा सच्चा न्याय करने में समर्थ होते थे। प्रत्येक वार्ता को यथावत जानना बड़ा भारी
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( ज )
बल है । जैसे अंग्रेजों का भी ( Proverb ) है कि ( Knowledge is the Greatest Power ) इसी के अनु. सार अंग्रेज सैकड़ों (Detectives ) रखते हैं और वर्तान्त जानने के लिये ही आपके वंश में पहले के राजा माहाराजा रात को गस्त में जाया करते थे, और स्वयं भी पोशीदा तौर से खुपीया प्रजा से हाल सुनते थे, क्यूंकि प्रकृति नियमानुसार सर्वेबल बुद्धि प्रजागणों में बटी हुई है, इसलिये प्रजागणों में और हम लोगों में जो जो सभ्य व्यक्ति बुद्ध जन है, उनसे मिलते थे. और मिलने से ही अनुभव होता है । एसे राजाओं को कोइ धोके में नहीं डाल सकते थे जिससे उनके राज्य में प्रजा उपद्रवी नहीं होती और कोई विघ्न नहीं पड सकता । इसी विद्या के ज्ञान से आप ही के वंश में केइ चक्रवर्ति राजा सम्राट महाराजा हुवे उन ही का पवित्र रक्त आप में रम रहा है । आप स्वयं अद्वितिय बुद्धिमान हैं आपकी बुद्धेि मामुली साधारण राजाओं की सी नहीं है सिर्फ
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इस विद्या का अनुभव और बुधजनों का विशेष संसर्ग शेष है सो भी आपके पुण्य प्रताप से ये विद्यातो प्रगट हो आई है और बुद्धजनों के मिलने से राजा सर्व जाण होता है और निष्कण्टक राज्य करता है जैसे माहाराजा विक्रम भोज कर्ण आदि थे, और आज दिन भी बड़े से बडा अंग्रेज छोटे से छोटा आदमी से मिलने में कोह संका नहीं खाता है इसी से उनका बल बढता जा रहा है । परन्तु फिर भी प्रकृति माया वश उत्थान पतन होता रहता है, ये ही विद्या यूरोप वालों को लगभग १०३ वर्ष पेशतर इसी देश से अधांश मिली थी उसी के नमुने से ये प्रशंसनीय राज्य कर रहे हैं । परन्तु आपके पूर्व अपार पुण्य प्रताप से अब वही विद्या पूर्ण रूप से मिली है।
३-इस विद्या का ७-८ सात आठ हजार वर्षों से लोप होना श्रीमद्भगवद्गीता के चौथे अध्याय
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से स्पष्ट साबित है इसकी प्रशंसा मैं तो क्या करूं पर महाराज श्री अजीतसिंहजी साहिब और पं० मदन मोहन मालवी जी आदि बड़े बड सरदार बहुत ही ज्यादे प्रशंसा कर रहे हैं
और इसी के ज्ञान से स्वामी लालपुरी बहुत ही उत्तमोत्तम कार्य कर रहा है, जिससे इसकी प्रशंसा बहुत बडे बडों में हो रही है इस विद्या की खोज इसने १४ वर्ष घोर परिश्रम एवं कष्ट उठा कर तपस्थियों के सत्संग द्वारा प्राप्त की है इसकी सफलता का शुभ योग भी आपके ही प्रशंसनीय राज्य में हुवा है।
४-ये राज्य विद्या राजा प्रजाओं में स्वस्ति सुख शान्ति स्थिति कुशलता पूर्वक शिख लाती है इसके ज्ञान से राज्य सुस्थिर अचल और ध्रव होता है और राजा बहुत वर्षों तक सुख चेन से
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(ट)
राज्य करता है और बहुत सन्तति के साथ वृधि को प्राप्त होता हुवा दीर्घायुसवाला होता है और
आपके लिये यही मेरी हार्दिक इच्छा है, और मेरी इश्वर से भी यही प्रार्थना है कि आप इस पुस्तक की शिक्षा अनुसार स्वस्ति सुख शान्ति स्थिति पूर्वक सौ वर्ष राज्य करै क्योंकि मेरा मुख्य सिधान्त ये है किविधना अपने हाथ से तोले सर्व कर्म । सौ सुकृत इक पालने एको साम धर्म ।
याने सामधर्म से बढ के इस संसार में कुछ नहीं तन मन धन जो मालिक के काम में आवे तो फेर इससे उत्तम और क्या हो सकता है और मेरा आत्मिक भाव भी मेरे सच्चे दृढ सिधान्त साम धर्म में रहै इसी के अनुसार इस राज विद्या की पुस्तक को राजा प्रजाओं के लिये अत्यन्त हितकारी समझ समय समय पर इस स्वामी को मदत देता हुवा यथा शक्ति द्रव्य व्यय का भार
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(ट) उठा कर छपवाई है और इस गीता वाक्य अमु. सार “ पत्रं पुष्पं फलं तोयं " याने गीता में श्री भगवान कहते हैं कि जो भाक्ति से पत्र पुष्प फल जल मुझ को चढाते हैं उसको में प्रेम से ग्रहण करता हूँ इसी के अनुसार य पुस्तक सादर समर्पण करता हूं सो इस तुच्छ भेट को स्वीकार करावें॥
भापका तुच्छ सवक
राधराजा गुलाब सिंह
जोधपुर
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॥ भूमिका ॥ ये सजविद्या की पुस्तक पृष्टी मेस्वस्ति सुख शान्ति रिकति पर पा सरलाती है इस का वस्नातक उपदेशदनेवाला श्रीमान् स्वामी लालपुरी सरल स्वभाव प्रशसनीय परि
मी क्षात्रहितशी पुर पहै । इस स्वामीनै घोर परिश्रम एवं कष्ट उठाकर तपास्वयों के सत्संग द्वारा लुप्त हुई राजविघा का दर्शन व! अक्सर प्राप्त कराया है यह कार्य इसके १४वर्ष के शक्त परिश्रम का पल है । आज वल पाश्चात्य सभ्यताभिमानी प्राय यह समजले है कि जांकुछ उन्नति इस ममय पश्चात्य लेगोने की है वह हात श्री है और रहन सहन खान पान ती रिवाज सबों में उनकाही अनुकरण करते है अपने घर से सर्वथा अपरिक्षित हैं वास्तव में ऋषि मुनियों के निर्मित कीये हुवे अमृत्य शास्त्र भाजदिनभी मीलते है जानकी युरोप के विद्वान बडी बडी प्रशंसा (तारीफ) करते है और जिन
।
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(२)
के प्रभाव से क्षत्रिय समस्त पृथीवी मण्डल में स्वस्ति सुख शान्ति स्थिति पूर्वक राज्य करते थे इस विद्याका ७-८ हजार वर्षों से लोप रहना श्री मद्भगवद्गीता के चौथे अध्याय से साबित है इस विद्याकी प्राप्ति इस प्रकार हुइ कि ये स्वामी किमी समय गीता पाठ कर रहाथा तो इस को मालूम हुवा कि राजविद्याभी कोइ विद्या है इसपर खोजमे लगा तो थोडीसी तो वगेर चित्र के जेसलमेर के पुस्तकालय से भाठी बुलीदानसिंहजी की मारफत मिली फेर खोजने पर हरद्वार के पहाड़ों ले पाशुपति मत्तके कपालीनाथजी से संपूर्ण सचिन मिलगइ परंतु ये माकत भाषा मे लिखी हुइथा और जेसलमेर की मागधी भाषा मेथी सो ठीकतार से न समज मे आने से इस स्वामीने इस विद्याको राजा प्रजावों के अत्यंत हितकारी समझ श्री कपालीनाथजी से समज लावी इसलीये ये स्वाभिी इस के साएको जानताहै कि समस्त क्षत्रियों के
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पास जमीन की मालकी और इस विद्या का प्रचार महाराजा और साम्राज्य की पायदारी
और राजा प्रजावों मे सुख शान्ति बनी रहती है और क्षत्रियों की जनीन पर मालकी
और इस विद्याका प्रचार न होनेसे क्या क्या उपद्र व दुख अत्याचारोसे राज्यों में परिवर्तन होता रहता है और इसी तरह बल बुद्धियों में भी परिवर्तन होता रहता है स्वार्थ सुख की अधिकता से जगत मे दुख अत्याचारों के। अधिकता होजाती है और यह प्रकृति नियम है की जगत करता ने ज्ञान और अज्ञान दोनु रचे जब उपरी राज्य और उनके समीप वर्ति कर्मचारीयों याने उच्च क्षण में ज्ञान होता है तोमध्यम और कनिष्ट श्लोणीयों मे अज्ञान रहता हैं हास हेतु जहां जहां जन समूह है यहां का रक्षा न्याय के लिये वही क्षत्रिय सजा है ये राजविद्या वाक्य स्वयम् सिध है इस को लक्षणे रख कर जहां जन समाजाक क्षत्रियों को
.
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( ४ )
मालकी भाव के साथ ग्रामाधिपति मुकारेर करना उपरी राज्य की स्थिति है किउकी उन का मालकी भाव होने से वह प्रजा को अपनी समज कर उनके दुख मिटाने का सदा उपाय करता रहता है वरना वह प्रजा जन ग्राम छोड देवे इससे मालिक को नुकसान पोचता है और उसके साथ मे हानी पडती है परंत मालकी भावना न होने से ये खयाल हरगीज नही होता अब दुसरी तरफ ये बात इसकी उस को मालकी देने से वह सदा के लिये उसकी पीडीयों तक उपरी राज्य का सच्चा सामा तन मन और घन से सक्षर कटिव रहता है और यही उपरी राज्य की स्थिति है और उपरी राज्य जाप्रजा से सीधा फायदा चाहता है उस से अधिक वह क्षत्रिय अपने मालकी भावके साथ दे सकते है मसलन एक क्षत्रिय २५०००) की आय सालाना का ग्रामाधिपति है और यह अछीतरह पूरे पूरे सबुतों के साथ पकी जान
CS
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( ५ )
से देखा हुवा है की सीधा उपरी राज्य मे होने से वही २५०००) की जगह आवेसे कम होजाती है पर खैर आधासमजो तो जमाने १२५०० ) होते है ।
जमा
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सीधी उपरी राज्यम
१२:००) और
१] नुकसान १२५००) को कमीका
[ २ ] उपरी राज्य कोने करो मेपुद ज गोरदार
हाजिर रहकर हुक माकिक करी देता है वह बंद होने का
नुकसान | [ ३ ] वक जरूरत लडाइके २४०००१ का जागोवार घोड़े आदमी की मदत २०० प्रादमीयों को दे सकता है, से नुकसान और एसे वकत जरू
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पवीस हजार का जागोर द्वार उपरीराज्य की सालाना देता है
इ सुजिय
[११ २०००) रेखरा ।
[२] ३६००) चाकरी रामा १२) रोलरेस |
[ ३ ] ७०० मुतफरीक लगान वगेरह बाब घोडा कानून
कवत ।
[४] ४००० ) उकाला और ठकाणे के मुलाजमान की बीज वस्त घोडा ऊठों पर नोसार पेसार कलम इजा के ठीकाणा श्रीषद रहने से ही मिलता है ।
[ ५ ] ५०००) खालसे में मुला जमान का एक साल में इतजाम का बरवा
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के नये २०० आदमी रखने से क्या खरचा पडेगा से गोर कीया जाय ।
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( ६ )
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[ ६ ] १०००) ठोकारो से उपरो राज्य के राजा वा अफसरों का दोराने जो मदत मिलती है वह खालसा होने से बंद होने से सरकारी खरच पड़ ता है ।
[७] १२५०) श्रस्त २० साल बहुकम नामी २५०००) का से साल मे १२५० ) [ ८ ] १००) नेता नीजराना । [ ६ ] ५०००) खाल से मे काल
कुल की छुट हो जाता है और काल कुलमा इए मुजब है की भोसत है प्रति दस वर्ष मे चार अच्छा समा दो काल दो कुरा सरासरी वर्ष और दे बीमारी टीडकानरा उंदरालट वगेरा का नुकसानी वर्ष इन की छूट जागीर दारको रेख चाकरी वगेरा में नहीं होती है ।
२२६५०) अखरे वाइस हजार से पवार तो जागार दार उपरी राज्य का साखा ना देता है और २५००२)
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(७)
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को पवन मे १२५००) उपरी राज्ज को मिलता है से बाकी १०९५०) दस हजार एक सौ पचास का उपरी राज्य की सालाना नुकसान खालसे मे रखने से होता है और जागीदार की खुद की चाकरी और वकत जरूरत कीमती का अलाव नुकसान है ॥
इस स्वामी का जो कार्य परीश्रम करनेका सो ये कर चूके और इसको प्रकासन आदिमें द्रव्य का व्यय करना हमारा कामथा इस लिये क्षत्रिय जाति की सेवाको लक्षमे रखकर इसके प्रकासन का बाकी व्यय भार मैंने अपने उपर उठाया इसके पठन पाठन से जो आप लोगोको लाभ पोचेंगा उसके वास्ताविक धन्यवाद पात्र ये स्वामीही है और मैं भी अपने द्रव्य का सदुपयोग समजुगा आशा है क्षत्रिय महानुभाव जाती
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(८)
बान्धव इसको पढकर शिक्षा एवं कार्य रूपमें इसे परिणत कर कृत कृत्य करेंगे और प ठक गगों से प्रार्थना है कि इसमे अशुद्ध ।। जोकुछ है उस पर क्षमा कर ध्यान नदे और सारको ग्रहणकरे किउंकि ये एक अत्यंतहा प्राचिन समय की विद्या है और पहली बार की छपाइ है ।।
क्षात्र जातिका लुछ सेवक
रावराजा गुलाब सिंह
जोधपुर
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सुची-पत्र
विषय.
मंन्या --
१ भूमिकादि २परिचय ३ प्रारम्भ या प्रथम शिक्षा शब्दार्थ बोध ४ द्विनिय शिना स्तुति प्रकाशयते क्षात्रज्ञानम् ५ प्रथमापदेश प्रकृति स्वभाव नियम विद्या प्रशंसा ... ६ द्विनियोप देश मनुज शरीरम पार शक्तिभिः सृज्याम्यहम ७ मृतियोपदेश बल रक्षा-द्वादश बलानि ८ चतुर्थीप देश बुद्धिः कर्म योगः न्यायश्न
पचमाप देश शक्ति पुरुषार्थ १. श्रीमत्परम पवित्र माम पार राज्य सम्भवः सेव पटत्रिश
लक्षल. १. पाट राज्य स्थापनम ।।। १२ पाठ.३ किमर्थ राज्य समपंणम। १३ पाठ राज्य स्धयम १४ पाठ ५ समप वर्ग वा सामगति ... १५ पाट ६ गज्यांगनि प्राच्यते १६ पाट ७ प्रातदिने सम्यता शिक्षिता बलाधित लामस्ताना
वशवदा सेना वेतन प्ररिगृहीत तथैव ... २७ पाट ८ अमेण सहाय साधावाय सर्व मश: नवनिधयः १६ पास प्रायव्यय समीक्षणम्
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संख्या
८५
१६ पाठ १० शिल्पोपघालय चिकित्सालय शरीर व्यच्छेदालयाना थालय वायु जल शुद्धि पुरस्वच्छतादि प्रजा कार्याणि २० पाठ ११ प्रजाषुविविध विद्यानांप्रचार धर्म प्रचारश्चत थवच ८७ २१ पाठ १२ न्याय मर्यादा प्रबन्ध
८६
s
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104
२२ पाठ १३ सीमा प्रान्तापरनृपैः सहः कार्या तथा स्वराज्या मिश्रितानां वृतान्तानांच पर राष्ट्रषु च परेषां वृतान्तानां गुप्त पुरुष वा चारों परिज्ञानम्
२३ पाठ १४ पुण्य धर्मेश्वराराधनमुपाशनम् २४ पाठ १५ राज्ञां धनं मान धर्माध्वजश्च
808090
464
क
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**i
२५ पाठ १६ राज्य घुरम
२६ पाठ १७ दान पारितोषिक वितरणम्
२७ पाठ १८ बार गुप्तगूढ वेष पुरुषा रक्षाधिकृत पुरुषा वाद
लान
२८ पाठ १६ राज्ञामयोग्यता
२६ पाठ २० राज्य शासन शक्ति प्रबन्ध सदाचार
पृष्ठ
६
३६
१००
२०४
१०७
**S
३० पाठ २९ क्षत्रियाणां प्रति सम्वत्सरेद्र बारे शुभस्वाने शुद्धर्ती सभा स्वाताम् तस्यां परत वचित्र राजविद्योपदेश नितनीयम् प्रबन्ध सम्व समावानं चापि सुविचारणम्
११०
११५
११७
१२६
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-1
* चित्र सूची -
मंख्या
पृष्ठ
१
२७
२८
१ शिवशक्ति का सम्बाद राजा सूर्य सुनता है और मनु के -
उपदेश करता है २ राजविद्या संकेत ३ न्याय तुधि ४ योग माया पृजनम ५ पस्त रक्षा ६ बुद्धि कम या • একি বুথার্থ
परामशरण : र म ५. जयम १२ अर्यम् १२ विनशनम
१५ अल्पनि ५ माज्य वृद्धि १६ पांत स्वक्षार तदनु ariaति विनाशनम् २७ सनी रक्षा न्याय पश्यतु १८41 कप
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संख्या
१६ धर्म प्रचार प्रबन्ध " २० न्याय मर्यादा प्रबन्ध ... २१ वृतान्त परिक्षानम २२ द्रव्य सदुपयोग प्रबन्ध २३ राज्य धुरम् २४ अयोग्यता
२०४
२६ , २७ पक्य भाबम २८ लसी देश प्रकार से जानना चाहिये २६ राज्य मल प्रबन्ध दर्शन के चित्र
१७
१७
ANASI
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राजाविना स्था सेव पदाचे नेवासाम्याव
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मावि नगवान
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नम्च्याता हमेसातवाधाजिनाम
ममोपरी पोहबानगाहगार्थडचित्रप Poअन्ध पदाशय/सर्वशक्तिमान स्वा
धीन विचाराधिकाको वैपरीज्यू । सध्यप्रति समयेसगै प्रारंले राजा पानाम योगं प्रवाशयाम्यतम घे: सुख शान्तीः स्थितिच प्रबन्ध नांत्यियर्थम्।।श्मनुवा-नगवा विषण विवखने योग पोन वान विवस्वान्मन्बे मनुरि
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(प्रारनसिसा पठ)
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राजविद्या। हे महामाया पते सर्व शक्ति पते पशुपते भवान सृष्टिमसृष्ट तस्यांमनुष्य स्वार्धानः विचाराधिक्य शक्ति सहितः इयं स्वाधीनताविचाराधिक्य शक्तिश्च महद्रलम् ॥
भाषार्थ
हे महामाया पति सर्व शक्ति पति पशुपति आपने सृष्टि को रचा है उसमें मनुष्य स्वाधीन अधिक्य विचार शक्ति सहित है और ये स्वाधी. नता अधिक विचार शाक्त बडा भारी बल है ।।
यदीयमधिक विचारशक्तिः स्वार्थ सुख भोगेश्वर्य मोहादिनामधिक्तामुहि प्रवर्तते तर्हि जगत्सु दुःसह दुःखवान भत्वा विन लक्ष्यति ॥
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[ २ ]
राजविद्या ।
भाषार्थ
यदि ये अधिक विचार शक्ति स्वार्थ सुख भोग ऐश्वर्य मोह आदि की अधिक्तावों में पड़ जाय तो जगत् मे महा कठिन दुःख होकर नाश को प्राप्त हो जाता है ॥
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हे महेशतवार्धगिनी अहम् ममो परी कृपां कृत्वा जगद्धितार्थ उचित प्रबन्धं प्रकाशये ॥
भाषाथ
हे महेश मे आपकी अर्ध अङ्गनी हूं मेरे पर कृपा करके जगतहित के लिये उचित प्रबन्ध प्रकाश कीजिये ||
हे सर्व शक्तिमति - स्वाधीन वि चाराधिक्य शक्तः वैपरीत्यशुध्यै प्रति समय सर्गे प्रारंभ राजविद्यानाम योग प्रकाशयाम्यहम् ॥
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राजविद्या।
[३]
भाषार्थ
हे सर्व शक्तिमति-स्वाधीन अधिक्य विचार शक्ति के चैपरीत शुद्धि के लिये प्रति समये सृष्टि के आरंभ मे राजविद्या नाम योग को मे प्रकाश करता हूं।
सोपि समये समये लुप्तः प्रकाशि. तश्च बोभूयते ॥
भाषार्थ
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वह भी समय समये लुप्त प्रकाशित होता रहता है ।
अयमावयोः संवादः सृष्टे सुखशा. न्त्यस्थित्यै प्रबन्ध स्थिरतायैच प्रका. श्यते ॥
भावार्थ ये हम दोनु का संवाद सृष्टि का सुख शान्ति स्थिति और प्रबन्धों की स्थिरता के लिये प्रकाश
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राजविद्या |
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[ ४ ]
कीया जाता है ||
एतद्योगः जगत्सुममूलं कदापिन विनश्यति । मनुष्याणां बुद्धिपुन्यूनाधिकांशतया प्रवर्तते ॥
भाषार्थ
ये योग जगत मे समूल कभी नाश नहीं होता है मनुष्यों की बुद्धियों में कम या जादा अंश से प्रवर्त रहता है ॥
यदा यदा हि एतद्योगस्याधिकता जगत्सत्य युगमेव प्रवर्तते । सुखशान्ति स्थितिश्व संवर्धन्ते ॥
भाषार्थ
जब जब जगत में इस योग की अधिकता होली है तो सत्य युगकी प्रवर्ति रहती है और सुख शान्ति स्थिति की वृद्धि होती है |
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राजविधा। [५] न्यूने नष्टेच मनुष्याणमासुरीमति भूत्वा दुःखात्याचारक्षयाश्च वोभूयन्ते। तंदुःसमयं कलयुगामिति कथयन्ते ॥
भाषार्थ इस योग के कम और नष्ट होने से मनुष्यों की आसुरी मति होकर दुःख अत्याचार और क्षय होता रहता है और एले खराब खोटे समय को कल युग कहते है ।
एतद्योगस्याधिकांश प्रवर्तनेन जगत्सु सुख शान्तिः स्थितिश्च प्रवर्तते तं सुसमयं सत्ययुगमिति प्रभाषयन्ते ॥
भाषार्थ इस योग का अधिक अंश प्रवत होने से जगत मे सुख शान्ति स्थिति की प्रवर्ति होती है और उस अच्छे सुभ समय को सत्ययुग कहतेहै ।
.
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राजविद्या।
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[६]
जगति सन्मार्गे प्रवर्त्यर्थम् बलसरूप पुरुषः बुद्धिसरूप स्त्रीय सृज्याभ्य हम् ताभ्यां रक्षान्यायः क्षात्रकुल सूर्य चन्द्र समवः तेषां विचार शक्ति शुद्धो. ञ्चश्वरभावन सृष्टः सुखशान्तिःस्थित्यर्थ प्रबन्धेषु प्रवर्तते ॥
भाषार्थ जगत को शुद्ध मार्ग में प्रवर्त करने के लिय बल सरूप पुरुष और बुद्धि सरूप नाय को मैं रचता हूं इन दोनों से रक्षा और न्याय है और क्षत्रियों का सूर्य और चन्द्र वंश होता है उनका विचार शक्ति शुद्ध उच्च इश्वर भाव से सृष्टि का सुख शान्ति स्थिति के लिये प्रबन्धों मे प्रवर्त रहती है ।
महापवित्र राजविद्योपदेशः क्षात्र जातेः स्त्रीय पुरुषेभ्यः श्रुतेन शुद्धोच्च
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राजविद्या।
[७] क्षात्रकुलेष्वपि प्रजायन्ते तथैवापरजातेः स्त्रीय पुरुषेभ्यः तेषां स्वेषां जातीषु यथेष्ट प्रजायन्ते ॥
भाषार्थ महा पवित्र राजविद्या का उपदेश है क्षात्र जाति स्त्रीय पुरुषों को सुनने से शुद्ध उच्च क्षात्र कुले मे जन्म पात है इसी तरह अन्य जातिके स्त्रीय पुरुषों को उनकी खुदकी जातियों में चा. हना माफिक जल्म पात है ॥
क्षात्रकुल स्त्राय पुरुषेभ्यः शास्त्रास्त्राणामभ्यासः। यथा संभव प्रतिदिनेड वश्यमेव । यत्र राजविद्यापदेशः तत्र सुख शान्तिः स्थितिश्च प्रबन्धानांस्थयम् । धर्मः दीर्घायूः भूति विजयः श्री. श्वशासनम् ॥
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[८]
राजविद्या। भाषार्थ
क्षात्र जाति के स्त्रीय पुरुषों को अस्त्र शस्त्रों का अभ्यास कराना चाहिये । जहां तक होशके हमेसां अवश्य होना चाहिये । जहां राजविद्या का उपदेश है वहां सुख शान्तिः स्थिति और प्रबन्धों की स्थिरता है धर्म है दीर्घायू है धन धान्य विजय और राज्य लक्ष्मी है ।।
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राजविद्या।
[
६]
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श्रीभगवानुवाच-सगै प्रारम्भे शिव शक्त्यः संवादे राजविद्यानाम योगं प्रकाशयामास । सृष्टिषु स्वस्ति सुख शान्तिः स्थितिश्च तषां मर्यादा प्रबन्धा. नां स्थित्यर्थम् । तथैव प्रजानां शरीर प्राण स्वातंत्र्यं द्रव्यं च रक्षार्थम् जड़ चतन्य स्थावर जंगम धनानां च ॥
भाषार्थ श्री भगवान बोले कि सृष्टि के आरम्भ में शिवशक्तिके संवाद में राजविद्यानाम योग प्रकाश हुवा । सृष्टि की आरोग्यता सुख शान्ति स्थिति ओर इनकी मयादा प्रबन्धों की स्थिरताके लिय और इसी तरह प्रजाके शरीर प्राण स्वातंत्र्य और द्रवकी और जड़ चेतन स्थावर जंगम धनों की रक्षा के लिये ॥ एतद्योगस्य मर्यादा प्रबन्धा समयानुसार वा प्रजानां प्रकृत्यानुकूल परिवर्तनम्
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[१०]
राजविद्या।
भाषार्थ
परन्तू न कदापि विचालयते तत्वतः॥ इस योग की मदा प्रबन्ध में समयानुसार वा प्रजाकी प्रकृति के अनुकूल फेरसार । बदला बदली) होताहै परन्तु तत्व से ( सारसे ) न कभी चलाय मान हो। एतयोगः मायावशलुप्त प्रकाशितश्च बाभूयते तथापि जगत्तु समूलं न कदा. पि विनश्यति । न्यूनाधिकांश तया मनु ष्याणां बुद्धिषु प्रवर्त्तते। महत्कालेन स्वार्थ सुख भोगेश्चर्य माहाधिक्ताऽऽ पतति तदा नष्ट वा लुप्त भूत्वा वेदेष श्रीमद्भगवद्गोतासूपनिषत्सु बीजरूपेण शेषस्थितः तंबीजरूपस्थितं देवातिरि. कता न कोपिज्ञातुं शक्राति ॥ उत्थानं पतनं प्रकृति स्वभावः तदनुमार क्षत्रियाणामुदये समये सापूर्णतया विस्तार
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राजविद्या। [११] सरूपेणाविभवति च प्रकाशयति ।
भाषार्थ य योग मायावश लुप्त प्रकाश होता रहता है तोभा जगत समूल नाश कभी नहीं होता है कम जादा अंशसे मनुष्यों की बुद्धि में प्रति रहता है । महत्काल से (हजारोंवाँस ) स्वार्थ सुख भोगेश्वर्य की अधिकता आपढ़ती है तब नष्ट व लुप्त होकर वेदोंमें श्रीमद्भग द्धं ता में उपनिषदोंमें बीजरूपसे बाकी रह जाता है उम बीजरूप रहेहुवे को दवतों के शिवाय कोइ भी नहीं जान सकता है उत्थान पतन प्रकृतिका स्वभाव है तदनुसार क्षत्रि. या क उदय समय में वा विद्या पूर्ण विस्तार सरू. पस आती है और प्रकार होती है ।।।
स्वेष्ट प्रेरणा सायोगयुक्तमाया से योगमाया प्रसन्ना त्रिभिगुणः संवर्ति वा साम्यास्था त्रिगुणात्मिक माया क्षात्रः जातिषु शुद्धोचेश्वरभावं वित तिसति शुद्धोचेश्वर भावाहि स्थितिः॥ त्रिशुला
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[१२]
राजविद्या। प्रकाशयन्ते शुद्धोचेश्वरभाव । शुद्धभावेन सुखम् उच्चभावेन शान्तिः। ईश्वर भावन स्थिति सदा । यांगमाया पूजन। म् ।। स्वाथोधिकता तथा बुद्धिषु हानि. रूपजायते तयाचन्याये । विनान्याये शान्तिःस्थिातःविनाशयतः।प्रतिका. र स्वाथनिस्पृह भूत्वा दानसमुत्ताह ।। सुखभागस्याधिकता बलषहान तयाच रक्षावाप।प्रतिकार व्यायाम परित्रमेऽभ्यासः॥ माहाधिकता सुखेषु हाने तयास्वस्तिष्वापे। प्रतिकारवेष्ट प्रेमणा ईश्वराघनमुपाशनम् ॥ ऐश्वगाधकता तयाघमण्डः तयास्वयमुच्चज्ञात्वा सुखलिप्सया सद्वियोपदेशषुहानि तयादुघटनर पतन । प्रतिकार राजविधोपदे शप्रवन्धः तेन न नृपविचालयते तत्वतः
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राजविद्या।
[१३]
भाषार्थ अपने इष्ट में प्रेम रखने से वा योगयुक्तमाया वाही योगमाया प्रसन्न हुइ तीन गुणोंकरके संवर्ति वा साम्यावस्था त्रिगुणात्मिक माया क्षात्रजातियों में शुद्ध उच्च और मालकीभाव ईश्वरभ व देती है। शुद्धोचेश्वर भावही स्थिति है ।। तीनशूलां प्रकाश करती है शुद्ध उच्च ईश्वरभाव शुद्धभावसे सुख उच्चभावसे शान्ति और ईश्वरभाव से स्थिति सदा न्येही योगमाया की पूजा है ।। स्वार्थकी अधिकता से बुद्धिमें हानि होतीहै और फेर बुद्धिमें हानि होनेसे न्याय में । विनान्याय शान्ति और स्थिति दोनु नाश होती है । इसका उपाव स्वार्थ से निस्पृह (विनाइच्छावाला) होकर दानमें उत्साह रखें। सुख भोग की अधिकता से बलों में हानि होती है और फेर उसे रक्षावों में भी । उपाव इसका कसरत, और परिश्रम याने मेहनत में अभ्यास । मोहकी अधिकतासे सुखों में हानि और फेर स्वस्ति (तन्दुरस्तियों में ) उपाव इसका अपणे इष्टमें प्रेम
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राजविधा ।
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[ १४
से ईश्वर आराधना उपाशना । ऐश्वर्य ( धनऔर मालकी) की अधिकता से घमण्ड जिस से अपने आप को उच्च समजता हुवा अधिक सुख
जाता है और सद्विद्या के उपदेश में हानि होती है जिससे दुर्घटन और पतन होजाता है उपाय इसका राजविद्या का उपदेश का प्रवन्ध है जिससे राजा असली बात से चलायमान नहीं होता है ||
रक्षा का - प्रजानां शरीर प्राण स्वातं त्र्यं द्रव्यंच रक्षणम् जड़चेतन स्थावर जंगम धनानां च ॥
भाषार्थ
रक्षा किसको कहते हैं - प्रजा के शरीर प्राण स्वातंत्र और द्रवकी रक्षा करना औरजड़ चेतन स्थावर जंगम धनों की भी ॥
कोन्यायः वा न्यायेन का प्रयोज नम् प्रजासु स्वस्ति सुखशान्ति स्थिति श्च तेषां प्रबन्धा ॥
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राजविद्या।
भाषाथ
न्याय क्याई वा न्याय से क्या प्रयोजन प्रजा वाम आरोग्यता सुखशान्ति स्थिति परंपरा और इन ही के लिये प्रबन्ध करना ॥ .
सर्वे रक्षा न्यायश्च तयोर्कार्या क्षत्रि. याणामधिकारेभवितुमर्हन्ति नकदापि अन्य जात्याधिकारे तदेवहि क्षत्रिः याणां राज्य सुस्थिरचलंध्रुवं सुदृढं न कोपि विचालतुं शक्नोति । प्राय इयं दिव्य शक्तिः क्षात्रजातेषु हि रमात ॥
भाषार्थ सब रक्षा न्याय और इनके कार्य ( रक्षा न्याय के कार्या) क्षत्रियों के अधिकार में होने योग्यहै न कदापि अन्य जाति के अधिकार में। वही क्षत्रियाका राज्य सुस्थिर है अब छ है ध्रुव है और सुदृढ (१क मजबूत )है उस को कोई भी चलायमान नहीं करसकते है जादे करके ये दिव्य
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रोजद्या।
[१६] शक्ति क्षात्र जातियों में रमति है ॥
राजाप्रजानामेक्यताविना सर्वेसुभ चिन्हा पृथपृथग्भूत्वा शनैःशनैः विनश्यन्ते तेभ्यश्च राजा सर्वोपरि राजविद्या ज्ञानेन वा बुध्ययाऽपतेजो भिर्बन्धनकुर्यात् वा स्वकरणम् तेन नैश्चल्यं लभते भुपाराज्यं हि सुस्थिरता तथा॥
भाषार्थ
राजा प्रजा की एक्यता विना सब सुभ चिन्ह जुदे जुदे होकर शनैः शनैः नाशको प्राप्त होतेहे इस लिये राजा सर्वोपरि राजविद्या के ज्ञान से वा बुद्धि से जल सरूप तेजसे बांध वा अपणा करले जिस से राज निश्चलता को प्राप्त होताहै और राज्य स्थिर रहता है।
बल बुद्धिभ्यां रक्षान्यायः ताभ्यां
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राजविद्या ।
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( १७ )
राज्यं ॥ द्वादश बलैः रक्षा | बुध्यया परधान्यायः ॥ शारारिकात्मिक बल भ्यां सिंह हननं प्रथमम् | बुध्या सिं हं हननं वृद्धि वलं द्वितियम् ॥ १ प्रजाप्रीय न्याय धर्मेण प्रजानां प्रीतिः रुच्यानुसारः २ जगद्धितार्थ पारमार्थिक न्याय जगतां स्वस्तिः सुखशान्ति स्थिति श्च तेषां प्रबन्धानां स्थित्यर्थम् ३ सत्य न्याय यथार्थ निर्णयेन नि. पेक्षतया प्रजासन्मुखं प्रगट प्रकाश ४ सात्विकन्याय प्रजानां वृद्धिहेतुः प्रजा घरोवरेव राज्ञामधिकारे
५ राजासक न्यायराजा प्रजाषु सुख शान्ति राजविभवाधिकाधिक प्र काशयते । एतेषां सदा स्थितिः
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(१८)
राजविद्या।
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यावदेतषु पंचेषु तमोरूप स्वार्थ नाप्नोत॥ ३स्वार्थिक वा तामासिकन्याय स्वार्थ प्रधानेन कुरुते । नाममात्र न्याय स्वार्थिक मर्यादाऽऽधार । राजा प्रजाप सर्वेषां स्वस्ति सुखशान्ति स्थिश्च एतेषां प्रान्धाऽचिरण विनाशकानि भूत्वा राज्यं भ्रसति। राजा प्रजाष दुःख कलेश बभूय. न्ते राज्यमपर कुले संजायते ॥
भाषार्थ बलबुद्धि से रक्षा न्याय है रक्षा न्याय से राज्य है बारे बलोंसे रक्षा वुद्धिसे छ प्रकारका न्याय है शरीरिक मात्मिक बलो सिंहका मार. ना पहला बल है बुद्धि से सिंहको मारना बुद्ध बल द्वितिय है ।।
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लहान
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। सननि: - राजवियोपदेशाशंशयानि
सरजस्तमः तेषांसाम्यावस्था नासाथा धारणामवलयनशिस्थानाभिरधनुष X ला मारहखशानि स्थिीिक्षपबारोनाग्र नन युनि न्यानाम्ययम् । धर्म: धमएन्यायः।।
नयाभ्यायाम
यधानिया राजविया का उपदेश सिरवला।
सतरजमोर मानना साम्य अवस्थाका उत
साधारण जो एकरना जिम साष्टामुख शानियाk मार पडलाबाK घरमा साधा
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.." शव जाप्रायव्यायः धरण जानामनिरुवानुसार २ जगाट्रिनार्थमारमाणित
व्याय:-नजानमन्तिः स्थितिलपबन्धोलास्थि यी
३ सयज्यायामपनि
गायनाने माजया एनजय पवारवन्मुषि गगर पकानावनःसरा
४ार्थिन यायः गये। पघानेन कुते केवल। नामात्र न्यायः स्वाधिक सपोदाथार: राजापजा सर्व मुरत शानि:स्टिोनिच प्रअन्धचिरणविनाराकानि
ना राज्यसतारनाप जायात कलेवोन्यजे राज्यापरवत पजायत।। । ॥शब्दार्थ ३१॥
SANA
ARCAN
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राजविद्या।
(१६)
१ पवाप्रिय पार धर्म से प्रभावों को प्रीति
रुचाके अनुसारहो। २ जादितार्थ परमार्थिक न्याय जगतों की स्वस्ति सुख शान्ति स्थिति और ऐसे प्रबंधोंकी स्थिरता के लिये हो । ३ सत्यन्याय यथार्थ निर्णय और निर्पक्षता से प्रजाके सन्मख प्रगट प्रकाशहो । ४ सात्व कनय प्रजावों की वृद्धि के कारण से हो राजा प्रनाको धरोवर की भांति अधिकार में रखें ५ राजासिक न्याय राजा प्रजावों में सुखशान्ति से हो । राजविभव अधिक अधिक प्रकाश कीया जाताहै और इन सबकी सदा स्थिति है जबतक कि इन पांचों में तमोरूप स्वार्थ न
आजाता है ।। ६ स्वार्थिक वा तामालेक न्याय स्वार्थ की प्रधानतासे कीया जाता है ये नाममात्र न्याय
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(२०)
राजबिद्या।
हे और स्वार्थिक मर्यादा आधार है । राजा प्रजावों में सबों की स्वस्ति सुखशान्ति स्थिति
और इन के प्रबन्ध जलदी नाश करने वाले होकर राज्य को नाश कर देती है राजा प्रजावों में दुःख कलेश होते रहते है और राज्य भी दूसरे अन्य कुल मे चला जाता है ।
स्वार्थ समये समय हानि वाक्षति रूप जायते स महद्भयम् परतू नकदा. पि पारमार्थे स सदा उच्चपदंप्राप्यते भय हानि शोक संकल्पेषु रहितश्च ॥
भाषार्थ स्वार्थ में समे समे हानि वा क्षति होती रहती है वह भयकारी है परंतु पारमार्थ सदा उच्च पद प्राप्त करता है और भय और हानि के शोक मुकल्पों से रहित है ॥
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राजविद्या।
[२१]
त्रिगुणात्मिक मायायाः सृष्टिपूत्थानं पतन संख्या संज्ञा
संकेतै प्रदर्शन्ते ॥ संख्या १ प्रथमं सूर्य सााझ कृत्वाहमस्त्रशस्त्राणामभ्यासंच करोमि प्रति दिन हेशक्ते वशो ममगृहे ते स्वति सुख सम्पत्ति वृद्धिः बल प्रताप पराक मश्चति ॥ संकेत सूर्यः संज्ञा प्रथमम् ॥ संख्या २ द्वितिय चन्द्र साक्षिकृत्वाह सर्वोपरी राजविद्याभ्यासच करोनि प्रातदिने हे सुमते वशो ममग्र तया शान्तिः स्थिति परंपरा भूतिरायुश्च सम्वर्धनम् सुमात बुद्धि विभूति राज्य लक्ष्मीच ॥ संकेत चन्द्रमा । संज्ञा द्वितियम् संख्या ३ तृतियम् यत्र अविद्योपदे शः१ प्रतिदिने शस्त्रास्त्राणामभ्यासः२
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[२२)
राजविद्या
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तत्र बल बुद्धिः ताभ्यां रक्षान्यायः ता ज्या राज्य सस्टिमचलं अत्र सुदृढम् यावत्सूर्यचद्रमण्डलस्थितन३ ॥ संकेत सूर्य चंद्रः संख्या ततियम् ॥ संकेत त्रिशूल प्रकाशयते शुद्धोच्चेश्वर भावेन सृष्टेषु स्वस्ति सुख शान्तिः स्थितिः सम्पत्ति वृद्धिः भूतिरायश्च सं. वर्द्धनं ।। संख्या५ संज्ञास्थितिः॥ संज्ञाराज्याभिशेषः राज्याभिशेषैः श. जविद्योपदेश. राज्यकृया राज्यसिंहासनंगासम् ॥ संकेत राज्यसिंहासनम् । संज्ञा राज्याभिशप ॥ संख्या४॥ संकेत पतित त्रिशुल प्रकाश्यतेऽशुद्ध नांच दास भावेन, रोग दुःख विघ्न क्रोध पारुष्यं दुर्घटनं पतनं विनाशनमायुश्च
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राजविद्या।
[२३ }
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ल्पः ॥ख्या ६ संज्ञा घणरक्षा न्यायराज्यं तमोप्रेयो। जनं सृष्टेषु स्वस्तिसुखशान्तिस्थितः संपति राज्यं वृडिरायुश्च संवर्धनं ॥ संख्या७॥ संज्ञा-योग द्वादशल: रक्षा-सत्संगति भिन्यायःताभ्यां प्रकृतिरंजन परस्परं । संज्ञा याग संख्या८॥ संख्या ९ बलेनरक्षा-सर्वेषामात्मानामा तमा सर्वपामाशाषाहायपश्यामि ज्ञात्वा रक्षांकरोति राज्यं प्राप्यते ॥ संख्या १० यन्न धर्मणरक्षान्यायनस्त: राज्य अंसति ॥ संख्या ११ बलहीनं दुर्यटनं रक्षाहीन दासत्वं संज्ञा-प्सुमाते राजविद्यासिक्षा माया
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राजविद्या।
[२४]
वा प्रकृति बुद्धिःबुद्धे प्रयोजनं न्याय. संख्या १२॥ संकेत राजाजीवः प्रजाशरीर । विना जीवः न शरीरस्यस्थितिः न जावस्य विनाशरीरं । बाणाकारजीवः धनुषाकार शरीरं ॥ संख्या १३॥ संख्या पत्रिशल्लक्षणेः राज्यं संख्या १४॥ संख्या पत्रिशल्लक्षणाविहीना शनैः शनैः विनश्यति सख्या १५॥ सकेत शक्तिः बलत्रिकोणाकारः संख्या
सकेत तुमातिबुद्धिः वर्ग चतुष्कोणाका. र: संख्या १७॥ संकेत बलबुद्धिः वर्गत्रिकोणाकारः सख्या
१८॥
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राजविद्या। (२५) संख्या राजविद्याऽभावा बुद्धिहानम् । स्वार्थसुख भोगेश्वर्यमोहाधिकतामा प्नालेप्सनम् समूलंचविनश्यति ॥ सं ख्या १९॥ संज्ञा साक्षीसर्वान्पश्यतीश्वर साक्षीज्ञा त्वोच्चपदं प्राप्यत सदापभिरहं पंचतत्वाद्ब्रह्माण्डमुत्पन्नंचकरोमि।पश्च न्म म डमरोः सकाशा त्सप्तस्वरैः सृष्टेः थि त्यर्थ । सुखशान्तिः स्थितिः ( भोग) वृद्धिः (ऐश्वर्य) स्वस्तिरायुः । संपतिमा शन सप्तष सषधाई। ममाज्ञा तथैवए तेषु हानिकता लमलविनश्यति न संश यः मनाक्षीसर्वान्पश्यति । इमं योगज्ञा त्वा राज्यप्राप्यते तस्वराज्यं सुस्थिरं म. चलं ध्रुवं सुदृढम् ॥
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राजविद्या।
भाषार्थ
त्रिगुणात्मिक माया कौसृष्टियोंमें उत्थान पतन संख्या संज्ञा और संकेतों से दिखलाये जाते हैं। संख्या १ प्रथम सूर्य को साक्षि करके मैं अस्त्र शस्त्रों का अभ्यास करता हूँ हमेस (नित्य ) हे शक्तिः मेरे घर में निवाश करो जिन से स्वरित सुख संपति और वृद्धि हो बल प्रताप और पराक्रम संकेत सूर्य। संज्ञा प्रथम ॥ संख्या २ द्वितिय चन्द्रमाको साक्षि कर के में सर्वोपरि राजविद्या का अभ्यास करता हूं नित्य हे सुमति मेरे घरम निवश करो जिससे शान्ति स्थिति परंपरा विभूति
आयुसका बदना हो । सुमति बुद्धिः राजलक्ष्मी। संकेत चन्द्रमा संज्ञा द्वितिय । संख्या तिसरा जहां राजविद्या का उपदेशहो ? जहां प्रतिदिन अस्त्र शस्त्रों का अभ्यास हो २
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उजननायविमानम्
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अगस्यमयीरी धमारदा
MEANरयतासरायता ROजोश धननस
ADविध प्रबनमा
नावशानिीः
समाज जानाधान
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ला जाणामन्याप्तः
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शाक्ने संकजस्म न
स्थिYधमेश्यपूजन्धस्य
सवेश न्यायः अपरा)
समते । परकम लि राजविया नाप
बेन बाद निउरता सेल्यिम् । पग ॥ नाश चवीने समोर
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(
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अब ॐवि . स्वटे प्रमागोसायोगमाया पसन्नाः शनियानयान्चेिजान्ददानियोग:
माययास्मिोनिया) पानं स्वेप्रेम स्वाधीनानियोक्वाशनः मदन सम्वामान्बनम संता- स्वाधीन । - शकि निशुला प्रकाशयन्ने शुद्धोम्चेश्वरनाना 'संज्ञो स्थिनि
सान्पश्यतीवर सादा जाचासवे कार्या संपादनमुपदं पाप्या संज्ञा इम परमजावविरुद्धाचराग पृधामय बनाविनाशनम् संज्ञा प्यार सूर्यसाधी झालापदिनेशस्त्रास्चारगाम । यास सज्ञाबलम् Dोपरी चंदं साक्षीकत्वापजादनेसवोपरी विद्यान्यासः संज्ञाबुद्धि विविधविधाजी पवार धमोपदेश प्रबना संज्ञा-विविध
सादी
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राजविद्या। (२७) वहां बल बुद्धि है वहां रक्षान्याय है और इन दोनु से ( रक्षान्याय से ) राज्य सुस्थिर है अचल है ध्रुव है (नडिगने लायक ) और अच्छा मजबूत है सूर्य चन्द्र के मण्डल स्थिति तक । संकेत सूर्य चन्द्र | संख्या तीन । संकेत त्रिशूल प्रकाश करता है शुद्ध उच्च और ईश्वर भाव ( माल कीभाव ) से सृष्टियों में स्व. स्ति ( अरोग्यता ) सुख शान्ति स्थिति संपत्ति वृद्धिः विभूतिः और आयुस का बदना संख्या५ संज्ञा स्थिति ॥ संज्ञा राज्याभिशप-राज्याभिशेष से गविद्योपदेश है । राजकृया। राज्यासिंहासन को प्राप्त करना है संकेत राजसिंहासन है । संज्ञा राज्याभिशेष है संख्या ४ संकेत पतित त्रिशूल प्रकाश करता है अशुद्ध नीच दास भाव से रोग दुःख विघ्न क्रोध कड़वापन दुर्घटनं पतनं विनाश और थोड़ी उमर (आयुश ) संख्या ६ ॥
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[२८]
रोजविद्या।
संज्ञा-राज्यम-धर्म से रक्षा न्याय राज्य है। रक्षा न्याय का प्रयोजन सृष्टियों में निरोग्यता सुख शान्तिः स्थिति संपति वृद्धिः और आयुस का बदना है संख्या ७॥ संज्ञा-योग-बारे बलों से रक्षा और सत्संगतीयों से न्याय और इन से प्रजा आपस मे सुख चेन से रहे। संज्ञा योग है संख्या ८ है ।। संख्या ९ बल से रक्षा-सबकी आत्मा का आत्मा हूं सबकी आशीष अहाय में देखताहूं एसा जान कर रक्षा करता है वह राज्य पाता है संख्या १०-जहाँ धर्म से रक्षा न्याय नहीं है राज्य अष्ट होजाता है | संख्या ११-बलहीन होकर घटता है और रक्षा हीन दास भाव को प्राप्त होता है ।। संज्ञा-मुमति राजविद्याशिक्षा मापा वा प्रकृति बुद्धि बुद्धि से प्रयोजन न्याय है संख्या १२ ॥ संकेत राजा जीव है बाणाकार है प्रजा शरीर है धनुषाकार है विनजीव शरीर की स्थिति नहीं है
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राजचिंथा। [२] और न शरीरके विनाजीवकी । संख्या १३ ॥ संख्या १४ छत्तीस लक्षणों से राज्य है संख्या १४ संख्या १५ छत्तीस लक्षणोंसे हीन शनैः शनैः नाशहोजाता है संख्या १५ ॥ बल का संकेत त्रिकोणाकार है संख्या १६ ॥ बुद्धिका संकेत वर्ग चतुष्कोणाकार संख्या १७ ॥ बल बुद्धि का संकेत वर्ग त्रिकोणाकार है संख्या ३८॥ संख्या १९ राजविद्या के अभाव से बुद्धि में हीनता आती है । स्वार्थ सुख भोगेश्वर्य मोह की आधिकता में जादापड़ने स मूल सहित नाश को प्राप्त होजाता है। संख्या १९ ॥ संज्ञा-२० साक्षी सबको देखता है ईश्वर को साक्षी जानताहुवा उञ्चपद को पाता है ! ॥ ६१ सर्वोपरि प्रभु ने पांच तत्वोंसे ब्रह्माण्डकी उत्पत्ति के है फेर डमरु के सकाश से सात स्वरोसे सृष्टि की स्थिति के वास्ते सुख शान्ति स्थिति ( भोग) वृद्धि ( ऐश्वर्य) स्वास्ते आयुस और
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राजविद्या ।
संपति शासन ( राज्यम् ) सातोंकी चाद्ध मेरी आज्ञा है इसी तरह इन में हानि करने वारेको में मूल से नाश करदेताई इसमें संशय नहींहै मेरी आंग्वे सबको देखती है इसयोग को जान्ता हुवा राज्य को पाता है और उसका राज्य सुस्थिर अचल ध्रुव ( अटल ) और सुदृढ होजाता है ॥
न्यूनाधिकांशतयाऽयाल्पकाधिक्यं पृथिवी पतित्वं क्षात्र जातिनां परंपरा स्थिाति । सेवापरि राज्ञां। परंपरा स्थि तिः नकदापि वेतन वाऽन्यथा । पृथिवी पतित्वमेश्वरभावः जात्याभमानः सुस्थि रमचलं ध्रुवम् तेषां शक्ति दृढ मुपरी राज्ञामाप तथैवच वाऽन्यथा दुघट: पतनं शनैः शनैः विनाशनं प्रगामे उप राज्य निमूलं भूत्वा असति न संशय
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राजविद्या। [३१)
भाषार्थ थोड़ी घणी कम जादा जमीन को मालकी क्षत्रि. को जातिकी स्थिति परंपरा है और यहा उपरी राजावों की परंपरा स्थिरता तनखा से वा नौकरी से वा और तरह से नहीं है । जमीनार अधिकार ( मालकी ) मालकी भाव ज.ति अभिमान से राज्य अच्छा स्थिर अवल और ध्रुव रहता है और उनकी शक्ति (बल) को दृढ बनाता है यही उपरि राजावों के रिये हस के सिवाय और ताह दुर्घटन पतन होताहुवा शनैः शनैः नाशको प्रातहोजाता है परिणाम उपरी राज्य निर्मूल ह कर भ्रष्ट हो जाता है इस में सन्देह नहीं है ।।
प्रातोदने शस्त्रास्त्राणामभ्यासः तथैवस.जावधापदश श्रणुयात ताम्यां बल बुद्धि तामा रक्षान्यायः तयोही ढसप्तदशकर्मा-जितद्रिय वपालस्य रहितं सत्यमेको पताने शौर्य समरेस्थिरः
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(३२) राजविद्या। दानमीश्वरभाव दुर्व्यशषु निवर्ति तेज क्षमा रक्षा न्यायं पश्येत् प्रवासार्मलनं पालनं सारं वा तत्वज्ञानार्थ दर्शनम् स्वेष्टे प्रीतिः सत्संगतिः धृतिः॥ एतेषु प्रवर्ति पृथिवी स्वयं याति तेषां ग्रहे नि. वाश हेतोःयाति बंशसमुन्नति । तथा ऽन्याये न स्वधर्म वर्गा बान्धव सम्बध य स्वप्रजा ऽपरप्रजा परनृपाऽहं मोपरी राजा सर्वेऽधिकतर सम्मतयशवः भवन्ति चा न्यायकाराजानंविनाशय न्ते ॥ जात्योदयेषु विचारशक्तिष्वधि का तेजः तीव्रता तीक्षणता सन्ति तथव राजविद्याऽभावेन पतितासु निस्तेजः तबिता तक्षिणता विनश्यन्ते । सेथि ल्यमतिमानिता दपः पारुष्यमज्ञान
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म्मानमदान्वितः नष्टात्मना न्यायेनार्थ संचयति स्वयमीश्वरोच्च जानाति विन
इयति ।
राजविद्याये, गमाया क्षात्र जातिषु तेजः तीव्रता तीक्षणता विनति भूर्ति ध्रुवा श्री विजयश्वशासनम् ॥
सदा सर्वदाऽनाशवानाजरामर देहिनः शुद्धोचश्वर भावेन देहातरोच्च मद्योन्यां राज्यंप्राप्तिः पुनःपुनः वा यदेशास्त्रः देहं पवित्रं कृत्वात्यजति धीरस्तत्र न मुह्यति राज्यप्रातिः ध्रुवम् ॥ सर्व भूतानां पंचतत्वा त्पंचावस्थाभूत्वा पृथिव्याजन्मः जलेन कौमारम् | पावकेन पैौरुषम् योवनम् । वागूः तेन जरा आकाशेन मृत्यः भूयः पृथिव्या जन्ने.
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राजविद्या |
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[ ३४ ]
त्यादि भावेनाऽपरिहार्येऽयै वार्त
चक्रम् ॥
भाषार्थ
हरा नित्य अस्त्र शस्त्रों का अभ्यास इसी तरह राजाद्यपेदश शुनना जिससे बल बुद्धि जिसमे रक्षा न्यायः न द ेनुही दृढता १७ कर्म है 9 जितेन्द्रिय २ आलस्य रहित ३ सत्यम ४ एक पत्नि ५ शौर्य ६ युद्ध में स्थिर ७ दान देना ८ माल की भाव ९ खोटे व्यशनों से दूर रहना १० तेज ११ क्षमा १२ रक्षा न्याय को संभालना १३ प्रजासे मिलतेरहना पालना १४ सार बात को जानना १५ अपने इष्ट में प्रीति ( प्रेम ) १६ सत्संगति १७ धीरज इन में प्रवर्ति रखने से पृथिवी अपने आप जाती है उन के घर में निवाश के लिये और उस वंश (कुल) की उन्नति होती है इसी तरह अन्याय से अपना कुटुम्ब बाधु सम्बन्धी अपनी प्रजा दूसरी प्रजा राजा और उपरी राजा
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रोजविद्या ।२
[३५]
और सब अधिक सम्मति ( राय ) सब शहोजा. तेहै और अन्यायकारी राजा को नारा करते है जाति के उदय में (बढने में ) उनकी विचार शाक्त अधिक तेज तीव्र और तीक्षण होजातोहै याने बदनेवाली जाति के खयाल में जादे तेजी तीव्रता और तीक्षणता आजाती है और इसीतरह राजविद्या के अभाव से गिरती हुइ जाती निस्तज होजाती है तीव्रता तीक्षणता जाती रहती है ढीला पन आतिशान घमण्ड कड़वापन अज्ञान मान मद मे चूर अपनी आत्मा को नाश करनेवाला अन्या. य से धनही धन इकट्ठा करता है और अपने आप को उच्च मालिक समजता है मो नाश को प्राप्त होताहै ॥ राजविद्यः योगमाया क्षात्र जातियों में तेज तीव्रता तीक्षणता अन्न धन विभव राजलक्ष्मी विजय आर राज्य देतीहै ।। सदा सर्वदा आत्मा ( जीव ) अनाशवान अजर अमर है वह शुद्ध उच्च और माल कीभाव से दूसरी देह (शरीर) उच्च जाम राज्य पाता रहता है वा युद्ध में शास्त्र
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अस्त्रों से देहको पवित्र करता हुवा शरीर छोड़ता है और वह धीरजव न पुरुष मांहको नहीं प्राप्त होता है निश्चय राज्य पाता है । सब प्राणायें की पांच तत्वों से पांच अवस्था याने पृथिवो से जन्म । जल से कौमार अवस्था | आंग से पौष यौवन | वायू से जरा । आकाश से मृत्युओर फेर पृथिवी से जन्म आदि होकर अटल जन्म होता है येही जगत का घूमता हूवा (फिरताहुवा) चक्र है ||
राजविद्या शिक्षय ते स्वस्ति सुख शान्ति स्थितिः संपति वृद्धिः भृतिराय श्च सवर्धनम् ॥
भाषार्थ
राजविद्या सिखलाति है रोग रहित होना सुख शान्ति स्थिति परंपरा सपति वृद्धि राजलक्ष्मी और दीर्घायु होना ||
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॥ ॐ शिव ॥
राजविद्या । प्रारंभ शिक्षा |
मनुज शरीरं विचार शक्तिभि स्सृज्याम्यहम् | विचार शक्तिभिरुच्च भावेन सह सर्वार्थ साधितुं च सर्वं कर्तुं शक्नोति ।
भाषार्थ
मनुष्य का शरीर विचार शक्तियों सहित मेने रचा है | विचार शक्ति से उच्च भाव के साथ सब काम साज शक्ता है और सब ही कर शक्ता है ।
विचार शक्ति महाँन्बलम् । एतद्विद्योपदेशेन ज्ञानं श्रुतेन सह बहुला संतति (परिवार ) च सर्वे सुख संपति सहतिष्ठते चिरमाभू चंद्रतारकम् ।
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[२] राजविद्या।
भाषार्थ विचार शक्ति महाँन्बल है। इस विद्या के उपदेश से ज्ञान को सुनने से बोहुत संतति (प. रिवार) और सर्वे सुख संपति के साथ बहुत समय पृथिवी चंद्र तारों की स्थिति तक स्थिर रहता है।
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॥ ॐ शिव ॥
राजविद्या। मधमशिक्षा-शब्दार्थ प्रकाश।
१-सम्राट. चक्रवर्ति राजा समस्ते क्षिति मण्डले।
भाषार्थ
१ सम्राट्-चक्रवर्ति राजा समस्त पृथिवी मण्डल में ।
२-स्वार्थिक बुद्धिः स्वल्प वा क्षुद्र बुद्धयाया शीघ्र स्वल्प सुखाथै स्वल्प लाभार्थ चाधर्मेण परस्य हानि कृत्वा संतोषो यस्य च स्थितिः संदिग्धा सा स्वार्थिकि बुद्धिः।
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[४]
राजविद्या।
भाषार्थ २ स्वार्थिक् बुद्धिः-ये स्वार्थिक अल्प (छोटी थोडी) क्षुद्र (नीच) बुद्धि से जलदी थोड़ा सुख और थोड़ा लाभ के लिये दुसरों का नुकसान करने में स्थिति होती है वह नीच दुवधा सहित स्वाार्थक बुद्धि है।
३-पारमार्थिक बुद्धिः
ययौच्च वुद्धचाया धर्मेण सह महत्प्रयोजनस्यावाप्यते प्रयतेत इयमेव धन सुखयोः स्थितिः सैव पारमार्थिकि बुद्धिः ।
भाषार्थ ३ पारमार्थिक् बुद्धिः-जिस उच्च बुद्धि से धर्म के साथ बड़े बड़े कार्यों को प्राप्त करने का यत्न करना यही धन और सुख दोनू की है वही पार• मार्थिक बुद्धि है।
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राजविद्या।
[५]
४-रक्षाका. बलेन दुर्बलं रक्षेत्-बलिनो दुर्ब लस्येह रक्षणं प्रयत्नतः।
भाषार्थ ४ रक्षा क्या है-बल से दुर्बल की रक्षा क. रना-बलवान दुर्बल की रक्षा यत्न से करे।
५-क्षत्रियः क्षतात्-नाशात् । त्रायते-रक्षति इति क्षत्र एव-क्षत्रियः।
भाषार्थ ५ क्षत्रिय से क्या अर्थ है-नाश से रक्षा करने वाला घाव वा कठिन दुःख को सहन करे ।
६-न्याय लक्षण माह. सुकृतस्यकर्तारं सुफलेन हि योजनम् दुष्कृतैस्तुविधातारं दण्डेन दमनं स.
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राजविद्या।
मृतम् निष्पाप वा निरागसो नावसाद दातुमर्हा।
भाषार्थ ६ न्याय के लक्षण कहे जाते है-अच्छा करने वाले को अच्छा फल देना और बुरा करने वाले को दण्ड देना-निष्पाप निरपराधी दुःख देने योग्य नहीं है।
७-सामकिम्. शान्तिवाक्यम्-वा सुखेन सहः प्राय बचनादि तेन कार्यानुष्ठानम् ।
भाषार्थ ___ ७ साम क्या है-शान्ति करने का वाक्यः वा सुख के साथ मीठे वचन आदि से कार्य करना ।
८-दानाकम्. लोभेन सहः वा दानन कार्यानुः ष्ठानम् वा धनादः समपणम् ।
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भाषार्थ
राजविद्या।
भाषार्थ ८ दान (दाम) क्या है-लोभ देकर कार्य करलेना।
९-भेदकिम्. बुद्धिबिधाकरणम् संहतानां शत्रूणां भेदेन सहात्मसात्करणम् ।
९ भेद क्या है-बुद्धि को दो कर देना वा मिले हुवे शत्रूवों को भेद करके अपने साथ करना।
१०-कोदण्ड: ताडनेन सह वा विग्रहेन सह कार्यानुष्ठानम्।
१० दण्ड क्या है-ताड़ना देकर वा लड़के कार्य करलेना।
११-किंज्ञानम्. ज्ञानस्य चत्वारोंऽशाः चितं मनो
भाषार्थ
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[८]
राजविद्या। बुद्धिरहंकारश्चेति । येन चित्यते संज्ञायते आत्मनोचित्तम् हृदयापरनामकम् । मनस्तु संकल्पविकल्पात्मकम् संदेह स्वरूपम् । निश्चयात्मिका बद्धिः वा ज्ञानेन सत्यं कार्य कर्तब्यम् वा यथा कर्म तथा बद्धिः अतः एवहि बद्धिः कर्मानुसारिणीति । अहामेत्य हंकारोऽभिमानाश्रयति । स्थावर जंगमानां यथा तथ्यव जाननीयम् ज्ञान प्रोच्यते।
भाषार्थ ११ ज्ञान क्या है-ज्ञान के चार अंश है चित्त मन बुद्धि और अहंकार । जिस्से चेत कीया जाय जाना जाय आत्मा से उसे चित्त कहते है । हृदय इसका दुसरा नाम है। मन तो आत्मा का संकल्प विकल्प संदेह सरूप है । आत्मा का निश्चय बुद्धि है वा ज्ञान से सत्य कार्य करना चाहिये वा जैसा
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राजविद्या
[६] काम तेसी बुद्धि । इस लिये बुद्धि कर्मों के अनुसार बहने वाली है। अहम (में) ये अहंकार अभिमान आश्रय है। १२-परंज्ञानम् वा सारज्ञानम्, __ मनसो मोहस्य वाह्येन्द्रियाणां च ज्ञान सर्वेषु स्थावर जंगमेषु विद्यते परं मनुष्येषु जितेन्द्रियत्वम् क्षमा दया सज्जनः सहः प्रीतिः निर्लोभ दानं भयशोकहारः मैत्री करुणांच सर्व भूतेसु धर्यम् सुमतिः श्रद्धा सत्यं सारं ज्ञात्वा ऽद्वेष शुद्ध भावना धारणा चाधिकाः।
भाषार्थ १२ परंज्ञान वा सारज्ञान-मन मोह और बा. हिर इन्द्रियों का ज्ञान समस्त चराचरों में पाया जाता है परन्त मनुष्यों में जितेइन्द्रियपन्न क्षम दया-सजनों के साथ प्रीति-निर्लोभ दान-भयशोक को छोडना मित्रता-करुणा समस्त प्राणियों से
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[१]
राजविद्या। और धीरज सुमतिः (अच्छी वुद्धि) श्रद्धा और सत्य और सार को जानता हुवा वा जान करके द्वेष न रखना शुद्ध भावना और शुद्ध धारणा अधिक है।
१३-राजविद्या. विद्यानांराजा सैव विद्या सर्वोपरी प्रोच्यते। ___ १३ राजविद्या-विद्यावों की राजा वही विद्या सर्वोपरी (सब के ऊपर ) कही गई है।
१४-प्रबन्धः जगत्सु सुख शान्तिः स्थिति रु. पायं प्रयत्नं प्रबन्धः प्रोच्यते ।
भाषार्थ १४ प्रबन्धः-सृष्टि में सुख शान्ति और स्थिरता के उपाय वा यत्न प्रबन्ध (इंतजाम) कहे जाते है।
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॥ प्रथमाशिक्षा॥ गजविद्या शदवाक्यानामर्थवद्भाष्य प्रकाशयते संज्ञा संकेत संक्षेप तथैवच॥
राजविद्या-विद्यानांराजा वा राज्ञां विद्या सर्वोपरी प्रथमोपदेश शिक्षयति राज्यशासन शक्तिम् । तया प्रजानां समार्गे प्रर्वत्तनम् । सत्वरजस्तमश्चैव साम्यावस्था वाशुद्धिः तया शुद्धोच्चेश्वर भावैः शुद्धाधारणामवलंबनम् । तया शक्तिःसुमतिविशुद्धज्ञानं संप्राप्यते । तेन रक्षान्यायः ताभ्यांसृष्टेः सुखशांतिः स्थितिश्च प्रबन्धानां स्थेयम् । स्वस्थ संपतिः सौभाग्यामायुश्च संबधनम् । तत्त्वज्ञानार्थ दर्शनम् तत्प्रमावेन स्वतन्त्राजाफलम् । यथेष्ट प्राप्ती। शरीर
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राजविद्या।
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[१०] क्षरोभाव जीवश्चाक्षरः ब्रह्माक्षरमधिय ज्ञाहम् परमस्वभाव वा प्रकृति नियमाः तया भूतानामुत्पन्नं वृद्धि कार्य कर्मः क्षमा वीरत्वमध्यात्म ज्ञानम् । ज्ञान योग ब्यवस्थितिः । एतद्विद्याभ्यास ममाधिकांश प्राप्ती । राज्यं सुस्थिरमचलं ध्रुवम् । क्षत्रियाणां मान प्रतिष्ठा स्थितिश्चाधारः इमं विद्योपदेशः तेन शक्तिः सुमतिः श्रद्धा भाक्तिष्ट पुरुषार्थन प्रथिवी पातेश्च बोभूयते महयोन्यां प्र. जायते । स्वार्थ सुख भोगेश्वर्य मोह संभावैश्वाधिकारः। एतेषामधिक्ता तया दुर्बुद्धिः दुर्बुद्धया दुष्कृतम् दुष्कृतेन दुःखमधो जायते । सुकृते सुपात्रे दाने महोत्साहः। द्यूतकृया दूरत्पार वजनम्। स्वतन्त्रतया राजा प्रजा समिलनं पर.
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राजविद्या।
[११] स्परम् । लोक संग्रहं राज्यम् । ज्ञानं संग्रहं ब्रह्मः । धनं संग्रहं वाणिज्यम् । परिचयात्मक सेवा ॥
भाषार्थ-प्रथमाशक्षा-राजविद्या के शब्द वाक्यों का अर्थ प्रकाश कीया जाता है और संज्ञा संकेत और संक्षेप (मुख्तसर) राजविद्याविद्यावों की राजा वा राजवों की विद्या सर्वोपरी प्रथम उपदेश राज्य शासन की शक्ति सिखाता है जिस्से प्रजावों को सत्य मारग पर चलना। सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण की साम्य अ. वस्था वा शुद्धि तिस करके शुद्ध उच्च और मालकी भावों से शुद्ध धारणा को अवलंब करना जिस करके बल बुद्धि का विशुद्ध ज्ञान की प्राप्ती होती है जिस्से रक्षा न्याय और इन दोनु से जगत् का सुख शान्ति स्थिति और प्रबन्धों की स्थिरता है और निरोग संपति सौभाग्य और आयुस
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[१२]
राजविद्या। (उमर) का बदना है । ज्ञान के सार को देखना जिसके प्रभाव से स्वतन्त्र आज्ञा (हकम) चलना। जो चाह सा मिले । शरीर नाशवान है और जीव कभी नाश नहीं होता । ब्रह्म अक्षर (अ. नाशवान ) है और अधियज्ञ में स्वयं हूं । परम स्वभाव वा प्रकृति ( कुदरती ) नियम तथा प्रा. णियों की उत्पति और वृद्धि का कार्य कर्म है। क्षम वीरत्वम और अपनी आत्मा का ज्ञान है। और ज्ञान योग मे जिसकी स्थिति है। इस विद्या के अभ्यास से मेरे आधेक अंश की प्राप्ती होती है और वह राज्य सुस्थिर अचल और ध्रुव है
और क्षत्रियों कामान प्रतिष्ठा स्थिति और आधार है । इस विद्या के उपदेश बल, बुद्धि, श्रद्धा, भाक्ति, इष्ट और पुरुषार्थ मे प्रथिवी पति होता रहता है और उच्च जन्न पाता है सभाव से स्वार्थ सुख भोगेश्वर्य मोह अधिकार है इनका अधिक्ता से दुर्बुधि । दुर्बुधि से दुष्कृत और दुष्कृत से दुःख और नीच गती पाता है सुकृत काम मे और
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राजविद्या।
[१३]
सुपात्र को दान देने मे बड़ा भारी उत्साह रखे। जूवका कार्य शक्त वर्जित है । स्वतन्त्रता के साथ (आजादी से ) राजा प्रजा आपस में मिलते रहै । लोक संग्रह करना राज्य है ज्ञान संग्रह करना ब्रह्म है धन संग्रह करना वाणिज्य है और परिचर्यात्म सेवा है ।।
राजा-प्रकृतिः रञ्जनादिति राजाराजा एतज्जगतां वृद्धि हेतुःप्राज्ञापाण्डिः ता बुधा जगदनुभावुका स्वजातेः निज स्वामीनःसुभचिन्तका वृधाभिःसंगतः। संततं राजा प्रजानां वृद्धिरुपायं संसाधयेत् । राजा सर्वभूतोपकारार्थम् । सर्वभूत हितरतः। सर्व धर्मकार्येषु सहा. यता दुष्कृतेषुदण्डः । राज्ञां विचार शक्ति संप्रसारणं प्रयोजनं शुद्धोच्चेश्वर भावैः धर्मेण यथा योग युक्तेन जगद्धि.
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राजविद्या |
[ १४ ]
तार्थ रक्षान्यायः ताभ्यांसृष्टेः सुखशा न्तिः स्थितिश्च प्रबन्धानां स्थैर्यम् । स्वस्थ संपति सौभाग्यमायुश्च संवर्धनं । सर्वे प्रबन्ध पश्येत् । तत्त्व ज्ञानार्थ दर्शनम् । सर्वोपरी राजविद्योपदेशे परिपूर्णम् । वीर सुभट्टानां मस्तकः राजा। प्रजाप्रीय राजातिष्टतेचिरम् । प्रात् समये ? शरीरात्मशुद्धिः - शरीर शुद्धयर्थं स्नानम् तथैवात्म शुद्धयर्थम् सर्व शक्तिपतीश्वर माराधनमुपाशनम् सदाच्चारश्च योगः | तत्पश्चात्स्वधर्म रक्षान्यायं पश्येत् - प्रथम क्षत्रियाणां वरि सुभटानां प्रतिदिनास्त्रशस्त्राणा मभ्यासं पश्येत् पश्चान्यायम् — राज्य कर्मचारीणां योग्यतां कार्याणि पश्येत । स्वतंत्रतया प्रजा समिलम् । गुप्तवेष गुढ
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[१५] राजविद्या। पुरुषः चारेणोऽत्साहेन गुप्तवान्तं परिज्ञानम् । आय व्यय समाक्षणम् । प्रमावश्य प्रथमोपायः। भोजनम् । राज विद्योपदेश वा प्रचीन वीरयश वार्ता श्रुत्वा धर्ममवलबनम् वा वीर सुभटानां यशो वा धनिनां ज्ञानिनां कीतीतिहास श्रुणुयात । स्वेष्टे दृढस्तिक भावः शरीरेन्द्रिय संयमः । सदाचारः । स्वदेश मातृभाषाया प्रीतिः स्वदेश शुद्ध बलिष्ट भोजनम् । स्ववीर वषमतेन प्रभावः । स्वजाते मर्यादया विवाहमेक्यं भावः । धर्मयुक्त पुरुषाथ। प्रकृति रचना कार्या पश्येत् । सर्व साधारण परिज्ञानाथै राज्ञां वष वाहनंचा साधारणम् विशेष चिन्हमवश्यमेव परंतु गुप्तवान्त प्राप्त नवश्याः । प्राय वाऽधिक्तरांशेन मनुष्यैः
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राजविद्या। [१] मानुषी सुख शान्तिः स्थितिश्च प्रब. न्धानांस्थैर्यम् ।संपतिः सौभाग्यमेश्वर्य धनानि सुखानि राज्यमेवच । सहः प्रीत्यया लोक संग्रहं राज्यं सुस्थिर मचलंध्रुवम् । पुरुषायोग्यनास्थि याद योजकाधिक्तर योग्यः । दूरान्निकट निवाशी स्वदेशी सामिप्यस्थाय्याधिक तरुपयोगी यादि धर्मेण प्रवर्तनं परस्परम्। धर्मेण लोक संग्रहम्-जनसमूहं स्वकरणम् । धर्मेण मिथः परस्पर हितार्थं तपः पुरुषार्थ परिश्रमं कुर्वन्ति तेषां प्रत्येक फलं सुखानि धनमवच सर्वं शुद्धोच्चश्वर भावेन मिथो परस्परं संविभक्तम् वा प्रति फलानि प्रत्योपकार प्रदानं परस्परम् न कश्चित्परिश्रमस्य प्रतिफलं प्र. त्योपकारं हतव्या। यथा कर्म तथा फलं
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राजविद्या |
[ १७ ]
न्यायः सेवोच्च दृष्ट्या परिपालनं सर्व धर्मः । एतेषुहानिः तया विविधा विद्या देशोन्नति मिथो परस्पराणां हित प्रीतिः बलबुडिः पराक्रम राज्यं सर्वे शनैः शनैः विनश्यन्ते प्रणामे राज्यमपरहस्तेऽपर कुले प्रजायन्ते अतः सततं धर्मे न्याये रक्षणपारमार्थिके परोपकारे पत्योपकारे प्रतिफलं परदाने लोक संग्रहे प्रवर्ति । धर्मेण सहाय साधनोपायः । स्वपोषेऽ समर्थानामन्ध पंग्वनाथ बालका विधवा स्त्रीय स्वपोषेऽसमर्थानां पोषणम् । विविध विद्यानां प्रचारः । धर्मोपदेश प्रबन्धः । पुण्य धर्मेश्वराराधनमुपाशनम् । न्याय मर्यादां प्रबन्धं पश्येज्जगति सन्मार्गे प्रवत्त्यर्थम् । तथैवापर भूमृद्भिः नृपैः सहकार्या प्रीति धर्मेण प्रवर्तनं
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राजविद्या।
[१८] परस्परम् । शिल्पौषधालय चिकित्सा. लय शरीरब्यच्छेदालयानाथालय वायू जलशुद्धिः प्रजाहितार्थ प्रबन्धः । तपः पुरुषार्थ परिश्रम सेवा सहायता धर्म रक्षान्याय दानं पुण्य पूजा जप भक्ति मान मोह प्रीतिरेक्यता एतिहासिक पदादि यशोत्साह श्रुणुयात् । प्रायदर्शनम्।सुगन्धादि भोजनं शरीर पोषणार्थ माछादनम्-रक्षार्थम् । सर्व जगदुपयोगां वस्तवःसामग्रयःनिर्माणम् निर्मापणम्। जगदुपयोगी कार्यालया स्थापनम् । नवोपयोगी कोषागारचापार्जनम् तेषां सर्वेषां प्रतिफलं प्रत्योपकारोदारचित्तेन प्रदानम् । प्रजाषु कात्सिाह यथायोग युक्तेन रञ्जनं परस्परम् । सर्वे बलबुद्धिः गुणा भिन्नभिन्न मित्रत
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राजविद्या। [१६] भावेन जगजनाषु विभज्यतःबलबुद्धिभ्यां रक्षान्यायः ताभ्यां राज्यम् । राज्य चिकीर्षकः राजा स्वतन्त्र तथा प्रजा संमिलेत् । रक्षान्याये शासन कार्ये भामराय प्राते सर्व प्रवन्ध कार्येषु वीर सुभटान्क्षत्रियान् नियोक्तब्या। राज्ञा सतुष्ट प्रजा राज्ञां सर्वे धनं बल सर्वम् । प्रजैव राज्ञां परमामित्रा तथैव गजा यदि दया धर्मेण न्याय परोपकारैश्च प्रवर्त्तनं परस्परम् । शुद्धभावेनाधिकुपकार सन्मु. खे न्यूनापकारं न पश्यते । स्वमित्रस्याापचे परी राज्य कर्मचारयः मित्रभावेनापि तेषामधिकारेन भवितुमहति नापिस्व राज्यस्य बलबुद्धयोर्मेदं प्रकाशयेत् । यदि तेशत्रूः भवन्ति महां हानिकर्तुं शक्नुवन्ति । प्रत्येक वा सर्वेषु
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[२०] राजविद्या । नाति प्रवर्तते । प्रतिकार्य सीमानोलंघयेत् । जन्तूपजन्तुः प्रजाजनेसूपकारीः तेषामाशीषा तैश्चाधिकाधिक जनसंख्या वा समूहानामधिपतिः सोच्चाधि पतिः । सततमाशीषाहायं परोपकारं सुकृतं दुष्कृतमुपरी गजाप्रभूः पश्यति। राजविद्या राजगुह्यं महतत्त्वं सर्वोपरी परमोपदेश ज्ञात्वा धर्मेण रक्षा न्यायेन प्रजापालनम् स राजाऽखण्ड निस्कण्टकं सुख साहतं चिरकाल पर्यन्तं शाश्वतीः ममाः राज्यं करोति ॥ स्वार्थ सुख भागश्वर्य साम्यावस्थाऽहिं. सावराशीषः धर्म पुरुषार्थ सदाचरणेः श्व सुखस्य साम्यावस्था (संवार्त) सैव सुखमव्ययम् । स्वार्थस्य शान्तिः । भोगस्य स्थितिः परंपरा । ऐश्वर्यस्य प्र.
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राजविद्या।
[२१] बन्धानां स्थैर्यम् । अहिंसायाऽऽयूश्च संवर्धनम् । वराशीष या शुद्धः संततिरुत्पत्ति वावतरणम् । धमेण धनानि सुखमेवच । पुरुषार्थेन मान प्रतिष्टा स्थितिश्चाधारः सदाचरणन स्वस्थ: स्थितं स्थिराम् ॥ मनोऽन्न धन सत्कार: तैश्च स्वदेश वीर सुभटांच बुद्धां सद्विद्यायुक्ता स्वकरणम् तथा दीन प्रजा पालनम् तथा दुष्टानदण्डः राज्य सु. स्थिरमचलं ध्रुवम् ॥
भाषार्थ प्रजा को राजी रखे वह राजा है। राजा इस जगत की वृद्धि का कारण है अच्छी तरह समजने वाला पाण्डेत बुद्धिमान जगत के अनु. भवी ( तजुरबेकार ) अपनी जाती का अपने मालिक का सुभाचिन्तक और बुढों की संगति
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[२२]
राजविद्या। करके, हमेस राजा प्रजावों की वृद्धि के उपाय करता रहे । राजा सब प्राणियों के उपकार के वास्ते है । सब प्राणियों के हित मे प्रीति रखे । सब धर्म कार्यों मे सहायता दता रहे और दुष्कृ. तों को दण्ड देवे । राजावों का विचार बल बदने से प्रयोजन शुद्ध भाव उच्च भाव और मालकी भावों करके धर्म से यथायोग युक्ति से जगत हित के वास्ते रक्षान्याय करे और रक्षा न्याय से मतलब प्रजावों मे सुख शान्ति स्थिति
और प्रबन्धों की स्थिरता है और निरोग संपति सौभाग्य और आयुस का बदना है सब प्रबन्धों को देखना चाहिये । ज्ञान के सार को देखना । सर्वोपरी राजविद्या के उपदेश में परिपूर्ण हो । वीर सुभटों का मस्तक राजा है। प्रजा का प्यारा राजा बोत काल तक राज्य करते हैं। प्रात समय शरीर आत्मा की शुद्धि करे-शरीर शुद्धि के अर्थ स्नान है इसी तरह आत्म शुद्धि के वास्ते सर्व शक्तिमान ईश्वर की आराधना
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राजविद्या।
[२३] उपासना-सदाचार और योग है इसके बाद अपने धर्म रक्षान्याय को संभाले । प्रथम क्षत्रि. याणा वीर सभटों के प्रति दिन शस्त्र अस्त्रों के अभ्यास को देखे । फेर न्याय को । राज्य कर्म चारियों की योग्यता और उनके कामों को देख ता रहै । स्वतन्त्रता के साथ प्रजावों से मिलता रहै । चार गुप्त गूढ वेष पुरुषों के उत्साह से सब गुप्त वत्तान्त को जान्ता रहै । जमा खरच देखता रहै । परम अवश्य का उपाय पहले करना चा. हिये । भोजन । राजविद्योपदेश वा प्राचीन वीर वर्त्तान्त वार्ता सुनकर धर्म को पकड़ना वा वीर सुभटों के यश को वा धनवान् और ज्ञानियों की कीर्ति इतिहासों को सुनना चाहिये । अपने इष्ट मे दृढ ( मजबूत ) आस्तिक भाव हो । शरीर इन्दियां अपने वश में हो। सदाचार हो। अपनी मातृ भाषा मे प्रीति हो। अपना ही शुद्ध बलीष्ट भोजन। अपना ही वीर वेषः तिस करके प्रभाव है। अपनी ही जाति मे मर्याद से विवाह
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[ २४ ]
राजविद्या ।
हो और एक भाव हो । पुरुषार्थ धर्म युक्त हो । प्रकृति रचना और कार्यों को देखे । सर्व साधारण की जान पहचान के वास्ते राजा का वेष और वाहन साधारण न हो कोई विशेष चिन्ह अवश्य हो परंत गुप्त वर्त्तान्त की प्राप्ती के समय अवश्य नहीं है । जादे वा अधिक अंश से मनुष्यों से ही मनुष्या की सुख शान्ति स्थिति और प्रबन्धों की स्थिरता है और संपति सौभाग्य ऐश्वर्य धन और राज्य है । प्रीति के साथ लोक संग्रह वा प्रीति के साथ प्रजाजनों को अपना करना वह राज्य स्थिर अचल और ध्रुव है । कोई भी पुरुष अयोग्य नहीं है जो योजक अधिकतर योग्य है | दूरवाले से पास रहनेवाले वा स्वदेशी पास रहनेवाले अधिकतर उपयोगी ( कामके ) होते है यदि धर्म से आपस का व वि हो । धर्म से लोक संग्रह करना वा लोकों को अपना करना । आपस के हित के लिये धर्म से तप पुरुषार्थ परिश्रम करते हैं तिन प्रत्येक
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राजविद्या। [२५] के परिश्रमादि के फल सुख और धन हैं । सब शुद्ध उच्च और माल की भाव मे आपस मे बांट दना चाहिये या प्रति फल प्रत्योरकार आपस मे दना चाहिये न किमी के परिश्रम का वा प्रत्यो. पकार का फल मा ना चाहिये । जेसा कर्म वैसा फल न्याय है वही उच्च दृष्टो पालना करना धर्म है इनों मे हानि होने से सब तरह की विद्यायें देश उन्नति आपस की हित प्रीति बल बुद्धि पराक्रम और राज्य सब शनैः शनैः नाश होजाते है परिणाम में राज्य दुसरों के हात म दुसरे कुलों मे चला जाता है इम वास्ते हमेसा धर्म में न्याय म रक्षा में पारमार्थिक में परोपकार में प्रत्याप. कार में प्रतिफल देने में लोक संग्रह मे प्रवर्नि हो । धर्म के साथ पैदास करने का उपाय कर• ना ! अपने पोषण करने में असमर्थो का आंदे पांगले अनाथ बालक विधवा स्त्री अपना पोषण न करस के उन सब का पाषण करना । सब तरह की विद्यावों का प्रचार करना । धर्म के
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[२६]
राजविद्या। उपदेश का प्रबन्ध करना। पुण्य धर्म और ईश्वर ही आराधना उपासना करना । न्याय मर्यादों के प्रबन्ध को देखना जगत को शुद्ध मार्गपर चलाने के लिये । इमी तरह दुमरे राजावों के साथ कार्य प्रीति और धर्म से प्रति हा शिल्प औषधालय चिकित्सालय शरीरव्यच्छेदालय अनाथालय और वायु जल की शुद्धि प्रजाहित के लिये सब प्रबन्ध । तप पुरुषार्थ परिश्रम सेवा सहायता धर्म रक्षा न्याय दान पुण्य पूजा जप भक्ति मान मोह प्रोति एक्यता इतिहासिक पदादि यशका उत्साह सुन ना चाहिये । दखने मे प्रीय हो । सुगन्ध आदि भोजन शरीर पोषण के लिये शगर ढकने को (ओढने पहरने रक्षा के वास्ते। मारी उपयोगी वस्तुवों सामग्रीयां बनाना बनवाना । जगत उ. पयोगी कार्यालय स्थापित करना । नव उपगी खजाना भरपूर रखना और इन सब का प्रतिफल प्रतिउपकार उदार वित्त से करना चाहिये प्रजा
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राजविद्या।
[२७] वों में कार्योत्साह यथा योग युक्तियों से आपस में सब का राजी रहना है । सब बल बुद्धि और गुण पृथक पृथक मिश्रत भाव से मंसार के स्त्री पुरुषों में बटा हुवा है । बल बुद्ध स रक्षा और न्याय करना और रक्षा न्याय से राज्य है। राज्य करने की इच्छा वाला प्रजा से स्वतन्त्रता से मिलता रहै । रक्षा न्याय मे हुकम के याने राज्य करने के कामों में पृथिवी की पेदाम प्राप्त करने मे और सब प्रबन्ध कार्यों में वीर सुभट क्षत्रियों को नियत करना चाहिये । राजा स संतुष्ट प्रजा राजावों का सब धा बल और सब कुछ है । प्रजा ही राजावों का परम मित्र है और इसी तरह राजा भी याद द । धर्म न्याय और परोपकारों से आपम का वर्ताव रहे । शुद्ध भावना से अधिक उपकार के सामने थाड़े अपकार को न देखना चाहिय । अपने मित्र भी और उपरी राज्य के कर्म चारियों के मित्र भाव से भी उनके अधिकार मे न होना चाहिये और
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[२८]
राजविद्या। आप उप के च बुद्धिों के भेद को प्रकाश नवा चहिये जो कात्र होजाय तो महा हामि कर शक्ते है । प्रत्येक म वा सबों मे अति प्रवत न होना चाहिये । हरेक काम की मीमा न उलंघना चाहिये । जन्नु उपजन्तु प्रजाजनों में उपकारा स उनकी आशीर्षे तिन करके अधिका. धिक जन संख्या वा समूहों का अधिपति वही उच्च अधिपति है। हमेसां आशीष हाय परोपकार सुकृत दुष्कृतों को उपरी राजा प्रभू देखता है। राजविद्या राज गुह्य का महतत्त्व सर्वोपरी उप. देश को जान्ता हुवा धर्म से रक्षा न्याय से प्रजा पालन करना वह राजा अखण्ड निष्कण्टक सुख सहित बहोत बरमों तक राज्य करता है। स्वार्थ सुख भोग धर्य की साम्य अवस्था अहिंमा आगोष, धर्म रुषार्थ और सदाचरणों से सुख को साम्य अवस्था वही सुख हमेसका है स्वार्थ की साम्य अवस्था शान्ति है भोगों की साम्य अवस्था स्थिति परंपरा है और ऐश्वर्य की साम्य
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राजविद्या। [२६] अवस्था प्रबन्धों की स्थिति है । अहिंसा से आयुस बढनी है वर आशीषों से शुद्ध संतति का उप्तन्न (जन्म ) होना है धर्म से धन और सुख है पुरुषार्थ से मान प्रतिष्ठा स्थिति और आधार है और सदाचार से स्वस्थः स्थितं स्थिराम् (अच्छी रहन सहन ठाउ अटल ) मन अन्न धन और सत्कारों से अपने देशी वीर सुभटों को तथा बुद्धिमान सद्विद्या युक्तों को अपना करना तथा दीन प्रजाकी पालना करना परिश्रम पुरुषार्थ युक्त करना और दुष्टों को दण्ड देना सो राज्य सुस्थिर है अचल है और ध्रुव है ।।
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* दश प्रकार के राज्य
बल बुद्धिभ्यां प्रजानां सन्मार्ग प्रवर्त्यर्थ दश प्रकार राज्य शासनम् । १ समस्त प्रजा सम्मत्यानुसार मया।
दाः तदनुसार शासनम् । व्यवस्था तंत्र राज्यं प्रोच्यते॥ २ प्रजाभ्यः सभ्यजनाः वृद्धा जगद. नुभावकाः स्वार्थनिस्पृहः दूरद शी धर्म न्याये सत्याताः जगद्धि. तार्थ पारमार्थिका बुद्धाऽधीत् व्य. वहारज्ञा एतेषां सर्वेषां समत्यानुसार प्रजानां स्वस्ति सुख शान्ति स्थितिश्च संपत्ताद्धरायुश्च वृ. ध्यर्थ राजा राज्य शास्ति । धर्म
राज्य प्रोच्यते ३ केवल मर्यादानुसार राजा गज्यं
शास्ति । मयादा राज्यं प्राच्यते ।
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( १३० )
राजविद्या |
४ धनाढ्य जनानां भूम्याधिपतिनां च शासनम् । कतिपय जनतंत्र राज्यं प्रोच्यत ॥
५ मुख्य मुख्य सभ्य योग्य सेनापति भ्यः शासनम् । सेना तंत्र राज्य प्रोच्यते ॥
६ राज्ञः प्रजानां सभ्यजनाः जगदनु भावुक स्वार्थ निस्पृहः दूर्दश्र्युत्साहेन धर्मे न्याये तत्परा सत्य रता जनैः शासनम् । राजा प्रजैक मत्यया शासनम् प्रांच्यते ॥
७ केवल राज्ञः बुध्यानुसार शासनम् राज तंत्र राज्यं प्रोच्यत ॥
८ राज्ञः भृत्यया कृपा पात्रः जनैः शासनम् । अनियंत्रित राज्यं प्रोच्यते ॥
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राजविद्या । ९ विद्वजनैः प्रजाशासनम् । श्रेष्टजन
तंत्र राज्यं प्रोच्यते॥ १० दीन धनाढ्य वर्ग: सेनापात रुच्च
कल वैगः सर्वेषां जातिनां पञ्चानां बैंगः तेषां सर्वेषां समस्तानां सम्म त्यानुसार शासनम् । प्रजा तंत्र राज्यं प्रोच्यते॥
बल बुद्धि से प्रजावों को सत्य मार्ग में चेलान के लिये दश प्रकार से राज्य शासन हैं १ समस्त प्रजाको सम्मति के अनुसार मर्यादा जिन के मुजिब. राज्य-व्यवस्था तंत्र राज्य
कहाजाता है २ प्रजामेसे सभ्य जन बुढे जगत के अनुभवी
स्वार्थी नहीं दूरदशी धर्म न्याय और सत्य में जिन की प्रीति हो जगत हित के लिये पारमार्थिहो बुद्धिमान जगत के व्यवहार को जावनें वाले हो इन सबकी सम्मति के
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राजविद्या। (१३२ ) अनुसार प्रजावों में स्वस्ति सुख शान्ति स्थिति संपत्ति वृद्धि और दीर्घायुसकी वृद्धि क वस्त राजा राज्य करे वह धर्म राज्य कहा जाता है ३ सिर्फ मर्यादा के अनुसार राजा राज्य करता
है वह मर्यादा राज्य कहा जाता है ४ धनाढय और भूम्याधिपतियों से राज्य
कतिपय जन तंत्र राज्य कहाजाता है ५ मुख्य मुख्य सभ्य योग्य सेना पतियों से
गज्य सेना तंत्र राज्य कहाजाता है ६ राजा स्वयं और पजावों में से सभ्य जन
जगत के अनुभवी निस्वार्थी दूर दी उत्साह से धर्म न्याय में तत्पर और सत्य से प्रीति वालों से गज्य राजा प्रजा एक मत्या राज्य कहाजाता हे ७ सिर्फ राजा की बुद्धि अनुसार राज्य राज
तंत्र राज्य कहाजाता है ८ राजा के भृत्य कृपा पात्र जनों से राज्य
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राजविद्या। अनियंत्रित गज्य कहा जाता है ९ विद्वानो से राज्य श्रेष्ट जन तंत्र राज्य कहा ताहै गरीव धनाढ्य वर्ग सेना पति उचकुल वर्ग सब जातियों के पंचों का वर्ग इन सब की समस्तों की सम्मतियों के अनुसार राज्य प्रजा तंत्र राज्य कहाता है ।।
सत्वं रजस्तमचैव त्रिभिर्गुणैः त्रिगु णात्मिक मायया शुद्धो चेश्वरभावा तै श्च तेजः शक्तिः पुरुषार्थः तेः सुखशान्ति. स्थितिश्च तेषां प्रबन्ध! ॥
सम्राट रूपमण्डपः तस्य स्तंभा माण्डालिका महाराजा राजानः साम न्ता ग्रामाधिपतयः भूम्याधिपतयः एतेषां मेक्यता मण्डपस्थितिः ॥ सम्राट रूपवितान तस्य रजव कीला माण्डलि का महराजा सामन्ता राजानः ग्रामा
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राजविद्या । (१३४ ) धिपतयः भूम्याधिपतयः एतेषामेक्यता स्थातुं शक्नोति ॥ भूम्याधिपति ग्रामा धिपतिः राजासामन्ता महाराजामाण्डलिका राजान सम्राट रूप शरीरस्य नशाजालमन्त्राणि सर्व नटिका सर्वेषु शरिषु भोजनसार वा बलं प्रेशयन्ति शरीरस्यावतः ते विना विनश्याते बहुनि संख्यान्यास्थभिः प्रयुज्यनमे क्यभावं शरीरस्यस्थितिः पृथपृथग्भूत्वा विनश्यतिः सवक्यता विहीना मनुष्याणां गाते ॥
भाषाथ
सत् रज तम तीन गुणों से त्रिगुणीमाया से शुद्ध उच्च ईश्वर वा मालकीभाव है फेर इनसे तेज शक्तिः पुरुषार्थ है तिन से सुख शान्ति स्थिति और इन के प्रबन्ध हैं ॥
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मुहावर
Fa
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समरन माम
ना
क
दोरा सामन्तात
दमनना
सम्मान
सुमार रूप विननः तरय साव
कीला राजानमामान सामन्ती रामान: गामाथि नमः नेपामा वितारा बनाएयता परि पाठ
पराध
यातपति
ग्रामाधिपतिः सामन्त्री महामार समाररूप शरः जनयनशानानमंत्राण स सर्वेऽवयवशति शरिरथ स्विंग: तेजिना विनयावल
बटुने संन्यान्यखितिः पाती: जया सर्वेला सावरे कतारस्थितिः पृथक श्थत्वा विनश्यति सेवेकरता विना मनुष्याणांगति: पास के
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राजविद्या।
साम्राजः रूप एक मण्डप है सो थम्भों के आसरे है वे थम्भे मण्डलिका राजा महाराजा सामन्ता राजा प्रामाधिपति भूम्याधिपति हैं ।। साम्राज रूप एक तम्बु है सो डोरियां चोबारे आसरे है वे सारी चोबां डोरीयां भूम्याधिपति आदि है ॥ साम्राज रूप शरीर है सो आंतरा नशांजाल नाड़ों रे आसरे है वे भोजन के रसको खेचकर सारे शरीरमें बल पोचावे है जिनसे शरीर की स्थिति है वे भूम्याधिपति आदि हैं उनके विना शरीर नाश होजाता है | बहुतसी हाडियों के एक भाव से शरीर जुड़ाहै वही शरीर की स्थिति है इन सब विना और इन की एक्यता विना नाश हो जाता है ॥ येही एक्यता विना की गति है ॥
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PHP
भूम्याधिपतियों के प्रकार १ सम्भावेन न्यूनाधिकांश तया पृ.
थिवो पतित्वं भूम्याधिपति। २ भूम्याधिपानांपति ग्रामाधिपति ३ पञ्चाशदनुमान ग्रामाधिपति मा.
ण्डलिका राजा। ४ शदनुमान ग्रामाधिपति राजा। ५ दश राज्ञामधिपति सामन्त । ६ सहस्रोपरांत द्वे सहस्त्र पर्यन्त वा
द्वा सामन्तानामाधिपति राव । ७ यदि राव प्रजानां बान्धव सम्ब. न्धय प्रतिः संपादको रावल प्रो
च्यत। ८ वे सहस्रोपरांत त्रीणि सहस्र पर्य
न्त ग्रामाधिपति महाराव ।
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राजविधा।
९ याद महाराव प्रजानां बान्धव सम्बन्धय प्राति संपादको महारा
वल प्रोच्यते। १० दशसामन्तानामधिपतिमहाराजा ११ दश महाराज्ञामाधिपति वा लक्ष
ग्रामाधिपति महाराजाधिराज प्रो
च्यते । १२ दश महाराजाधिराज तेषामधिप.
ति वा दश लक्ष ग्रामाधिपति
राजेश्वरमहाराजाधिराज विक्ष्यातं १३ दश राजेश्वर महाराजाधिराज वा
कोटि ग्रामाधिपति साम्राज प्रो.
च्यते । १४ दश साम्राज्ञामाधिपति चक्रवर्ति
राजा समस्ते क्षिति मण्डले । एतेषां चतुर्दशाणां ध्वजावतानि
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060
नम्याधिपतिः व ग्रमाधिपतिः माएडलिका राजो
Ο
a
od
शिव
महीक्षितां पृथिवीपतित्वं तद्नुसार ग्राम
संख्या संक प्रकाशयन्॥
००००
राजा
सामन्न:
राव
रावन
महाराजा
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मशहानाधिराज
महाराव
एयाच देशाएगांध्वजा ष्वेतानि चिन्हामि तथा महारावरत तेषां न्यूनाधिक पृथिवी पति
त्वं प्रकाशयन्ते ॥
•uous
या साम्राज्यम्
addaand
@ चक्रवर्ति राजा समस्ते क्षितिमएने
१०००००oad
*****
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(ञ) माञ मोज पूज
ऐ पावन पश
● राजेश्वर महाराजाधिराज डाडा देवीले
पावञ जुटे
षष्ठानितना राधाहरी वर्गयु [3] इड्डा हुई धनम् [छ] छान हराव छंदो यी गीवारले 15] जोर तो पुद
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राजविया। (१३६ ) चिन्हानि । न्यूनाधिकांश पृथिवी पतित्वं प्रकाशयन्ते ग्राम संख्या तथैवच॥
भाषा
, सम्भाव से थोड़ी घणी पृथिवी की मालकी
भूम्याधिपति है। २ भूम्याधिपतियों का पति ग्रामाधिपत्ति है। ३ पचास अनुमान ग्रामाधिपति माण्डलि का
राजा है। ४ सो अनुमान ग्रामाधिपति राजा है। ५ दश राजावों का अधिपति सामन्त है । १ सहस्र से उपरान्त दो सहस्र पर्यन्त वा दो
सामन्तों का अधिपति राव है। ७ यदि राव प्रजावों का बान्धव सम्बन्धियोंका
प्रीति सम्पादक होतो रावल कहलाता है। ८ दौ सहस्र से उपरान्त तीन सहस्र पर्यन्त ग्रामाधिपति महाराव होता है ।
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राजधिया। ९ यदि महाराव प्रजापोंका बान्धव संबन्धियोंका
प्रीति सम्पादक होतो महारावल कहलाताहै । १० दश सामन्तों का अधिपति वा दश सहस्त्र
ग्रामों का अधिपति महाराजा होता है। " दश महाराजावों का अधिपति वा लक्ष ग्रामों
का अधिपति महाराजाधिराज कहा जाताहै. १२ दश महाराजाधिराज जिसके मातेत वा दश
लक्ष प्रामाधिपति राजेश्वर महाराजाधिराज है १३ दश राजेश्वर महाराजाधिराज जिसकी आ.
ज्ञा में है वा कोटि प्रामाधिपति साम्राज
कहाता है। १४ दश साम्राज जिसकी आज्ञामें है वह चक्रवर्ति
राजा सब पृथिवि मण्डल का है इनकी ध्व. जावों में उनके निशान प्रकाश है ओर फेर ग्रामों की संख्या भी।
संग्राम के समय संथल पर्वत नदी वा विषम (विकट) स्थानों में युक्ति जानना अवश्य है । रक्षित स्थानों को रोकना याने अपने अधिः
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AAYSpace
जीव संभाने संघले पजन्दावाविषमस्थानापारज्ञानमवश्यमेवाराकाहान्छ नाजायर याचिकारकटःशवपक्षविपक्षरजाबन दशक जमनारसन नियालेर पचामनमानानजादुगाधामिकासहसस नायोमासर सम्हालयशकवनो जग्झायराशी र विधामी दुरावार या मी समयान्यानेदभार सारजननाशजवन्न माराम
माय बदमाशसमिरम्गकय सवैधानिकतावारी गारंग गार्थ युद्धनकुहानानेजय प्राध्यज संवेयरल प्रचन्नम्।यरि देवयाँ कारनामा जगदिनाधार्मिपिशवन्यसायजनावाद जगदेवराज्य स्थान नहि च्याशदएननकानानन्यायन बनायायेन स्वतंत्र स्थान विनवाशा
सासार बकरोणविजयराज्यलक्षमी पारोगनियादात्री
विनयशेने मानी नया गले मत
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201220
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विधवारमार्यान्यः माया पहनिपि पनि जम् सामन्यः इण्डने नोवत्याने
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इस्टस्चितारशिलाबाकी
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गरमाया दमनना नादिया सूर नवजय ।
नयामाकामाम +
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पाला सिग्नि भारम्बारिनुका
सानामि का परमपाव बाबात्रासिधेनुका जामियानाकुलाबाजारी लासरिता कटारी-नारयशिनावास्यासिवानाttoRNIROM स्वासहजानपरशधनुषबागसामान्यायाण्डिायवर्ग मोकाशा ताराय यामलान सैनिमामामागम ....-महाशाइनामा
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संग्रामे संघले पूर्व। नदी वाविद्यमरथाननाम तं परिज्ञानमुवश्यमेव । रशिशनानिनिरोध मनास्वाधिकार-कुर्य शत्रु पक्ष विपक्षादेशका बरे परिजानुगनिमास्यैः प्रकारै: धार्मिक पंचशनि का योधा पर सहस्त्रधारा जनगाय राशीयः विधमोराचामतिरपि विनाशयनो। मयाव्यायेने ना
रंगमन्न मनोहार सर्वे सहस्य सामग्रयं पनि नदिन मान कोपनम् सर्वे धार्मिका योधा सुसज्जिता दिव्यायुधासहिता नगरिजार्थ अंचवीकनिजपाप यदिदेवयोगोदकमा कार्याधार्मिकाविश सुन्यावयन्जे वालादजस्था बन्यः शत्रुहननान्यथा येनकेनापान स्वस्थानीराज धानसार युद्ध न करोमि विजये राजनदामी पाप्यते राजविद्याराविन्यः विजयप
स्थित:
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जगद्धिताधार्मिकामासना
बलस्य मुममाया पकूजितम् न्यूनेपि सहज
कुवरि: सेना प्रकाशदर्शम्
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• डामे थे,कासहिजा है बाम्बस्वास का भरसहित मश्वारुढ वाम् कानासाहे
पादरी नार
1- कष्टादीनारयाग कापसासे कुन्ना सोहना जगात धर्ममामाए:
- सहायता सामराय प्रेष्णानि संजि
धार्मिकाणां सेनास्थाने स्थान
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शिस्थानन्यः
शिप्रधानला
संग्रामेति प्रबल दुष्ठासाध्यान्यादिविद्यमी झाचारीणां महति समाजादिवाएँ धार्मिकाएगा न्यूनतम राना विजय प्राप्यत। मुक्तिविधा प्रकाशयतः पाचवा शे वाक्रमण न करोति ने धार्मिका था।। सन्मुख युद्ध परित्यका वा यथाया मी: संयुक्त वापादित्खन्न ग्रुप स्थानान्यवसंबते समये समझे गुम पारा मुष्णले विविध प्रकार सुनने: रजनी ब्याएंश सर्व दिनिराक्रमाणंचकर एम्बै विना पण बन्धनम् नावेनशन स्वयं-पायजे यांद देव योगादकस्मो कार्य। जगदिताधार्मिकाि नेम् सर्व सरायजाइन जलाहार तेषां शरीरयात्रापि निरुधनम् शत्रु णामागमन पंजिगमन सवे शकुन्याकम्यन्नाबारे नान्यस्थाने हि सर्वेन्शन कृत्वाऽन्यथा रानी पायेन स्वत स्थाने वाशन्यः मुक्ा वाचा राजनियर युद्ध-च करोति विजयरा
ज्यलक्ष्मी प्राविचादनित्यः विजय नदामी नाराज लक्ष्मी तमोगरे सदा स्थितः
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रशिस्थानेयः
वानिका
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जाशन
राशिस्थानेन्यं.
राशिस्थानेल्य
0227990
हैविधमी दरम्वारीएगां महातसेना" केनोपायेन स्थाने स्था
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नादी/स्थातेच्य
रक्षिस्थानच्य
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रक्षितस्या
राक्षस्थाना
विनाशाय दाम्
विद्यानित्य
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राजविद्या |
( ४१ )
कार में करले । शत्रु का पक्ष विपक्ष बल अचल देशकाल को भी जानना अवश्य है चार लोगोंके उत्साह से । निचे कहे हुवें नक्शे से युद्ध आरम्भ करे जिसके प्रभाव से जगद्धिता धार्मिका सहस्र मेनिका योधा दश हजार दुराचारोंको जीत सकते हैं। जगत की हाय दुराशियों से विधर्मी दुराचारों की मति भी नाश हो जाती है और दुर्मति अन्याय से इस भाव सारतत्वको नहीं जान सकते। शत्रुक की सर्वे सहायता अन्न जल अद्दार सामग्रय को रोक देना चाहिये । शत्रुवों पर सब दिशावों से याने चौतरफ से आक्रमण करें। सब धार्मिका योधा दिव्य अस्त्र शस्त्रों से अच्छी तरह सजे हवे जगद्धितार्थ युद्धको करते है वो विजय पाते हैं । सब युद्ध के भेद छापे हुवे रखने चाहिये यदि देव योग से अकस्मात कार्यों से जगद्विता धार्मिका भी शत्रुवों से आक्रमण किये जाय और घिरजाय गढ वा अन्य स्थान में तो सब बलों से शत्रुव को मारते हुवे वा किसी तरह के उपावसे स्वतन्त्र
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(४२)
राजविद्या।
स्थान में आकर के शत्रुवों से छुटकर राजविद्यानु. सार युद्ध करता है सो विजय राजलक्ष्मीको पाता है राजविद्या क्षत्रियों के लिय विजय राजलक्ष्मी उनके घरों में सदा स्थिर रहती है ।।
विधम दुराचरणः सहः संग्रामे यथा संभव यथा शक्नोति शत्रुपक्ष भेद. नं वा यथा युक्तेन संहतानां पृथ पृथ करणम् वा भिनात्मसात्करणम् (लो. भराजत्सुवादि) शत्रु स्व पक्षान्कर व्यवहारेण वर्त्तयति तं स्वकरणम् बा पृथग्करणम् वैरी ग्रस्तारम् तमभ्यु. स्थानम् तथैव स्वपक्षषु सानुभूति पर. स्पर प्रीतिरेक्यता सहायता वीरशब्दै. वाक्येरुतेजित्करणमुत्साह संवृधनम् ॥
( भाषार्थ ) विधर्मी दुराचरणों के सात संग्राम में जहां
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राजविद्या |
( ४३ )
तक होसके शत्रुपक्ष को भेदन करणा वा युक्तिसे एकहुए हुवोंको जुदे जुदे करदेना विखेरदेना वा सोने चांदी के लोभसे अपणेसाथ करके लड़ा देना वा शत्र अपणे पक्षवालोंको कुर व्यवहार से वर्त्तता हो उनको अपणा करलेना वा जुदा करदेना विखेरदेना वा शत्रु जिनकेसात वैर ईषी रखता हो उनको अलग करना इसी तरह अपने पक्ष में सानुभूति प्रगट करना परस्पर प्रीतिरेक्यता सहायता वीरशब्द वाक्यों से अपने पक्षको उत्तेजित करना और उत्साह बढाना ||
द्वादश कोषे भाषा परिवर्तनम् देशान्तरानुसार प्राकृत् भाषाषु स्वरा २५ तेषु मूल स्वरा तो ३ व्यञ्जनानि३९ ૨ तेषुक यथा कर्म शुद्धार्येत । ख. खण्डे खण्डे पूर्णम् । गणिज्जानं प्राप्तव्यमवश्य मेव । व घनघोर घटाऽस्थिरम् । ङ कक ण विवाहे रणे शोभितं । च चारेणोत.
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राजविद्या।
साहेण सर्वे वृत्तान्तं परिज्ञानम् । छ. छायाप्रजोपरी । ज- जोषयेत्कर्माणि झ- झुप्यापि रक्षणम् । ञ- जालं निर्वाणं । ट-टीडिदलं पश्येत् । ठ-ठोर मवलम्बनम् । ड-डाणा । ढ ढंगशुद्धा येत् । ण ठण्डक् । त तिमिर वा दुख नाशाय ज्ञानम् । थ थकित्स्वपक्षसहायं द दान सुपात्र।ध धनेन दोनजनानां रक्षा । न नवनिधि । प प्रजा पालनम् फ फलं पश्येत् । ब बलं पश्येत् । भभोजनं स्वाधिकारे । म मान प्रतिष्ठा रक्षा न्यायेनसहः । य यशोधन । र रक्षा न्याय राज्य । ल लोकसंग्रह राज्यं । व विविध विधानां प्रचार । स स्वार्थसुख साम्यावस्था । ष षड़धा न्यायः । श शान्तिः न्यायेन । ह हि.
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राजविद्या ।
( ४५ )
रंन्यं विनश्यति लोभलिप्सया ॥ षष्ठा नि वर्णानि वर्गेषु पश्यत् ॥
यावदेवह्यधिक प्रजावधिकसन्मार्गे प्रक्तु शक्नोति तावदेह्यधि कुञ्चाधिपतिः न संशयः ॥
( भाषार्थ )
जितनी अधिक प्रजाको अधिक सन्मार्ग में चला सकता है उतना ही अधिक उच्च अधिपति
होता है ||
रक्षित्स्थान्प्राकृन्मनुषक्कृतश्चति ॥
( भाषार्थ )
रक्षित्स्थान प्राकृत याने स्वाभाविक और
मनुष्यकृत होते है |
प्रारम्भ स्वेष्टे प्रेमणा सायोगमाया प्रसन्नाक्षत्रियान् श्रद्धयान्वितान्ददाति योगः माययास्थितिश्च ॥ योगक्षात्रहदे
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प्रकाशयति शुद्धोचेश्वरभावा १ यथा योगयुक्ति २ संयमः ३ शौर्य ४ तेजः५ जगद्धितार्थ पारमार्थिक दाने समुत्सा हः ६शुद्धविचारशक्तिः धर्मेणरक्षा ७ न्यायश्चेति ॥ ८॥ एतै सप्तः स्वस्ति सुखशान्तिः स्थितिः सम्पत्ति वृडिरा युश्च सम्वृधन ॥ यथायोगयुक्तिः प्रयो जनयोगः ॥
( भाषाथ)
प्रारम्भ में ( सरुमें ) अपणे इष्ट में प्रेम रखने से वा योगमाया प्रसन्न होती हुइ श्रद्धावान्क्षीत्रयों को देती है योग और माया से स्थिति ( परम्परा वंशका चलना ) योग क्षत्रियों के हृदेमें प्रकाश करता है शुद्धभाव उच्चभाव और मालकीभाव १ यथा योगयुक्त याने जैसीचाहिये वैसी तजबीज २ अपने आपेको वशमें रखना याने अपने आधीन
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राजविद्या।
(४७) में रखना ३ वीरता ४ तेज ५ जगतहितार्थ पार. मार्थिक दान में उत्साह ६ शुद्धविचारशक्ति ७ धर्म से रक्षा न्याय करना ॥ ८ ॥ इन मातों से रोग रहित रहना १ सुख र शान्ति ३ स्थिति ४ सम्पत्ति ५ वृद्धि ६ और आयुप बधना सिखलाते हैं ॥ ७८ ॥ यथायोग युक्ति काम में लाना योग
शुद्धभावेन प्रतिदिन शस्त्रास्त्राणामभ्यासः सएक्शाक्तः तयारक्षा तयाच सुखम् उच्चभावन सर्वोपरीविद्याभ्यास तेन सुमतिः तयान्यायःन्यायेनशक्तिः सदा ईश्वरभावन पुरुषार्थ-शुद्धमा मर्ववृत्तान्तपरिज्ञ.नम् जगद्धिताय नारमार्थिक दाने समुत्साहः सएव स्थितिः शुद्धोचेश्वरभाव सरूप त्रिशूल त्रैलो. क्यं जयतुं शक्नोति ॥
.
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( ४८ )
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राजविद्या ।
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( भाषार्थ )
शुद्ध भाव से प्रतिदिन शस्त्रअस्त्रों का अभ्यास करना वही शक्तिः याने बल है बल से रक्षा जिस से सुख है । उच्चभाव से सर्वोपरी विद्याका अभ्यास' जिस से सुमति (आछी बुद्धि ) जिस से न्याय और न्याय से शान्ति सदा ईश्वर याने मालकी भाव से पुरुषार्थ- शुद्धकया सब वृत्तान्त को जानन जगद्धितार्थ पारमार्थिक दान में उत्साह वही स्थिति है । शुद्ध उच्च ईश्वरभाव सरूप त्रिशूल तीन लोक जीतशक्ता है |
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राजविद्या। [४] स्वार्थ सुखलिसप्याऽज्ञतया कर्तव्य कार्येषु सेधिल्यं चकरोती पुरुषार्थ ज्यज्यंति विषय सुखेषु सज्जन्ति यथा ज्ञानविहीना पडू गर्दभ बलहीनं भूत्वा. ऽधोपतति तमन्य पशवः पक्षयः वितुद्य भक्षयन्ति तथैव पुरुषार्थहीना पुरुषाणांगतिः॥ ___ स्वजातेः बान्धवः संबन्धय भूम्याधिपतयः ग्रामाधिपतयः सामन्त। विना विना हस्तौ । तथैव प्राज्ञा पणिता बुधा वृधा जगदनुभावुका विनाविना पादो।
शुद्ध बलीष्ट भोजन सामग्रय सुख प्राप्ति परंत् ब्यायाम परिश्रमाभ्यासं विना उदर प्रसरात चासमर्थ भवति॥
बल बुद्धिः भ्यां जलीष्ट मर्यादा राज्ये ययज्ञतयाऽल्प बलेन मयांदा भंग
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[ ५० ]
राजविद्या ।
करोति तदा दुर्गतिराप्नोति यथा समुद्रजले मनं भवति विनश्यति ॥
भाषार्थ
स्वार्थ सुख में अधिक पड़कर अज्ञानता से करने के कामों में ढीलापन्न करता है और पुरुपार्थ को छोड़ता है और विषय सुखों में पड़ता है । जैसे विन ज्ञान का पशू गद्धा बल हीन हो कर नीचे पड़ जाता है तो उसको दुसरे पशुपक्षी तोड़ कर खा जाते हैं । इसी तरह पुरुषार्थहीन पुरुषों की भी मांत होता है ।
अपनी जाति के बान्धव सम्बन्धी भूम्याधि प्रति ग्रामाधिपति सामन्त बिना २ हाथों केसा है । इसी तरह अगम बुद्धि वाले पण्डित बुद्धिमान वृधाजिन को जगत का अनुभव पूरा हो इनके विना बिना पैरों कैसा है ।
शुद्ध बलिष्ट भोजन सामग्री सुख की प्राप्ति है परंत व्यायाम ( कसरत ) और मेहनत के अभ्यास विना पेट बदकर असमर्थ हो जाता है !
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भूना: मुखलिमयाकायेषु शैयिल्य कुरी पुरुषार्थ यनजि विषय सलेमअनि र यथाज्ञानविर्शनाप गनःपनीनं च्वाधी
पतिजमन्यपशव पक्षिण विलय नायन्ने उपदेश
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स्वजातः बन्धवःमबन्धय सामन्नाग्रामाधि पतय:जम्याधिपराधः विनाविनालस्त्रोतवप्रा ता परिजोनुधावृधाजगन्न जाबुका निनांपादौ विना
शुरबजी
सामग्रयः
याया मपA
स्वनाःबान्ध वसंबकायामिनो विनाती
कोठी तेन तस्यो दूरप्रमान वासमर्थ नवाज
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विनाविना
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राजविद्या |
[ ५९ ]
बल बुद्धि से बलवान मर्यादा राज्य में जो अज्ञानता से अल्प (थोड़े ) बल के साथ मर्यादा को भंग करता है तो दुर्गति घेर लेती है जैसे समुद्र जल में डूबना और नाश होना ।
वादि प्रतिवाद्योभो पक्षयोशांतिः नस्तः वाधिकाधिक पुनर्विचारार्थाक्षिपा बोभूयन्ते न्यायाधीशस्यायोग्यता विद्य ते प्रत्येक राज्यकर्मचारी स्वे स्वे कायेंपुरता तेभ्यः राज्यहित्प्रजाहितभवतः प्रजा विलाप रहिता वर्धनम् । राजा प्रति शति प्रजानांपंचाक्षिण कर्मचारीभ्यः क्षमा कुर्यात्तत्पश्चात्कठिंडंडावश्यमेव ॥
भाषार्थ
वादि प्रतिवादि दोन पक्ष की शान्ति नहीं अधिकाधिक अपीले होती रहें तो न्याया घीशों की आयोग्यता समझी जाती है प्रत्येक
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[५२]
राजविद्या। कर्मचारी अपने अपने कार्यों में प्रीति रखते हुवे जिनसे गजहित, प्रजाहित होवे और प्रजा विलाप रहित तरको के योग्य है । राजा प्रति सइकड़े प्रजाओं की पांच सिकायते कर्मचारियों के लिये माफ करने योग्य है इससे उपरांत कठिन दण्ड अवश्य ही देवे।
राजा ब्याक्तगत सेवकातिरिक्ता सर्वे राज्यकर्मचारयः प्रजा सेवकोच्यते ते सर्वे प्रजाषु सुखशान्तिः स्थित्यर्थम् तथैव सेना पक्षाथम् यदि वैकल्पमापतेत् तर्हि तऽयोग्या संख्या विसृजनिया तेषांस्थानेऽन्यासुयोग्या नियोक्तब्या राज्ञां परमोधर्मः वाऽन्यथा राज्यापराधिकारे प्रजायते ॥
भाषार्थ राजा के निज सेवकों के सिवाय राज कर्मचारी प्रजा सेवक कहे जाते है वे सब प्रजा के
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राजविद्या। [३] सुख शान्तिः स्थिति के लिये है इसी तरह सेना रक्षा के लिय यदि सुख शान्ति स्थिति में फरक पड़े तो अयोग्यों को दूर करे । और उनकी जगह दुसरे सुयोग्य रखना राजाओं का परम धर्म है । अन्यथा राज्य दुसरों के अधिकार में चला जाता है।
মাখ प्रजाघु प्रतिशत्येको धर्मोपदेशकः एको वैद्य त्रय शिल्पकार्येषु चतुर विदयज्ञ विदुपोवरोपाशकाप्रति शति दश क्षत्रिया रक्षार्थम् पच परिचरिया क्षुद्रा सर्वेऽन्न शाकोषधयः फलान्यादि कृषी वाणिज्य गोरक्ष कार्येषु चत्वारशत षटत्रिजगदवश्यकोपयोग्याकरजधातु काष्ट पापाण मृतिका स्थि चरम कपास लोभ रुहां बल्कलकेशादि विविधकायार्थम् ॥
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[५४)
राजविद्या। प्रजाओं में प्रति सेकडे एक धर्म उपदेशक, एक वेद्य तीन शिल्प कार्यों में, चार वेद यज्ञ जानने वाले ईश्वर उपासक, प्रति सइकडे दश क्षत्रिय रक्षा के वास्ते, पांच शूद्र हुकम मुजिब काम चाकरी करने वाले, सब अन्न शाक औषघालय आदि खेती वाणिज्य गौ रक्षा कार्यों में चालीस, छतीस जगत के अवश्य उपयागी खान धातु, लकडी, पत्थर, मिट्टी, हाड, खाल, कपास लोम, रुहां, बल्कल, केश आदि विविध कार्यों के लिये ।
क्षत्रियाणांभूदाय विभागे विवादे समुत्पन्ने भूमिः विभजने न्यायोऽष्टया प्रोच्यते । सामन्तानां प्रजागणेषु सभ्य व्यक्तिजनानां सम्मतिन्विष्या अधि. कायां सम्मतौन्यायं परि समाप्तेि ॥१॥ वादि प्रात वादिनां राजविद्या ज्ञातृत्व. स्य तदनुसार बल बुद्धोर्योगयतायाश्च
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___ राजविद्या । [५] चतर्णासभा सदां सभापत्यैश्च राज्ञो वा सन्निधौ परीक्षा ॥२॥ कोषेण लक्षं विध्यत वाऽशिना एक वारेण कवचं छिद्यते ॥३॥ स्वयं जोतिः परब्रह्मात्मकं तेजः तत्व ज्ञानार्थ दर्शनमध्यात्म ज्ञानं दिव्यम् ॥४॥दानशक्तिः प्रवर्तिःयशाधनः॥५॥ अधिको सन्तानोत्पति ॥ ॥वीरत्वेन धेनुकादि क्षुद्रशस्त्र सिंह हननम् ॥७॥ एतेषु सर्वेषु परिक्षापूच्च. योग्यताधिक्य सम्बन्ध सार्माप्यच शा. न्ते शुदेसदाचारे दृढचित्तेकृतज्ञच दातव्यमधिकोभागानतु हीनत्वे दुराचारे दुष्ट दुर्जने धे नास्तिकऽधिकोभागः स योग्यतापरीक्षणाया न्यूनाधिकयोग्य तानुसार दातव्या ॥ दायविभागे न्याये निष्पक्षतयावश्यमेव विपरीताचरतास्व
।
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[५६ )
राजविद्या। हस्ता न्यायो निर्गत्या पर हस्ते प्रजायते तेन लघुतां प्राप्यते ॥
वीर सुभट क्षत्रिभ्यः बान्धव संबन्धीभ्यः भूमिः प्रदानं राज्यं हासं नैति परं वृधि प्राप्यते गज्य मूलान्य धिक्यं भवन्ति । येन केन राज्या धिकारे ऽधिकाधिक बान्धव सवन्धयः वीर सुभट क्षत्रियः स राज्य सुदृढतां प्राप्यते । योग्यतानुसार दाय विभाग न्यूनाधिक प्रदीयते । राजविद्यानुसरणं त्यागेन यद्यन्यायेन राज्यं हृसते न वीर सुभटां भूमिः विभाग प्रदाने । यथा प्रकृति स्वभाव नियमाद्विरुद्धं वृधेि भवात नाधिकः संतात वाधभ्यश्चाधरे। भ्यः सतांशः भूमेचर संपते शरीरयात्रा
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राजविद्या।
नुसारः । मातुर्विभाग तस्यापोषणादारे. भ्यः चर संपते विशांश पर्यंतमापदात व्यम् द्वितीय मातुर्तस्या पोषणादारेश्य शतांशः तृतीया मातुर्तस्या पोषणादा. रेभ्यः द्वे शतांशः चतुर्थ मातुः तस्या पोषणादारेभ्यः त्रि शतांश तत्पश्चात् कर्मश न्यून तरांगः । मातुः सुता स्व सुताभूम विभाग पाषणाथम् ग्रहमादिषु चर संपतिषु पाषणादारभ्याधीश पर्यन्तम् । मातुः सुतः स्व सुता तथा तयो मतति स्व संततिरेव वत्तयते विभागे। स्व पुत्राभावे मातु सुतास्व सुता वा तयो सैततिरपि स्वेव माननायः सर्वे विभागे दत्तक पुत्रेव । सिमा चिन्हं ना न्यथा कुयात् ॥ विद्याज्ञानानां संग्रह. ज्ञानसमुच्चयः सद्विधा मनुजमुच्चपदं च
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P
[५८]
राजविद्या। सर्वे सुख प्रदायिनी तथैवासाद्विद्या पा. तयति नर्केऽशुचौ ॥ __ स्वाधीन परिपूर्ण सुखसहित पोषणम् । सबै कार्यास्वाधिकारो स्वेच्छा चारा । विचार शक्तिः तत्वज्ञानाथ दशे नम् । मनचित्तबुधहकारेण दूर दर्शनं तक विर्तकम् प्रमाणेन वस्तु परीक्षणम् । परि प्रश्नम् । विचार शक्ति. संप्रसारण सप्तधा शुडास्तिक भाव न सह ॥१॥ उच्च पारमार्थिक भावेन सह ॥२॥ रक्षान्याय इश्वर भावेन सह ॥३॥ पुण्य धर्मेश्वराराधनमुपाशनं प्रबन्ध भावेन सह॥४॥ दया करुणाऽहिसा भावेन सह ॥५॥ स्वार्थ सुख भोगेश्वर्य मोहाधिकताषु दष्टाचोभावेन सह ॥३॥ शुद्धोच्च श्वर भावेन मृष्टः स्वास्त सुख शान्तिः
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राजविधा।
स्थितिः संपति वृधि भूति रायुश्च वृध्यर्थम् । विचारानंताऽव्ययम् तान्सर्वान् अवश्यकतानुसार मुमति बलेन संप्रसा रणम् । निरर्थक न किश्चिदपि विधेयम् सा विचार शक्तिः महान्बलम् । स्वार्थ रूपा सुरं वा दुर्मतिः रूप पिशाच निजित्वा सर्वान साधयति वा 5 यथा ते उभो बलेन प्रेषयतः निर्यम् ॥
নবাগ
क्षत्रियां के भूदाय विभाग में विवाद (झगडा) पेदा होणे में भूमि का भाग देण में न्याय आठ प्रकार से कहा जाता है । सामन्तों की प्रजागणों में सभ्य व्यक्ति जनों की सम्मति हो अधिक सम्मति ( राय ) यां से न्याय समाप्त हो वादी प्रति वादीया की राज विद्या ज्ञान की जिस के अनुसार वल बुद्धियां को योग्यत्ता से चार सभा
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[६.]
राजविद्या। सदां की ओर सभापतियां से राजा के सामने परिक्षा हो । एक कोष से निसान को बेध देना वा तखार के एक वार से कवछ को छेद देना । स्वयं ( अपणे आप ) जोते पर ब्रह्म का तेज ज्ञान के सार को देखना और अपणी आत्मा का दिव्य ज्ञान । ४ दान में शक्ति प्रतिः यशो. धनः यशहिधन है ५ सन्तानां की अधिकता ६ वीरता से ओछे शस्त्र से सिंह को मारना ७ इन सब में परीक्षा में उचे। योग्यता अधिक सम्बन्ध का पाश होना शान्त शुद्ध सदाचार मे दृढ चित में कृतामे देन योग्य है अधिक भाग परंत तत्वां से हीन को दुराचारी को दुष्ट दुर्जन क्रोधी को और नास्तिक को अधिक न दे। सब योगता की परीक्षा करनी चाहिये कम जादा योग्यता नुसार देना चाहिये । दाये के विभाग में न्याय में निर्पक्षता अवश्य होनी चाहिये विपरीत आचरण से न्याय हाथ सैनिक ले जाता है ओ दुसरों के हाथ मे चला जाता
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राजविधा।
[ १] है जिससे लघुता ( छोटा पन ) पांति आता है।
वीर सुभट क्षत्रियों के लिये पान्धव सबन्धीयां के लिये भूमी देने से राज्य घटता नहीं है परंत वृधि को पाता है राज्य की जडे अधिक होती है।
जिस किसी राज्य के अधिकार में अधिक अधिक बान्धवों सबन्धी वीर सुभट, क्षत्रिय है वह राज्य अछी दृढता को पाता है योग्यता नुसार दाय विभाग कम जादा दीया जाता है राजविद्या के अनुसरण को त्याग ने से अन्याय से राज्य घटता है परंत वीर सुभटों को भूमि विभाग देने से नही जैसे प्रकृति स्वभाव नियम के विरुध अधिक सुधि नही होती है। संतति बान्धवों के लिये आधे से सो अंश तक भूमि विभाग और चर संपत्ति मे से शरीर यात्रा नुसार । माता के लिये चर संपत्ति मे से उसके पोषण से लेकर बीसा अंश तक देना चाहिये।
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[ ६२ ]
राजविधा ।
द्वितिय माता के लिये उसके पोषण से लेकर सो अंश तक । तीसरी माता के लिये उसके पोषण से लेकर दोसो अंश तक । चोथी माता उसके पोषण से लेकर तीन सो अंश तक | तिसके उपरांत कम कम । माता की बेटी अपणी बेटी भूमि मे भाग पोषण के लिये घरादि मे चर संपत्ति मे पोषण से आधे अंश तक । माता की बेटी अपणी बेटी तथा इन दोनु को संतति विभाग देने में अपनी संतति की तरहे वर्ते जाते है ! अपने पुत्र अभाव से माता की बेटी अपणी बेटी और इन दोनु की संतति भी अपनी संतति की तरह मानने योग्य है सब विभाग देने में गोद लिये हुवे पुत्र की तरह ।। सिंम चिन्ह को न हटाना चाहिये । विद्या ज्ञान का संग्रह है: ज्ञान को समुच्चय सद्विद्या मनुष्य को उच्च पद पांचाती है और सब सुख देने वाली है इसी तरह अमद्विद्या नर्क में गेरती है || स्वाधीन परिपूर्ण सुख सहित पोषण करना । सब काम अपने अधिकार
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राजविया ।
में हो । अपनी इच्छा नुसार चलना । विचार शक्तिः- ज्ञान के सार को देखना । मन चित्त बुधि अहंकार से दूर देखना याने विचारणा । तर्क वितर्क करना । प्रमाण से वस्तु की परिक्षा करना । प्रश्नोतर करना । विचार शक्तिः संप्रसा. रणम् सात तरह से-शुद्ध आस्तिक भाव के साथ १ उच्च परमार्थिक भाव के साथ २ रक्षा न्याय माल की भाव के साथ ३ पुण्य धर्म ईश्व. राराधन मुपाशनम् प्रबन्ध भाव के साथ ४ दया करुणा अहिंसा भाव के साथ ५ स्वार्थ सुख भागेश्वर्य मोह की अधिक जीवां में दुष्ट नीच भाव के साथ ६ शुद्र उच्च मालकी भाव से सृष्टि के सुख शान्ति स्थिति अरोग्यता संपति ऋषि धन आयुस की वृधि के वास्ते । विवार अनन्त हमेश है उनको सबको आवश्यक्ता नुसार अच्छो बुद्धि बल से विस्तार करना चाहिये निरर्थक कुछ भी न करना चाहिये वो विचार शक्ति महां बल है। स्वार्थ रूप असुर और दुर्मति रूप पिशाचनी को
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(६४)
राजलिया। जीत कर सब साध लेता है और नही तो वे दोनु बल पूर्वक नर्क में भेज देते हैं।
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॥ ॐ शिव ॥
राजविद्या शहार्थ बोध।
प्रथम शिक्षा-राजविद्या शदानां स्पष्टार्थ मनातरी ज्ञान।
१-कोधर्मः प्रकृति नियमातिरिक्तायाः सर्व शक्तिमत्याः संप्रेरिकी मायाया नियमाद्विरुद्धं नाल्पमाप विधेयम् । साशुद्ध धारणा यया सृष्टेर्मुखशान्ति स्थिति प्रबन्धानां स्थैर्य भवेत स एव धर्मः
भाषार्थ प्रकृति नियम के सिवाय सर्व शक्तिमति प्रेरणा करनेवाली माया के नियम के विरुद्ध कोई भी धारणा न करनी चाहिये और ऐसी शुद्धा
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राजविद्या।
[२] धारणा जिस्से सृष्टि के सुख शान्ति स्थिति और प्रबन्धों की स्थिरता बनी रहै वही धर्म है ।।
२-राज्यकिम्. धर्मेण सहाज्ञाफलं साऽपि साम दान भेद दण्डैः सहः परिवर्तनम् ।
भाषार्थ राज्यक्याई? धर्म के साथ आज्ञा का चलना वा साम दान भेद और दण्ड के साथ हो॥
३-केयंविद्येति. पदार्थानां याथा तथ्यज्ञानमिति विद्या चेच्छाकृति श्चातो विद्या सर्वोपरी यथार्थ ज्ञानमे। ही महाँ बलम् ॥ __येविद्याक्याहै? पदार्थों का यथा योग्य ज्ञान इसे इच्छा कीया फल मिल सकता है इसे ये विद्या सर्वोपरि है जैसा चाहिये वसा ज्ञान होना महान बल है ।
भाषार्थ
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মাথাধ
राजविधा। [1 ४--किंवलम्. कर्तुशक्नोति यत्कार्य येन तद्वलमुच्यते॥ जिस्म जो काम कीया जाय वह बल है ।
५--तप. परिश्रमेण कार्य संपादनमेव तप इति प्रोच्यते सर्व तेजोरूपत्वम् वा शरीर वाङ मनसापरिश्रमं करोतीतितपो. च्यते॥ शस्त्रास्त्राणामभ्यासो महाँतपः॥
भाषार्थ मेहनत के साथ काम करना ही तप कहला. ता है वह तेजरूप है वा शरीर बाणी और मन से परिश्रम करना तप है और अस्त्र शस्त्रों का अभ्यास महाँ तप है ॥
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[ ४ ]
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राजविद्या ।
६--तेज. आलस्य रहितः वास्वस्तेर्विनाय कृयते सतेजः प्रकाशरूपत्वम् ।
भाषार्थ
आलस्य रहित वा विना सुस्ती के करना वह तेज है और ये प्रकाश वान है ||
७-त्याग.
दुम पदार्थादिभ्यो निकृष्ट कुकृत्यानां परिहरणमेव त्यागः ।
भाषार्थ
हरेक वस्तुवों में खोटा लोभ और निकृष्ट खोटे कामों को छोड़ ना ही त्याग है |
८-- सत्सङ्गति.
काम क्रोध लोभ मोहांकाराणामधिक्यं निरुन्धानां तांच संभावेन वशी
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HD
PvA
राजविद्या। [५] कुर्वति या निश्चयात्मिा बुद्धि विचार शक्ति नामिका पर पर्दा सोच्च संगतिर्वा सत्संगतिः जगदनुभावुकः दृढास्तिकः स्वार्थ निस्पृहः दूर दर्शीःशुचिःन्यायः सत्यरतः कुलीनः शुभाचाराभियोग सहिताः ईदृशा जनानां संगति सत्संगति प्रोच्यते ।
भाषार्थ ___ काम क्रोद्ध लोभ मोह अहंकारों की अधिक्ता को रोक्ता हुवा और उनको संभाव से अपने वशमें रखता हुवा वा निश्चयात्मिका विचार शक्तियों की उच्च वा सत्सङ्गति जगके कामों से तजरुबेकार पका आस्तिक स्वार्थ रहित दूरदर्शी पवित्र जो न्याय और सत्य में जिनकी रति हो कुलीन हो जिनके चलन अच्छे हो और जिनकी कोइ सीकायत न हो ऐसों की सङ्गति समगति कही जाती है।
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राजविद्या।
९--सेना. वीर सुभट जितेन्द्रिय प्रतिदिने परिश्रमेऽभ्यासे चास्त्र शस्त्राणामभ्यासे परिपूर्णः सभ्यता शिक्षिता बलान्विता सज्जिता पुरुषाणां समूह सेनाप्रोच्यते।
भाषार्थ सेना-वीर सुभट जितेन्द्रिय और हमेशा महनत और अब शस्त्रों के अभ्यास में परिपूर्ण हो और सभ्य शिक्षित और बलवान् सजे हुवे पुरुषों का समूह सेना कहलाता ह।
१०-शद्धाधारणा. सर्वे परस्परं सुखेन प्रवर्त्तते सेव शुद्धाधारणाः साऽपि विघ्न रहिताश्च शान्तिः।
भाषा
शुद्धाधारणा-सब आपस में सुख से रहने की प्रवर्ती रखें येही शुद्धाधारणा कहलाती है।
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राजविद्या। [७] शुद्धाधारणा जो विघ्न रहित है सो ही शान्ति है ।
११-शुद्धभावना. सर्वे शुद्धचित्तेन जगद्धितार्थ पारमार्थिक विचारः शुद्धभावनाः।
भाषार्थ सर्वे शुद्ध चित्त से जगत् के हित के लिये पारमार्थिक विचार शुद्धभावना कहलाती है।
१२-सुख. यथेष्टं स्वानुकूल पदार्थानां प्राप्ति सुखम् वा तदतिरिक्तं दुःखम् ।
भाषार्थ इच्छा कीया हुवा वा अपने अनुकूल पदा. र्थों की प्राप्ति सुख है और इसे विरुद्ध दुःख कहा लाता है।
१३-लोभ, अज्ञतया प्रायः सुखाभिलाषः लोभः।
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[ ८ ]
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राजविद्या ।
भाषार्थ
अज्ञान्ता से जादे करके सुखकी अभिला
खा करना लोभ है ।
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लोभ है ।
१४-- सत्यलोभ.
यशसेऽति गृध्नुता सत्यलोभः ।
भावार्थ
सत्यलोभ- यश के लिये लोभ करना सत्य
द्वितीय शिक्षा.
स्वार्थ सुखस्य संभावादधिक्ता सर्वेशुभं सर्वदा स्थिति सर्वस्वच विनाशकानि तौ प्रवलं शत्रूं परिहत्वा सर्वे परस्परं शुद्ध भावेन शुद्धा धारणा विना न प्रीति न सुखं न च बलम् ते विना सर्वे विनश्यन्ति न कोऽपि व्यक्तेः वा
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राजविद्या ।
जातेश्व स्थितिः । उन्नत पदकांक्षिणा जना वृधिमिच्छता राजविद्योपदेशेन शक्तेः सुमते विशुद्ध ज्ञानं संवाप्यते ताभ्यां रक्षा न्यायः स्वाधिकारे क्षत्रियाणां स्थिति |
[६]
भाषार्थ द्वितीय शिक्षा-स्वार्थ सुख की संभाव से अधिक्ता सारे शुभ कार्यों को और हमेश की स्थिरता को नाश करने वाले दोनू प्रबल शत्रुव को मारकर समस्त आपस में शुद्ध भावना से शुद्धधारणा विना न प्रीति न सुख और न बल हे इनके विना सब नाश को प्राप्त होजाते हैं और किसी व्यक्ति वा जाति की स्थिति नहीं है। उच्च पदकी इच्छा करने वाले अपनी वृद्धि चाहने वाले राजविद्या के उपदेश से बल बुद्धि के शु ज्ञान को प्राप्त करे जिनसे रक्षा न्याय अपने अधिकार में होना क्षत्रियों की स्थिति है ।
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राजविद्या। सर्व शक्ति मति शवा प्रेरिका शांभवी शिवा । शान्तैक वीरा माहेशी शिवार्धगी शिवा प्रीया ॥ प्रसोम्यं महा शाक्त पर्तिचा शुभ भर्जनम् । प्रकाश्यते राजविद्या क्षत्रियाणां हितायच ॥ आभू चन्द्रार्क तारस्यात् राज्य शासन वर्धनम् । सुप्रतिष्टितमेवास्तु मानुष्यं सु. खमेवच॥
भाषार्थ सर्व शक्तिवाली उत्पन्न करनेवाली प्रेरणा करनेवाली स्वरूप शिवा शान्त स्वरूपवाली एकही वीरा माहेशी शिवार्धङ्गो शिवापीया महा शक्ति अशुभ को नाश करने वाले शिव के समीप सोम सभाव होकर प्रकाश की जाति है।
भाषार्थ सर्व शक्ति मति इस नाम से राजा अपनी समस्त शक्तियों का समर्ण ( ध्यान ज्ञान ) करे
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Pagal
राजविद्या। [११] याने शरीरिक बल आत्मिक बल सर्वे सुयोग्य सेना बल सर्वे बान्धव संबन्धीयों की बल बुद्धि एक्यता का बल १ शा इस नाम से राजा धर्म से आय का प्रबन्ध रखे याने अच्छी पेदाश हो और प्रजा वणी रहै २ प्रेरिका इस नाम से मतलब ये है कि राजा समस्त प्रजा को सन्मार्ग में प्रेरणा करता रहै जिससे प्रजा की सुख शान्तिः स्थितिः और प्रबन्या की स्थिरता बनी रहै ३ शांभवी इस नाम से राजा अपने आप स्वाधीन्ता से अपना राज्य कार्य करता रहै किसी के आशभूत होके न रहै ४ शिवा इम नाम से राजा अपनी समस्त प्रजावों में कल्याण सुख चैन बना रखे ५ शान्ता इस नाम से गजा शान्त सभाव वाला हो उत्पाति और कु. चाली न हो और और जितेन्द्रीय हो ६ एकवीरा इस नाम से राजा को बोद्ध कराता है कि कुसङ्ग को त्यागता हआ क्षत्रिय जाति के स्वाभाविक गुण माफिक वीर ही भाव में मम रहै ७ माहेशी ये नाम बोद्ध करता है के क्षत्रि नीच भाव को छोड़
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[१२] राजविद्या। के उच्चभाव ( मालकी भाव ) रखे नीच विचार वा नीच भाव हरगिज न रखे नीच भाव से नीचा
और उच्च भाव से ऊचा। उच्च नीच भाव ही कारण है जेसा भाव वेसा फल ॥ ८ ॥ शिवाधङ्गी ये नाम बोद्ध करता है के अपनी एकही पत्नी को अधंग में रखे अदंग पुरुष और अर्द्ध स्त्री दोनू मिलकर एक अंग होजाता है और एक से जादा अर्द्धग स्त्री न बनावे एक ही स्त्री को अपने अग के माफिक रखे और इसी तरह अपनी प्रजा से सदा मिला रहे राजा मस्तक और प्रजा धड़ है ये दोनु मिलकर सामीप्य रहै और जहां तक होसके प्रजा के दुःखों को मिटाता रहै और प्रजा के साथ दुर्भाव कुछ भी न रखे ॥ ९ ॥ शिवा प्रीया ये नाम बोद्ध करता है के राजा अपनी एक ही विवाहिता स्त्री को प्रीय रख इसी तरह प्रजा का भी प्रीय बना रहे राजा अपने हृदे में कोमलता और मुख में मधुरता और अपने बान्धवों का संबन्धीयों का प्रजावों का और मेना
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राजविद्या।
[१३] का प्रीति संपादक हो । पारमार्थिक भाव रखे और दान में उत्साह रखे इस तरह महा शक्ति के पति और अशुभ को नाश करने वाले के साथ उनकी अनुग्रह से निर्मल होकर क्षत्रियों के हित के लिये राजविद्या प्रकाश की जाती है जिस्से पृथिवी चंद्र और तारों तक उनका राज्य स्थिर रहे और मान के साथ मनुष्य पनका सुख मिल. ता रहै ॥ १० ॥
सृष्टेर्मुखशान्तिःस्थितिः प्रबन्धानां स्थैर्य सर्गे प्रारंभे शिव शक्त्यार्य समवादोभूत स एव तेज शक्तिः सुमतिर्मणि राजविद्याया प्रथमोपदेशोऽस्ति य भगवाना विवस्वते प्रोवाच । पश्चात्परम्पराणोक्तवान व्ययमसोऽपि समये समये लुप्त प्रकाशश्च बाभूयते।
भाषार्थ सृष्टी की सुख शान्ति स्थिति और प्रबन्धों
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[१४]
राजविद्या। की स्थिरता के लिये सृष्टी आरंभ में शिव शक्ति का संबाद हुवा वह तेज शक्ति सुमति मयि राज. विद्या पर पहला उपदेश है जिसको श्री विष्णु भगवान ने राजा विवस्वान से कहा फेर परम्परा से ये राजविद्या का योग चलता रहा वह समय समय में लुप्त प्रकाशित होता रहता है।
DS
-
।
राजविद्या। ॥ प्रथमोपदेश । ॥ प्रकृति स्वभाव नियम विद्या प्रशंसा ।।
अस्या सृष्टेश्वधिः चतुर्दश मन्वन्तर पर्यन्तःप्रति मन्वन्तरे मनुष्याणां बलबुद्धिःकर्मायुर्भेदो विद्यते स्वार्थ सुख लिप्सया स एवाधोगतिं नयति शास्वाणि च तमुर्डमाकृषन्ति यथा सूर्यों जलम्।
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राजविद्या।
[१५] भाषार्थ इस सृष्टी की अवधी चवदे मन्वन्तर तक की है । हरेक मन्वन्तर में मनुष्यों की बल बुद्धिः कर्म और आयु में फरक पड़ता है और ये फरक स्वार्थ और सुख में पड़ने से होता है और ये स्वार्थ और सुख नीचि गति को लेजाता है और शास्त्र उनको उच्च गति में खींचता है जैसे सूर्य जल को।
एतच्छास्वावलंबी जनविषुलोके पूच्चपदं लभते एतद्विद्या पुरुषाणां क. माणि शोधयित्वा बलायुर्बुद्धिः संततिश्च संपदा संवर्द्धयति ।
भाषार्थ इस शास्त्र का अवलंबी जन तीन ही लोक में उच्च पद पाता है ये विद्या पुरुषों के कर्मों को शुद्ध करती हुई बल आयु बुद्धिः संतति (परिवार) और संपदा को बढ़ाति है।
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[१६]
राजविद्या। _पृथक् पृथग्विधानानाभान्त्यनेक रचना जन्तूपजन्तुनां सुख दुःख तेषां कर्मानुसारेणैव देशोपरिपाटिनानुमारे णव पृथक् पृथग्धान राज्यानिच सरूपाणि स्वभावान् विविधा भाषाश्च एवमेव चाचरणं रीतिः मर्यादाश्चाह. मेव सृजामीति । नैतान्सवा-पृथग्भूता न्सहृत्यकी कर्तुकोऽपि समर्थः ।
भाषार्थ जुदी जुदी विधविध की अनेक भांति की रचना जंतु उपजंतुवों का सुख दुःख उनके कर्मा. नुसार और देश की परिपाटी के भी अनुसार जुदा जुदा धर्म जुदा जुदा राज्य जुदा जुदा म. रूप जुदा जुदा सभाव जुदी जुदी बोलीयां इसी तरह जुदि जुदि रितां मर्यादा मैने रची है इन जुदे जुदे को एक करने की सामर्थ किसी की भी नहीं है।
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राजविथा। [१७] प्रजाषु सभ्यता प्रचारः समुन्नति मार्ग च शिक्षणाया।जगद्धानि कराणि विषयाणि कार्याणि कुर्वन्ति निरोद्धब्या परंताषां स्वधर्मे ब्यवहारे प्राचीन मर्यादायांच हस्ताक्षेपो न विधेया।येन केन साम्राज्येऽधिकारेऽधिकाधिक माण्डलिका राजानः स सम्राट सुदृढतां प्राप्नोति । यत्र तत्रैव जन समूहः तस्य रक्षा न्याय हितार्थाय पृथक् पृथक्राज्य स्थापयामि तस्मान्माण्डलिकानि रा. ज्यानि पृथिवी पर्यन्तं बोभूयन्ते न क दापि नाशं जायते।
भाषार्थ प्रजाओं में सभ्यता का प्रचार और उन्नति मार्ग शिखलाना चाहिये । जगतहानि कारक कामों के करने से रोकना चाहिये परंत उनके धर्म व्य. वहार और प्राचीन मर्यादों में हात न डालना
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[ १८ ]
राजविद्या ।
चाहिये जिस साम्राज्य के अधिकार में जितने अधिक मांडलिक राजा है वह सम्राट अपनी दृढता को पाता है । जठे कठे ही जन समूह होता है उनकी रक्षा न्याय के लिये मैं जुदे जुड़े राज्य स्थापित करता हूं इस्तरह माण्डलिक राज्य पृथिवी पर्यंत होते रहेंगे और किसी काल में नाश न होंगे ।
राजा प्रजा च द्वावपि एकः स्त्री पुरुष रूपं धार्यतः ममैवात्म भागौ तौ भिन्नमूर्ति जगदुत्पत्यै । तयोर्जीवोऽपि राजा शरीरं प्रजा । ययोः शक्तिः सुम तिर्मम प्रकाश एवास्ति यो राजविद्या रूपेण ज्ञान चक्षुषा पश्येत्स निष्कंटकं राज्यं करोति पुनः लभते च परमं पदम् । राजस जीवः क्षत्रियः प्राजापालनकर्मः स प्रजानामधिपः न्याये रक्षायै शासनीयः ।
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राजविद्या। [१] सात्विक जीवो ब्रह्मः शरीरं वेद शास्त्राणि यस्मिज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं च मम प्रकाशा एव सन्ति स एव ब्रह्म जानाति स ब्राह्मणः पूज्यः मान नियश्च ।
राजस्सात्विक जीवो वैश्यः शरीरं गणित द्रब्यञ्च कृषि गो सवा वाणिज्या. नि च मम प्रकाश एवास्ति तस्मै सा सत्यधारणा मान योग्यः । तामसी जी. वः शूद्रः शरीरं सेवाकर्मः सेव मम प्रकाश एवास्ति तस्माच्छूद्र पालन योग्यः।
अनया विद्याया पराक्रम सुमतेश्च विशुद्धज्ञानं समवाप्यते तेन च शुद्ध धारणा यया सुकृतं कर्म संपादने पुरु षार्थो जायते ईदृश नैव पुरुषार्थेन शुद्ध भावनोत्पद्यते तयाच मनुष्य कोटा
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[२०]
राजविया ।
वुच्चायां क्षत्रिय जाती जीवो जन्म सं
प्राप्नोति ।
भाषार्थ
राजा प्रजा दोनू ही एक स्त्री पुरुष रूप धारे हुवे है और वह मेरे ही आत्मा के भाग है वह दोनू जुदि जुदि मूर्ती जगत की उत्पत्ती के वास्ते है उन दोनू में जीव राजा और शरीर प्रजा है और उन में बल बुद्धि मेरा ही प्रकाश है जो राज विद्या रूपी ज्ञान की आंख से देखता है वह निकंटक राज्य करता है और फेर परमपद पाता है ।
राजसी जीव क्षत्रिय और प्रजा पालन कर्म है वह प्रजावोंका मालिक है और न्याय रक्षा और राज्य करने योग्य है ।
सात्विक जीव ब्रह्म है उनका शरीर वेद शास्त्र है जिस में ज्ञान विज्ञान और आस्तिक भाव मेरा ही प्रकाश है और ब्रह्म को जानता है वही ब्राह्मण है और ब्राह्मण पूज्य और मान योग्य है ।
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महामायापनिःसर्व
शिवशतिः सर्वशक्तिमानी पेरिका मानव
शिव शाळपनिःसाब शिव सोमाधा रण-नवरान पेशपनि संकरे
शिवापानकवीरा माहेशी शिव
गीशिवपीयानाम सता सपसेपराराज्यशासनम्॥
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रामह
मरादेव
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मेशूल
क्य-नावेन स्थिति:ट्टि धाविनाशनम् बनसरुप
सजनम्
सावर
पहिमाम्॥
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जान्यास्थिति मान्याराग्यम
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राजविद्या। [२१] राजसी और सात्विक जीव वैश्य है उनका श. रीर गणित और द्रव्य है उस में खेती गो सेवा और वाणिज्य मेरा ही प्रकाश है उस में वही सत्य धारणा मान योग्य है। तामसी जीव शूद्र है उनका शरीर सवा का काम है और वही मेरा प्रकाश है इस लिये शूद्र पालने योग्य है।
इस विद्या से पराक्रम और सुमति के शुद्ध ज्ञान की प्राप्ती होती है जिस से धारणा शुद्ध होजाती है और शुद्ध धारणा से सुकृत करने में पुरुषार्थ होता है और एसे पुरुषार्थ से भावना शुद्ध होजाती है और भावना शुद्ध हो जाने से मनुष्य कोटी में उच्च कोटी क्षत्रिय जाति में जीव जन्म पाता है।
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[२२] राजविद्या।
राजविद्या। ॥ द्वितियोपदेश। मनुज शरीरमपार शक्तिभिः सृज्या मिति।
इदं मनुज शरीरं मया सर्व शक्ति मते संप्रेरिकी माययानन्त शक्तिभिः सहितमेव सृष्टम् परं काम क्रोध लोभ मोहाकारणामधिक्येनताः सर्वे शक्तयः तत्त्वेषु तत्त्व मयोभूत्वा तेष्वेव लीयन्ते तदायं मनुजः प्रसंगेन साधारण वृत्ति रवलंबते । यश्चोन्नत पदाः कााक्षण मनुज राजविद्यायाः सारः यः सर्वोपरि स्थितो योगः स संयतेन्द्रियत्वं पंचानां कामादि नाम वशीभूयः एतेरेव स्वका.
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राजविद्या ।
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[ २३ ]
योपयोगं दिव्यं शक्तिश्चानुशास्ति तत्प्रत्यक्षमवगम्यते ॥
भाषार्थ
यह मनुष्य का शरीर मुजसे सारी शक्त्यों वाली प्रेरणा करने वाली माया से अनन्त शक्तियों सहित रचा हुवा है परंतु काम क्रोध लोभ मोह अहंकारों की अधिक्ता से ये तमाम शक्तियां तत्त्वों में तत्त्वमयि होकर उन में लीन होजाती है तब ये मनुष्य जेमी संगत पाता है वेसी ही साधारण वृत्ति पकड़ लेता है । वह जो उच्च पद की इच्छा करने वाला मनुष्य राजविद्या से सार जो सर्वोपरी योग है वह इन्द्रियों को वश में रखना और पाचों काम आदि के वशीभूत न होकर और उन से काम लेता हुवा दिव्य शक्तियों का प्रत्यक्ष ज्ञान कराता है ।
मया प्रथममाकाशमुत्पन्नमाकाशाद्वायु संभवः वायोस्तेजस्ततश्चापस्तत पृथिवी समुद्भवः तेषां काम क्रोध लोभ
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[ २४ ]
राजविद्या |
मोहांकेरेः सहदानं धृतिस्तेजो शौर्यमीश्वर भावं प्राप्यते एतेषां स्वदेश मातृ भाषा भोजन वेष विवाह पुरुषार्थेः सह प्रवर्तते येषां धर्म धरा धन दारा प्राणानां संबन्धः ततः ज्ञान योग ब्यव स्थिति स्वाध्यायः न्यायाभयमार्जवं प्रेरयते तेषां समुत्साहिता चित्ते गंभीरता शक्ति सुमति पराक्रमेण सहिताश्च शुद्ध भावनाऽत्मवत्सर्वभूतेषु यः पश्यति सर्वयुपयोग्यभ्यास तत्त्व ज्ञानार्थ दशनम् । दीन रक्षास्सदाचार शरीरेन्द्रिय संयमः जितेन्द्रियत्वं मनीषव धारयते स राजा समस्ते क्षितिमण्डले ।
भाषार्थ
मुजसे पहले आकाश को उप्तन्न काया गया और आकाश से वायु: वायुः से तेज (अग्नि)
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राजविद्या। [२५] तेज से जल और जल से पृथिवी हुइ । तिन से काम क्रोध लोभ मोह अहंकार के साथ दान धृ. ति तेज शूरवीरता और माल की भाव की प्राप्ती है और इन से स्वदेश मातृ भाषा भोजन वेष विवाह और पुरुषार्थ के साथ प्रवर्त कीया जाता है जिन से धर्म धरा धन दारा और प्राणों का संबन्ध हैं । फेर ज्ञान योग मे ब्यवस्थिति अपनी ही राजविद्या का अभ्यास न्याय अभय और सरलपन से प्रेरयते (प्रेरणा कीया) जाता है तिन से उत्साह नित्त में गंभीरता बल बुद्धि के पराक्रम के साथ शुद्ध भावना और अपने माफिक सब प्राणियों में देखता है और तमाम उपयोगी अभ्यास और ज्ञान के सार को तत्त्व करके देखना। दीन (गरीब ) की रक्षा करना सदाचार शरीर इन्द्रिय वश में रखना जितेन्द्रिय पन्न मनुष्य की बुद्धि ही धारण कर शक्ति है वह राजा लम. स्त पृथिवी भर का है।
कामाद्धम संग्रहो तस्य च रक्षणं
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राजविद्या।
[२६] च दानं धर्मोपदेशः प्रयोजनम् ।
भाषाथ
काम से धर्म का संग्रह करो और धर्म की रक्षा करो और धर्म का दान धर्मोपदेश है।
क्रोडाद्धर्मेण सहः पृथिव्युपार्जनं तस्या रक्षणम् दानंचेति ।
भाषार्थ __ क्रोद्ध से धर्म के साथ पृथिवी प्राप्त करना है और उसकी रक्षा करना और दान देना बांध. वों और संबन्धीयों को।
लोभाद्धनं धर्मेण सहा संग्रहोरक्षा दानंचेति ।
भाषार्थ लोभ से धन को धर्म के साथ संग्रह करो और रक्षा करो और दान भी हो।।
मोहाद्दागणां संततः संबन्धिनांच संग्रहो रक्षा कन्या दानंचेति विवाहेन।
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राजविद्या ।
[२७]
मोह से स्त्री संतती (परिवार ) और संबन्धियों का संग्रह हो और इन की रक्षा और दान कन्यावों का विवाह करके । अहंकारात्प्राणानां योगयुक्तेन संग्रहो पथ्येन च रक्षा दानं चेति युद्धे ।
भावार्थ
अहंकारों से प्राणों का योग युक्ति संग्रह करो पश्य के साथ और रक्षा करो और युद्ध में दान प्राणों का भी हो ।
समरे शौर्यम् युद्धिविक्रमः उपयोगीषु कार्येषु यथा योग्य तेजः धृतिः परिश्रमश्च ।
भाषार्थ
लड़ाई म शूरवीरता युद्ध में पराक्रम और उपयोगी कामों में यथा योग्य तेजी धीरज और परिश्रम करना ।
दानं देशे काले सुपात्रेषु वा कन्या दानं स्वजाति विवाहेन यथा योग्येन च।
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[२८] राजविद्या।
भाषार्थ दान देश देखकर समय देखकर और सु. पात्रों को देना इसी तरह कन्या दान स्वजाति विवाह करके यथा योग से देना।
क्षत्रियेश्वर भावाकाशवदुच्च तंच त्यागात् शनै शनै भ्रसंति।
भाषार्थ क्षत्रियों का मालकी भाव आकाश समान उच्च है तिसको छोड़ने से शनैः शनैः भ्रष्ट होजाते है।
मातृभाषा परित्यागेन चिरकालेन पूर्वजैरनुभूता दिब्य शास्त्रानुभवः तेन शुद्धा धारणा क्षीयते । न्यायेऽनुभवावश्यमेव । मातृ प्राकृत भाषाऽभावेन जगत्सुदायी धर्मस्य महती क्षतिर्जायते। धर्मेनष्टे समूलंच विनश्यति ।
- भाषार्थ मातृभाषा (देश बोली) छोड़ने से बहोत काल से पूर्व पुरुषों का अनुभव (तजरुवा ) और
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राजविद्या ।
[ २६ ]
अच्छे अच्छे शास्त्रों का अनुभव और एसे अनुभव
से शुद्ध धारणा चली जाती हैं | न्याय में तजरुबा ॥ जरूरी है || मातृ प्राकृत भाषा के अभाव से जगत सुखदायी धर्म की महाँ हानि होजाती है । धर्म के नाश से समूल नाश होजाता है ||
स्वदेश शुद्ध बलिष्ट भोजन परि वर्तनेन शरीरं पुरुषार्थं विहीनं कृत्वा धरया परि त्यज्यते ||
भाषार्थ
अपणा देशी शुद्ध बलीष्ट भोजन छोड़ने से शरीर पुरुषार्थ हीन करके पृथिवी उसको छोड़ देती है ||
वीरवेषं परिवर्तनेन स्व मनोगत विचार प्रेरणा परिवर्तते तेन शुद्ध भावनाऽपि परिवर्तनेन धनक्षयः सम्पद्यते सजीवात्मा जन्मान्यपि न स्वजातेः
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[३०]
राजविद्या। परि जायते यस्मात्साजाति हस्थति ॥
भाषार्थ वीर वेषको छोड़ने से अपने मनकी गति विचार प्रेरणा फिर जाती है जिस्से शुद्ध भावना भी उलटी होजाने से धन का नाश होजाता है और शुद्ध भावना विगड ने से वह जीवात्मा अ. पनी जाति में जन्म नहीं लेशक्ति है जिस्से वा जाति घट जाती है ।
स्वजातेः विवाह परित्यागेन स्व दाराणां स्व सन्ततिश्च स्व जातेक्षति जायते वर्णशंकरश्च सम्भवमाप ॥
भाषार्थ अपणी जाति का विवाह त्यागने से अपणी स्त्रियां और सन्तति और अपणी जाति का नाश होता है और वर्णशंकर भी पैदा होते हैं ।
पुरुषार्थ परित्यागेन प्राणानां हा
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राजविद्या ।
निः सर्वस्वं च विनश्यन्ति ॥
भाषार्थ
[३१]
पुरुषार्थ के त्यागने प्राणों की हानि है और सर्वस्व नाश कर बैठता है ||
धर्मेण धरायाः स्थैर्यम् धरया च धनस्य ॥ धनेन दाराणाम् ॥ दारैश्च सं ततेः ॥ संतत्या च प्राणानां परम्परा प्राप्तौ जन्मानि स्थितिः ॥
भाषार्थ
धर्म से पृथिवी की स्थिरता है और पृथिवी से धनकी और धन से स्त्रियों की और स्त्रियों से सन्तति की और सन्तति से प्राणों की पीढी दर पीढी जन्म पाने की स्थिति ॥
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राजविद्या।
PTI
राज विद्या। ॥ तृतीयोपदेश । बल रक्षा-द्वादश बलानि ॥
पूर्णावयव सामग्री सहितं शारीरि. कात्मिकं बांधवानां सम्बन्धीनां बलम् प्रथमम् ॥ तपश्च पुरुषाथों द्वितीयम् ॥ तृतीयम् द्रव्य विद्या कोष बलम् ॥चतुर्थ धर्मवीरता बलम्॥पञ्चमं राज्य शासनं पराक्रम पुन्यञ्च ॥ बुद्धि चातुर्येण युक्ता सहःसत्यभाव ज्ञानञ्च षष्टम् ॥सप्तममस्त्र शस्त्राणामभ्यासो बलम् ॥अष्टमञ्च मित्राणां सम्बन्धीनाञ्च स्नेह प्रीति सहा. य्यम् ॥ नवमम् नित्यमभ्यासे सभ्यता वशम्वदा सैनिकम्॥समय विचारोऽर्था
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राजविद्या।
[३३] त्तस्यश्च वृथा न यापनम् दशमम् ॥ एकादशस्थान दृढता दुर्गादि बलम् ॥ इष्ट योगस्य च द्वादशमिति ॥
भाषार्थ पूर्ण अवयव ( हाथ पग आंख कानादि) सामग्री सहित शरीरिक और आत्मिक और बां. धव और सम्बन्धियों का बल पेला है ।। तप और पुरुषार्थ दूसरा बल है ।। तीसरा द्रव्य विद्या कोष (खजाना) बल है ।। चौथा धर्म और वीरता का बल है ।। पांचमा राज्य शासन ( राज्य करना) पराक्रम और पुन्य का। छटा बुद्धि चतुर्ता सहित सत्यभाव और ज्ञान ॥ सातमा अस्त्र शस्त्रों के अभ्यास का बल॥आठमा मित्र और सम्बन्धियों की स्नेह प्रीति और सहायता का बलानवमा नित्य अभ्यास पाई हुइ अपने वश में सेना का बल ।। समय में विचार करना याने वृथा न बिताना ये दशमा बल है । इग्यारमा स्थान दृढता दुर्गादि बल है । इष्टयोग बारमा बल हैं ।
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राजविद्या।
[३४] - सर्वे हितार्थाय वायुः जलयोः शु. द्धिः॥ प्रतिशरीरे मनसात्मनश्च शुद्धिः तां समीक्षयः न्याय ॥
भाषार्थ सब के हित के लिये वायुः जलकी शुद्धिः प्रति शरीर में मनसा और आत्मा की शुद्धि न्याय के समय में देखना चाहिये ।
स्थूल शरीरम्य भोजनं सात्विक नियमित साधारणं चास्ति । सुक्षमस्य सदाचारः॥
भाषार्थ
स्थूल शरीर का भोजन सात्विक नियमित और साधारण है और सूक्षम का सदाचार है ।
स्थूल शरीरस्य ब्याधयो ज्वरः कासः क्षयादि विकारश्च तथैव काम कोद्ध लोभादयः सक्षमस्य ॥
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राजविद्या।
[३५] भाषार्थ स्थूल शरीर की व्याधियां (बिमारियां) ज्वर कास क्षयादि विकार है इसी तरह काम क्रोध लोभादय सूक्षम शरीर के रोग हैं ।।
अतिशयः कामो वीर्य क्षिणोति ॥ अशक्तंच सन्तानोत्पती॥कामी पुरुषः प्रायाल्प सन्ततिर्भवात वा कन्यानामधिकं सम्भवम् ॥
भाषार्थ अति काम से वीर्य क्षीण होजाता है और सन्तान उत्पति होने से अशक्त होजाता है । कामी पुरुषः प्राय थोड़ी मन्तति वाला होता है वा कन्यावों का जन्म अधिक होता है ।
ऋतु कालो एकस्मिन्संवत्सरे द्वा. दशःअथवा त्रिषु वर्षेषु तथैव श्रेष्ट द्वादशः त्रिणि त्रिणि वसन्ते वर्षा शरादि
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राजविद्या।
[३६] चेकैक हेमन्ते ग्रीष्मे शिशिोच इत्थंचे दृश पौरुषान्वितस्य पुरुषस्य बलवती दीर्घायुश्च सन्ततेरुत्पति सम्भाव्यते ॥
भाषार्थ __ एक संवत्सर में ऋतुकाल बारे है अथवा तीन वर्ष में ही बारे हैं और तीन तीन वसन्त वर्षा और शग्दी में और एक एक हेमन्त में ग्राम में और शिशिर ऋतु में इस तरह पौरुषवान पुरुष की बलवान दीर्घायु सन्तान उत्पन्न होती है ॥ ॥ तरुण्यावस्था प्रोच्यते ॥
अति शीतले देशे पुरुषस्य पञ्च चत्वारिशत वर्षाणि यावदुत्तमतारुण्य प्रारम्भः स्त्रियाश्च त्रिशयावत् ॥ मध्यम पुरुषस्य च तारुण्यं पश्च विशात वर्षा णि स्त्रियाश्च विशति ॥ कनिष्टं तारुण्यं
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राजविद्या। [७] पुरुषस्याष्टादश वर्षाणि स्त्रियास्तु षोशः॥
भाषार्थ
अति शीतल देश में पुरुष की पेंतालीस वर्ष में उत्तम तरुण (जवान) अवस्था सरु होती है
और स्त्री की तीस वर्ष की । मध्यम पुरुष की पचीस वर्ष में और स्त्री की वीस वर्ष में ॥ कनिष्ट पुरुष की अठारे वर्षों में और स्त्री की सोले वर्षों में ।।
साधारणेच नाति शीतोष्णे देशे उत्तमं पुरुषस्य तारुण्यं पञ्चविंशति व. र्षाणि स्त्रियाश्च विंशति ॥ मध्यम पुरुपस्याष्टादशः स्त्रियास्तु षोडशः॥कनिष्ट तु पुरुषस्य षोडश वर्षाणि स्त्रियास्तु त्रयोदश।
भाषार्थ साधारण देश (न अति ठंडा न अति
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[३८]
राजविद्या ।
गर्म ) पुरुष की उत्तम तरुण अवस्था पचीस वर्ष में और स्त्री की वीस वर्षों की । मध्यम पुरुष की अठारे वर्षों में और स्त्री की सोले वर्षों में ॥ कनिष्ट पुरुष की सोले वर्षों में और स्त्री की तेरे वर्षो में !!
अत्युष्ण देशेच पुरुषस्य विंशति वर्षाणि यावदुत्तमं तारुण्यं स्त्रियास्तु षोडश वर्षाणि ॥ तदेव मध्यमं पुरुषस्य ष्टादश वर्षाणि स्त्रियास्तु चतुर्दशःकनिष्ट तत्र तारुण्यं पुरुषस्य षोडश वर्षाणि स्त्रियास्तु द्वादशः ॥
भाषाथ
अति उष्ण देश में पुरुष की बीस वर्षों में उत्तम तरुण अवस्था और स्त्री की सोले वर्षों में ।। मध्यम पुरुष की अठारे वर्षों में और स्त्री की च वदे वर्षों में || कनिष्ट पुरुष की सोले वर्षों में और स्त्री की बारे वर्षों में तरुण अवस्था आती है |
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राजविद्या ।
॥ चतुर्थोपदेश ||
बुद्धिः कर्मयोगः न्यायश्च
[ ३६ ]
ज्ञानेच्छा कृतिभिरेव स्वार्थिकी पारमार्थिक्यौ बुद्धः सम्भवः अनेकापु योनिषु मनुष्य योनि (शरीर ) माययै दृशी रचिता ययानेकजन्माभिर्निष्पा दितानि शुभाशुभानि कर्माणि मनुजो विशिष्य दुरिता बहानि सुकृता बहानि वा सुसम्पादयितुम् शक्नुयात् ॥
भाषार्थ
बुद्धि कर्मयोग और न्याय ज्ञान इच्छा और क्रियावों से स्वार्थिकी और पारमार्थिक बुद्धियों का होना सम्भव है || अनेक योनियों (शरीर ) में मनुष्य शरीर माया से एसा रचा है | जिससे अनेक जन्मों से किया हुआ शुभ अशुभ कर्म
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[४०]
राजविद्या। मनुष्य विशेष करके ठीक करसक्ता वा विगाड़ सक्ता है ये मनुष्य के आधीन (हत्यार) में है।
यदि स यत्किञ्चित्सु सम्पाद्यं दुस्सम्पायं वा कर्तुमिच्छन्नास्ति तस्य किमपि दुष्करं यथाऽसौ नरः रचार्थिक कर्मरतो भूत्वा स्व सर्वस्व विनाशयेत तथैव पारमार्थिकेषु कृत्येषु रतश्चेत स्वकीयं सर्वस्वं संसाधयेत् ॥
भाषार्थ यदि मनुष्य कुछ भी शुधारना चाहता है वा विगाड़ना चाहे तो कुछ भी मुस्किल मनुष्य के लिये नहीं है जैसे ये मनुष्य स्वार्थिक कर्मों में लगा हुवा अपना सर्वस्व विगाड़ लेता है इसी तरह पारमार्थिकामों में लगा हुआ अपणी सारी बातें शुधार लेता है ॥
मायया मनुजः स्वेच्छाचरण शी
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Saucusneha
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रनागागरिनपुरमा समकाले नाव
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अनादेना नाय जीरेन-बाधा
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राजविद्या। [४] लेव रचितः स्वार्थिक्या बुद्धया कार्य विधानेनरस्याल्पतरोलाभोल्पञ्च सुख म् ॥ संजायते मुहुर्मुहु निकृष्ट (कपूय ) योनिषु जन्मापि एवमेव पारमार्थिक्या बुद्धयाच महाँल्लाभोनन्तसुखमाण्डितश्च महयोनिषु जन्माप भवति ।।
भाषार्थ मायाने मनुष्य को अपणी इच्छा माफिक चलने वाला रचा है || स्वार्थिक बुद्धि से कार्य करने से थोड़ा लाभ थोड़ा सुख होता है और बार बार नीच योनियों जन्म लेता है इसी तरह पारमाथिक बुद्धि से महान लाभ अनन्त अखंडित सुख मिलता है और बार बार उच्च योनियों में जन्म पाता है ।
स्वभाव परिमाणेन स्थावरे जंग मेषूचनांचेषयानिषुजॉवो संजाय.
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[४२]
राजविद्या! ते ॥ बुडिकर्मानुसारिणी वर्तमाना तथैवच॥ तस्मात्कर्म शुद्धारयेत् पुरुषो हिसुविचारतः सुखंतु पुरुषार्थन ना. न्यथाचान्यकर्मणा ॥
भाषार्थ ___ स्वभाव परिमाणे चराचरमे उच्चनीच यो. नियों मे जन्म पाता है ॥ बुद्धिकर्मानुसारिणी है चाहे इस जन्म के हो चाहै पूर्वके । इस वास्ते पुरुष अपने अच्छे विचारों से कर्मों को शुद्धारे ।। सुखतो पुरुषार्थ है न और तरह से और और कर्मों से ॥
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राजविद्या |
॥ पंचमोपदेश | पुरुषार्थः
[ ४३ ]
हे पुरुष मात्याक्षी पुरुषार्थम् ॥ पुरुषार्थ कृतिममेवाज्ञाः सोममैव स्वरूपंच ॥ यस्मिन्नहंनिवशामि ॥ सोऽ प्यहमेवास्मि ॥
भाषार्थ
पुरुषः पुरुषार्थ को मत छोड़ || पुरुषार्थ करना मेरी आज्ञा है वह पुरुषार्थ मेरा ही सरूप है | जिसमें मैं निवाश करता हूं और पुरुषार्थ भी मेंही हूं ॥
पूर्वास्मिन्मनुजशरीरेण कृतस्य पुरुषार्थस्य फलेन्नस्मिँल्लोके सौख्येन लाभेनच इदानि प्राप्तेन भूयते ॥ न चैतत्केनाप्यन्यथा कर्तृशक्यते ॥ पुरु.
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[४४] राजविद्या। पार्थी वीर सुभटोस्मिल्लोके सर्वस्वं जयति स्वर्गमापि तथैवच ॥ तस्या संत. तिरपीहलोकेऽखण्डितया कीर्त्या सह सुखेन सुस्थिरया तिष्ठति ॥
पूर्व जन्म में इस मनुष्य शरीर से किये हवे पुरुषार्थ के ही फल से इस लोक मे सुख और लाभ पाता रहता है जिसको कोई और ताह नहीं करसक्ता है । पुरुषार्थी वीर सभट इस लोक मे सर्व पासक्ता है वा जीत सक्ता है और इसी तरह स्वर्ग को भी॥ और उसकी संतति भी इस लोक में अखण्ड कति ( जस ) और सुख के साथ स्थिर रहती है ॥
एतद्विद्याऽभावेन सुविचारहीना तथा तेजोसुमति पराक्रम श्रद्धा शक्ति पुरुषार्थहीना प्रदुष्यन्ति मम माया
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राजविद्या। प्रकृति भाग्यं कर्म तथा मामाप परं मनुज शरीराय न कोयहमवशेषितम् मनुष्यः मामाप वशं (स्वाधीन) कतु शक्कनोति। यदि स्वार्थ सुख मेथिल्या. म धिक्तां त्यक्त्वा शुद्ध भावेन पुरुषा थे च करोति सार्वकालं सत युगैव प्रवतते सर्वां संसाधयते॥विशुद्ध ज्ञाने न श. क्ति पुरुषार्थेन ययं चिन्तयते कामं तंतं प्राप्नोति ॥ सर्वयुपयोग्यभ्यासे परिपूर्ण योग्यता सर्वांच प्राप्यते ॥
भाषार्थ इस विद्या के अभाव से अच्छा विचार तेज आछी बुद्धि बल श्रद्धा शक्ति और पुरुषार्थ से हीन मेरी प्रकृति मायाको भाग्यको कमीको और मेरे को भी दोप लगाते हैं परन्त मनुष्य शरीर के लिये मैंने कुछ भी बाकी नहीं छोड़ा है मनुष्य
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राजविद्या। [६] मेरे को भी अपने वशकर सकता है, यदि स्वार्थ सुख ओर सेथिल्यकी अधिकता को छोड़ता हुआ शुद्ध भाव से पुरुषार्थ करता है वह सब समय सतयुग ही वर्तता है और सबको साधलेता है ॥ शुद्ध ज्ञानवाला मनुष्य शक्ति पुरुषार्थ से जो जो काम चाहता है (चिन्तवन ) करता है उनको वह हासल करलेता है । सब उपयोगी अभ्यासमें परिपूर्ण योग्यता से सब सिधियों को अपने आप पा लेता है ॥
श्रीमत्परम पवित्र सोमपाठ १ रा. ज्य सम्भवः सेवक्षत्रियाणां पदात्रिंश लक्षणाः॥
शुद्धभावेन मनुज शरीरं प्राप्यते तस्मिान्वचारशक्ति विशेषः (आधिकः) तया च शक्तेः सुमतेर्विशुद्ध ज्ञानं स. म्वाप्यते ॥
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गजविद्यः। महादेवी प्रश्न-को राज्यं शास्ति ईश्वर उवाच-शक्ति. पराक्रम सुमतिः तयोर्योगश्च ॥
पराक्रमस्य प्रयोजनं रक्षा-तस्मै समुत्साहिता तयोगश्चेदशः प्रति समयं शरीरोन्द्रिय संयम (स्वाधीनमेव) ताभ्यां बलपौरुषो ताभ्यां पथ्येन व्यायाम परिश्रमऽभ्यासंच समीक्षण तथैव वाहनामस्त्र शस्त्राणामभ्यासे प्रीति रक्षा र्थमतत्पश्चात्प्रजानां प्रत्येक जनानां प्राना स्वतंत्रता द्रव्यांचेश्वर भावेन सहः रक्षणम् उपयोगीस्थावरजगमपि तथैवच । सुमते प्रयोजन न्यायः-तस्मै समुत्साहिता तयोगश्चांपादशः स्वशुद्ध भावना ब्रह्मचय्यम् स्ववीय रक्षणम् वीर पौरुषम् धर्मम् स्वजातिमर्यादया
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राजविद्या । [४८] विवाहमेक्यम् परस्पर स्नेह प्रीति सहा.
य्यम स्वदेशमातृ भमौ प्रीतिः शुभ चित्र संगमः द्वैः प्राज्ञैः सज्जनः
सहः सभा सम्मतिः प्रीति मातृभाषास्वदेश शुद्ध भोजनम् सहवीरवेषम् प्रजानां हितमिच्छता सुखशान्त्यारो. ग्यता सम्पदा समृद्धिच सम्वद्धनम् उपयोगीचराचरमपि
भाषार्थ श्रीमत्परमपवित्र सोम पाठ १ राज्य सम्भवः राज्य के योग होना यही क्षत्रियों के ३६ छतीश लक्षण है शुद्ध भावना से मनुष्य के शरीर की प्राप्ती है तिसमें विचारशक्ति विशेष है विचारश. क्तिको चर और बुद्धि का शुद्ध ज्ञानको प्राप्तीहै ।
महादेवी प्रश्न करती है-राज्य कोन करता है
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गाशिव
निस्वधर्मज्या मर्यादा प्रबन्धरमाणम्। स्वैश्रमेव ( समुत्साहपुरुषाये जानो धर्म शरीर पारस्यानयइब्य. रबल पोउवासम्सः धनदिनचरक्षणम्। ४ पथ्येन व्यायाम
३ प्रजानांसदवारकुलपरंपरा रस ५ परिशमेऽज्यामः-४ालांघरमठ मंदिरधर्मशाला
एम. DJETETU । न्यासयॉस
पदिनस्थान मशकमणिधर्मनायो नवप्राणदिने
गरमागम्। चारनानामन्या
५ोजगारी प्रवजनपसागराकरवनौ AAधीरसाग
पानामुपयोगी पशवाथाको नामका
रपियो अमरधारा से करा! स्वामानिमाजन्नाधायाम् सूक्षण किया
याक्लयस्वदेशगुना स्वभारवेषम्सच्या ४ यूमानिएमिः
- निविजया नवना
उजाहिजाधमेश्य
सानापाय: 00 उन्नाव
में मुखान्नःस्थि । २श्वराव
चिप्रबन्धातास्थ्यम् । Vलनःमयोद
बाजल एरिनाम्या परस्परलर पीजिः
रोपजाउपाय: सहायता मिलाई ईमपयोगी-वरजाएग मदमहोरा दशमानो -EF जम्यान
। न्यायायाधारिसा नदिन
| पन्चमेरा प्रजायुतमाह संगमः पाजःपनि
संपदा नवधनम् ।। धैः मग ना जना
हानियालक्टविराज ISजाना सन्मोपकांगम्ब
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राजविद्या ।
[ ४६
ईश्वर ने कहा- बल और बुद्धि और इन दोनुका योग बल का प्रयोजन रक्षा है और रक्षा करने मे उत्साह हो रक्षा का योग इस तरह है-प्रति समय शरीर इन्द्रियों को अपने वश में रखे इसमे बल पोरुष होता है और बल पोरुष होने से परहेज के साथ कसरत करे और मेहनत का अभ्यास रखे इसी तरह वाहनों का और अस्त्र शस्त्रों के अभ्यास में प्रीति रक्षा के वास्ते रखे तिस पीछे प्रजा के शरीर प्राण स्वातंत्र और द्रव्य की रक्षा करे मालकी भाव के साथ और इसी तरह उप योगी चराचर की भी ।
अच्छी बुद्धि से प्रयोजन न्याय है और न्याय करने में उत्साह हो न्याय करने का योग इस तरह पर है - अपनी भावना शुद्ध रखे ब्रह्म याने अपने वोर्य की रक्षा रखे- पुरुषार्थ धर्म मर्याद स अपनी जाति से विवाह करे एक्यता भाव रखे आपस मे सह प्रीति और सहायता करता रहे अपनी मातृ देश भूमि से प्रीति और उसका शुभ
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[५०
राजविद्या चिंतक रहे संगत मे बुढ्ढे बुद्धिमान पण्डित और सज्जनों के साथ सभा सम्मति रखे मातृ भाषा से प्रीति रखे अपना देशी शुद्ध भोजन करे अपना देशाहीवीर वेष र ने फर प्रजा के हित चाहने वाले हो प्रजा को सुख शान्ती आरोग्यता संपदा
और धन घल्य मे पूर्ण रखे और उपयोगी स्थावा जंगमों के साथ भी न्याय वर्ते ॥
श्रीमत्परम पवित्र सोम पाठ २ राज्य स्थापनम् ॥ महादेवी प्रश्न-प्रत्येक ब्यक्तः वा सर्वेषां ब्यक्तीनांच को मुख्यो धर्मोऽस्ति ॥ ईश्वर उवाच-धर्मशा शान्ति प्रबन्धन सहिता सप्रेमणाप्रभाराज्ञा पालनीयम्॥ अहार सुख दुःखादि ज्ञानमाय (युक्त) वृक्ष वनस्पत्यायचरःचरे मनुष्य पशवः ते सर्वेऽहार सुख दुःख भयक्रोध निद्रा
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राजविद्या |
[ ५९ ]
मोह स्पर्श मैथुन प्रसूति पालनादि तीव्र ज्ञानेन सहः विचारः समानभावे नाल्पः प्रवर्त्तते परं मनुष्येष्वधिको विचार शक्ति तथैश्वर ज्ञानं भवति तच्च सुक्षमंत्रिधाः अवाधः मनोपरं केवलंच तेभ्योः परंपद प्राप्ती ॥ स्थूल ज्ञानं मतिः श्रुतिश्च ताभ्यां विज्ञानोत्साहः तस्माधर्मः धर्मेणेष्टः इष्टेन वीरता तया जि. तेन्द्रियत्वम् तया बलपोरुषों बलेन बुद्धिः ताभ्यां पुरुषार्थः तेनैव राज्यम् ॥ तत्प्रसिध राज्य यस्मिन्प्रथक मुद्रायंत्र तुला प्रमाणम् तथा पृथक् समाचार पत्रालयाः शुल्कालयाः राज्य शपथश्च ॥ एकाप्रसिध जाति ध्वजाचेति सापि रागाकृति चिन्हे स्वैः स्वैः पृथक् पृथक् ॥
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[ ५५ ]
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राजविद्या |
भष
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श्रीमत्परम पवित्र सोम पाठ २ राज्यकी स्थापना | महादेवी प्रश्न करती है - प्रत्येक व्यक्ति वा सर्वे व्यक्ती वा समस्त जातियों का धर्म क्या है । ईश्वर ने कहा- वर्म दृष्टी के साथ और शान्ति और प्रबन्ध के साथ हो वह आज्ञा अपने मालक की प्रेम के साथ मानने योग्य है अहार सुख दुःखादि ज्ञान के साथ वृक्ष वनस्पत्यादि अवर है और चरों मे मनुष्य पशू वे अहार सुख दुःख भग क्रोध निद्रा मोह मैथुन और प्रसूतेि ( बच्चे ) पालने आदि का तेज ज्ञान है और विचार मामान्य भाव से अप है परंतु मनुष्य मे विचारशक्ति अधिक ( जादा ) है जिससे ईश्वर ज्ञान भी हो जाता है वह सूक्ष्म रूप से तीन तरह का है- अवधि - मनपरे और केवल जिनसे परम पद की प्राप्ती होजाती है ॥ स्थूल ज्ञानमति और श्रुति का है जिससे विज्ञान (तर्क) की उत्साह हा जाती है और विज्ञान से
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A
पाव
विधि समर्थ
समा चार राज्य
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स्यादीम
ग्रन्थमचिर
श्यानाव
शादयेत् ॥
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प्राज
राज्यभ
पुरुषार्थ ↑
बलपराज • कम बाइ: जितेन्द्रिय वीरता
वृदावनस्प ज्यादि अवरः
उपहारसुख दुःख ज्ञानन
मुख देख निद्राजगर
महः ज्ञानमि मृष्ठि मय मैथुन
मोटप्रमुति पाल वॉट गीब्रज्ञानम्
इष्ट
धर्मः तेज: दया/हिता
विज्ञानो + माह ज्ञानम
ऋधिक
↑ विचार: → चरमनथ परावादि
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राजविद्या। । ५३] धर्म धर्म से इष्ट इष्ट से वीरता वीरता से जितेन्द्रिय पन्न इस्से बल बल से बुद्धि और बल बुद्धि इन दोनु से पुरुषार्थ कीया जाय सोही राज्य है। वह प्रसिध राज्य जब है जिसमे मुद्रा माप और तोल जुदा है और समाचार पत्रालय डाणघर और आन चलती हो और एक प्रसिध जाति वजा रंग और निशान से जुदि हो ।
श्रीमत्परम पवित्र साम पाठ ३ किमर्थ गज्यं समर्पणम्। सृष्टिरियं मया राजपु निक्षेप इव समर्पिता एनां संततं वृद्धिं कुर्यः भूभृद्भ्यः स्वप्रभुणा राज्यमे तदथ समर्पितम् यतैर्लोक हितषिभिः प्रजानु जन शालेश्च भाब्यम् नतुस्वा. त्म भोग तत्परैर्भाब्यं केवलम् ॥ राजा स्वसंतति पुत्र निविशेष प्रजां रक्षेत् प्रकृति रंजनात्राजा ॥ योनृपः स्वकर्मणा
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[२४] राजविद्या। वाधिकृतानां विपरीत कृत्यानामन लोक्येन प्रजा दुःखं समुत्यादयाति सननं निरयंयाति ॥ प्रति समयं कर्मचारिणां योग्यतां समी. क्षणीया ॥क्षत्रविद्यानुसरणत्यक्त्वा यः प्रजाग्यो धनमधिगच्छति सनिरपत्यो भूत्वाऽधोगति प्रजायते ॥ एतत्तत्वं सार ज्ञात्वा सम्यक प्रजाः पुत्र निवौरसान्पालयेत् तस्य राज्ञः राज्यं सुस्थिरंच स राजा तिष्टतेचिरम् बहुला संततिः सहः॥
মাথার্থ श्रीमत्परम पवित्र सोम पाट ३
राज्य किस लिये मिला है। ये सृष्टि मुज से राजावों में एक अमानत धरोवर की तरह सूंपी हुई है इसको हमेमा वृद्धि करते
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राजविद्या। रहैं । राजावों के लिये राज्य इस लिये संपा गया है के वे लोक हितैसी होकर रहै और प्रजा. वों को गजी रखे और उनकी वृद्धि के माफिक चलने वाला हो न की अपने ही भोगों में लगा हुवा रहै। राजा अपने पुत्र संतति से भी विशेष प्रजा की रक्षा करता रहै प्रजा को राजी रखने वाला राजा है ॥ जो राजा अपने कामों से वा कर्मचायों के विपरीत कामों से वा उनके विपरीत कामों को न देखकर प्रजा को दुःख पोचाता है वह निश्चय नर्क को जाता है। हर समय कर्मचारियों की योग्यता देखता रहे ॥ क्षात्र विद्या के अनु. सरण को छोड़ के जो प्रजा से धन लेता है वह निस्संतान होकर नीच गति को पाता है । इस तत्व के सार को जानता हुवा समस्त प्रजावों को अपने पुत्रों से विशष पालता रहै उस राजा का राज्य स्थिर बना रहता है और वह राजा बहुत काल तक बहोत संतति (परिवार ) के साथ राज्य सुख शान्ति से करता है ।
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[५]
राजविद्या। श्रीमत्परम पवित्र सोम पाठ ४ राज्य स्थैयम् ॥ सैश्वर्य क्षत्रिया वीग प्रबद्धया भामः शासने (भूमि प्रदाने नेश्वर भावेन सह ) ॥ नैश्चल्यं लभते भूपो राज्यहि स्थिरतां तथा ॥ वीर क्ष. त्रियान् भूमे रक्षकान विधायः तेभ्यो भूमि विभाग प्रदान्मेव एतेवै वाङकायः मनः प्राणधनैश्च सर्वथा स्वामि रक्षार्थ परिकर बद्धा प्रयतां नित्य यत्नमातिष्टयुः पृथक् नियतां वार्षिकी राज्य सेवा नि. यतकर प्रदानश्च दद्युः एषां याग्यता प्रति वर्ष मेकदा स्वामिना परीक्षणीया॥ धनकोषो गुप्तःप्रकाशितश्च द्वेधाविधयः तथैव सेनापि।।सैनिक सामग्री नथैवच॥ गुप्त सेना प्रायः सामन्तामेव तथा समुद्राकाश सेना पर्वत मस्तके वा समुद्र
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राजविद्या। [ ७] तटे सुदृढमेव ॥ भूचरा खेचराश्च जलचरा सेना विषमे स्थाने पाताले प्रति समयं सभ्यता बलान्विता सुदृढमेव ॥ सभ्य दुर्ग सेना तथैवच ॥क्षालयाणां भूप्राप्ति फलंतु सर्वेषु तत्त्वेषु प्रभूत्वमेवच स्वाधिकार एव ॥ कस्याचिद्राज्यस्याधिकारे बहुना क्षत्रियाणां स्वामित्वं तस्य समग्रस्य राजस्य भूमा तस्य रा. जस्य स्थिरतामखण्डितां करोति ॥ ईदृश राजविद्या शिक्षिता क्षत्रियाणां प्रभुत्वानि तस्य राज्यस्य मूलानि शाखा प्रभवन्ति यावन्ति तावन्त्येव राज्य स्थिरतां सहतु भूतानि चैवतानि यूनानि भवन्ति स्थैर्य विनाशकानि च जायन्ते ॥ एकाकी केवलो राजा वेतन परिग्रहीत
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[[28]
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राजवियाँ।
सेनाभिः कर्हिचित्सम्यग्रासं प्राप्य राज्यात सते || बहु सामन्ताश्च भू. म्याधिपतयः राजा स्वस्थिरतां दृढं करोति ॥ मूलानि तथा वृक्षस्येक संवन्धेन वृक्षस्यस्थिति ||
सम्राट रूप वृक्षः सः पुलान्याश्रुत् स्थितः तस्य प्रधान मुलानि बलपक्षे महाराजानैव तथैव बुद्धिः पक्ष वृधा क्षत्रिया जगदनुभावुका ब्राह्मणा वैश्या वा पश्चात्स्थूलतम वलपक्षे सामन्ता ( महाराव ) तथैव बुद्धिः पक्ष बुद्धा क्षत्रिया राजविद्या पांण्डता वा ब्राह्मणा वैश्यावा तत्पश्चात्स्थूलतर बलपक्षे रा. जान (राव) तथैव बुद्धिः पक्षे प्राजा स्वार्थाधिकता सुनिस्पृहः ॥ बलपक्षे स्थल मुलांनि ग्रामाधि पतयः तथैव
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.
V
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राजविद्या। [५६ ] बुधि पक्षे स्वामीनः शुभचिन्तका क्षत्रि. या ब्राह्मणा वैश्या वा राजविद्या ज्ञाता॥ सूक्षम सूलानि भूम्याधपतयः' बलपक्षे नथैव बुद्धि पक्षे सर्वोपरी परिज्ञाता भत्रिया ब्राह्मणा वैश्या वा॥ मूलान्यध संवन्धेनाधस्य स्थितिः ॥ निबन्धेन प्रत्येक्ष विनाशः वृक्षाणां मूलप भमि ददाति नीरं शुद्धा रस परंत न्य येन ददाति पावकः तेन त मूलानि प्रदहन्ति वृक्षश्च विनश्यति ॥ केवलो वेतन परिगृहीत सेना रूपेण मूलानि स्यकदापि पृथिवी तलान्नीर शुद्धारसं नाकृषान्त तेषां मुलान्याप्यो ई सजायन्ते न चागाधः स्थितम् ते सर्वे वेतन संज्ञकनीरम् ॥ शुद्धा रस मिच्छन्ति राजभ्या परेभ्यश्च न तु स्व.
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राजविद्या।
Pamme
यमाकृष्णक्तुं शक्नुवन्ते अक्षय वट वृक्षस्य मूलानि वृक्षस्य स्थितिरास्ति तथैव शाखा तेषां मूलान्यपि राजरूप वृक्ष सुदृढ करोति एवमेवाधिक शाखाऽ धिक दारढयम् ईदृशं वृक्षं न वायुकोपविचालतुं शक्नोति तथैव वीर सुभट क्षत्रियेभ्यःभूमि विभाग प्रदानम् राज्य सुस्थिर दृढं करोति न कोपि हर्तु शक्नोति ॥ कश्चिद्राज्यस्य सर्वे भूमि काञ्चन कल्प लतैवास्तरणमेवानन्त रत्नमयी सवि. स्तरेण प्रसरति तमपर सेना नायकाः राजविद्याऽभावेन तेषां स्वभावेन हर्त मिच्छन्ति यदि तद्भूम्युत्तमास्तरणं बहु सामन्नानामधिनत्वेन स्वामी भावेन सहः नास्ति । बहुनि सामन्तानां भू.
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जविवा।
म्याधिपतिनांतले दृढ़ स्थितां न कोपि हनु मिच्छति न च हर्तुं शक्नोति न्यून तराधिकारं हतु शक्नोति इच्छात हसात पृथिवी सर्व भोगश्वर्य प्रदायानमाक्रमण करोति तथैवाधिकाधिक बल बुद्धयाधे. कार दृष्ट्वा प्रतिगच्छन्ति । बलेन रक्षा बुद्धःप्रयोजनं न्याय । रक्षा न्यायं पश्येत संततम् स राजा मनोई भिलखितं फल प्राप्यते याद सथिल्यं करोति कल्प वृक्षस्य फलान्य पशाप प्राप्यन्ते वृक्षछेर्तुमपि शक्नुवन्ने ।
भापार्थ श्रीमत्परम पवित्र सोम पाठ १
राज्य की स्थिरता । बालकी भाव के साथ वीर क्षत्रिय भुमि के साथ बन्धे हुवे याने भूमि देकर राजा अपने जागीर.
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[६२] राजविद्या। दार बना रखे इस तरह का शासन करने वाला राजा निश्चलता को पाता है और उसका राज्य स्थिर होजाता है। वीर क्षत्रियों को भूमि के रक्षक मकरिर करके याने अपने जागीरदार बना के भूमि का विभाग दे और वे वाणि शरीर और मन से प्राण और धन के साथ सब तरह से अपने स्वामी की रक्षा के लिये हमेसा यत्न के साथ कमर बान्धे हुवे तयार रहें और पुरिर की हुई वार्षिक राज्य सेवा और कर देते रहैं ।। इनकी योग्यता प्रति वर्ष में एकवार मालिक से देखी जानी चाहिये ॥ धन का खजाना गुप्त और प्रकाश दो तरह मे हो इसी तरह सेना भी और एसे ही सेना सामग्री ।। गुप्त सेना अखसर सा. मन्तों की हो तथा समुद्र आकाश सेना पर्वत के मस्तक मे वा समुद्र के तटपर दृढ रखे ॥ पृथिवी पर चलने वाली सेना आकाश जल में चलने वाली सेना विषम स्थान में पाताल में प्रति समय अभ्यास पाई हुई और बलवान हर रहे इसी
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KARE
। वृधामनया जगरन नामाबानाएका बरावयास्त्र विद्यापरिगजानना
ma वेणा प्राज्ञा-स्वाथा
तासनस्पत स्वामीन एनचिनकाजालसा । रानियावागावेश्यावा मांधा
वृक्षस्य सपनोल वृक्षस्यास्य ललमो -
अपार सरदासलान्यास स्थिन:: प्रधानानि महाजनल रस्यूनतम सामन्जा (महारान) रमतर राजानः (राव) मान गामायिनया क्षम मानिसस्याधिपजय सानया
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राजविया। तरह शिक्षित सभ्य दुर्ग सेना ॥ क्षत्रियों को भूमि दान से मतलब उस भूमि के सारे तत्वों पर मालकी हो याने वहां के सब तत्व उनके अधिकार में हो ॥ जिस किसी राजा के अधिकार में बोहत से क्षत्रिय मालकी भाव के साथ होने से उस राज्य की समस्त भूमि में गज्य की स्थिरता को अखण्ड करती है । इस तरह राजविद्या के शिक्षित क्ष. त्रियों का मालकी भाव उस राज्य की जड़ों
और शाखां जब तक स्थिर रहती है तब तक राज्य भी स्थिर रहता है और जब ये शाखा जहां जितनी कम होती है उतनी ही स्थिरता की हानियें है। राजा सिरफ नोकर सेना ही से कभी समय के फेर में आजाता है और राज्य से भ्रष्ट होजाता है । बोत सामन्त और जागीरदारों से राजा की स्थिरता को दृढ करता है । सिर्फ नो. कर फोज रूप जड़ें अपने आप पृथिवी तल से नीर शुद्धारस न खेंच सकती हैं उनकी जड़ें भी
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[ ६४ ]
राजविधा !
उपर को जाती है ऊंडी नहीं जाती वे सब तनषा
नाक जल शुद्ध रत चाहती है राजा या दुसरे से अपने आप नहीं खींच सकती है जड़े तथा वृक्ष का एक सम्बन्ध वृक्ष की स्थिति है ।
सम्राट रूप वृक्ष जड़ों के आ है उसकी बड़ी जाडी जाडी जड़ें बल पक्ष में महाराजा है इसी तरह बुद्धि पक्ष में बुढे क्षत्रियां जगत के तजरुचे कार ब्राह्मण तथा वैश्या फेर उनके बाद जाडी जड़े वल पक्ष में सामन्ता है इसी तरह बुद्धि पक्ष में बुद्धिमान क्षत्रिया राजविद्या के पण्डित ब्राह्मण तथा वैश्या उनके बाद की जाडी जड़ें बलपक्ष में राजा याने राव इसी तरह बुद्धि पक्ष में प्राज्ञा स्वार्थ की अधिकता से निस्पृह ( इच्छा न करने वाले ) फेर स्थूल जड़ें बल पक्ष में ग्रामाधिपतयः ( ठाकर ) इसी तरह बुद्धि पक्ष में अपने मालिक का शुभचिंतक क्षत्रिया ब्राह्मण वा वैश्य राजविद्या के जानने वाले फेर सूक्षम जड़े ( पतली पतली जड़ें ) भूम्याधिपतयः बल पक्ष में इसी तरह बुद्धि
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जान्यासबन्धेनारिया
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पान
चिनभ्याना निनवान मुजानिपत
परंजल्यान रह रानीपारस यायामलेपचम
निस्सनाधिनाया
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लहानशालाघापरलय लनसममा "
जिन्नार गुहारमनोरुमानी गयी परलोयामाई मेयमान कवलालनपाईमरीनसेना स्पेण स्वयंकराय या
सम्राटप हा
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मायबर शस्य मूलानि बास्यास्थाजेरान येव शामाजमा धनान्यपिराज
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परमासस्टकराव ममा कशाला करारट्यम्
दशन माग
Wusnesine
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गधेदवार उनट क्षत्रियेन्यः नाम दिमाग पदराजम ज्यवास्थर र रोगी
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राणिक्यभन्न रजमयी मेलोगेन्दर्य पदायिनि मास्तर सापकणिनियमानुसाराधिकदानिमाणामधिकार नकाचि मिन्छनि
न्यूननधिकार प्राधिकी टुमिच्छति
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अपानियासमामादिदा पनि गलन्जि.
प्रल्पाधिकारशामराकरोज
5401003200000
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राजविद्या ।
[३५]
पक्ष में सर्वोपरी विद्या परिज्ञाता क्षत्रिय ब्राह्मण तथा वैश्या है | इन जड़ें और वृक्ष के आधे संबन्ध से आधे वृक्ष की स्थिति है और बिलकुल संबन्ध नहीं रहने से प्रतेक्ष नाश है ।। वृक्षों की जड़ों में भूमि जल शुद्ध रस देती है परन्त अन्याय से जड़ों में अभि देती है जिससे जड़ें जल जाती है और वृक्ष नाश होजाता है || अक्षय बट वृक्ष की जड़े वृक्ष की स्थिति है इसी तरह उनकी शाखों की जड़ों भी वृक्ष को मजबूत कर देती है इसी तरह अधिक शाखा अधिक मजबूत करती है ऐसे वृक्ष को वायू कोप विचाल नहीं सकता है इस तरह वीर सुभट क्षत्रियों के लिये भूमि का भाग देना (जमीन देना ) राज्य को सुस्थिर दृढ करता है उस राज्य को कोई
नहीं हर सकता ।
किसी राज्य की सब भूमि एक कंचन की कल्प लता को तरह पथरना की तरह अनन्त रल सहित विस्तार सहित बिछा हुवा है जिसको
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[६६]
राजविद्या। दूसरे सेना नायक राजविद्या अभाव से सभाव से रहने की इच्छा करते है यदि वह भूमि उत्तम पथरना बोहत सामन्तों (वीर क्षत्रियों) के अधिन में गालकी भाव के माथ न हो और जो बोहत सामन्तों मृभ्याधिपतयों के नीचे दृढ कोये हुवे को कोई हरने की इच्छा न करता है न हर स. कते हैं थोड़ा के अधिकार में ले सकते हैं पृथिवी सब भोग एश्वर्य की देने वाली को आक्रमण करते है इसी तरह अधिकाधिक के अधिकार को देखकर पीछे जाते हैं। बल से रक्षा बुद्धि से प्रयोजन न्याय है। रक्षा न्याय को हमेशा देखता रहे वह राजा मन्छाफल को पाता है और रक्षा न्याय में ढीलापल करता है तो कल्प वृक्ष के फल को पराये ( दुसरे) हर लेते है और वृक्ष को काट भी डालते है ।
श्रीमत्परम पवित्र सोम पाठ ५ समीप वर्ग वा सत्संगति येभ्यः मंत्री सेनापतिः राज्यदूत ॥ समीप वर्तिनां
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WAY 2014
:
Det AR32112922
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राजविद्या।
ह
सम्मति दातणां च गुणाः अधीत व्य. वहारज्ञम् जगदनुभावुकः स्वाथानस्पृहः दूरदीःशुचिःन्याय सत्यरत कुलीनः घेर्यम् धीमान् शुभाचारः प्रवीण दक्षः राज हितरता निज स्वामिनः शुभ चि. न्तकः अभ्यांग राहतः प्राज्ञ पराचतोपलक्षकः वीरास्त्र शस्त्र गजविद्याभ्यासे परिपूणः यावच्छक्य सर्व कर्मचारयेक देशस्थमेव वा स्वदशान वा शीभवितुमहति नतु देशहिताऽनुभव रहिताः ।। इदानि सुसंगत्या संपादित सुकृत वर्तमान सुखं सहाय्य संपाद्य तत्वृद्धयित्वा च तषां भाविनां सुखानामुञ्च यानांच जन्मनोहेतुः सुकृत प्रायः सुसंगत्या जायते ।। सर्वेषु पुरुषषु सर्वगुणाऽसंभवः वा दुर्लभः महतमेषु श्रष्ट तमेष्वाप के
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[ ६८ ]
राजविद्या ।
नचिदोषोऽवश्यं भूयते अतः सति स्वल्पेपराधे विधेया उपेक्षा सति च तस्य शोभनकृत्य प्रसादः कार्यः एवं विधं वर्त्तनं शुद्धचितष्वेव विधेयं नतु शटेषु वञ्चकेषु धूर्तेषु असत्यवादिषु च एवं विधास्तु दूरतो हि परिहरणीयाः याक्ते षामाचरण शुद्धतरं स्फुटं परिक्षायां नावगम्यते । एते सर्वेक विंशतिगुणाः न्यूनाधिकेक विंशति पुरुषेषुतो प्राप्तु शक्नोति । सेव राज्ञां सत्संगति ॥
भाषार्थ
श्रीमत्परम पवित्र सोम पाठ ५
पास रहने वाले और सत्संगति जिनमें से मंत्री सेनापति और राजदूत || पास रहने वाले और सलाह देनेवालों के गुण-वे जगत के व्यवहार को जानन वाले हो । जगत का उनको तजरुवा हो ।
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स्वाथा न हा ॥ दूर साचन वाल हा पूर हा) पावत्र हो । न्याय और सत्य में जिनकी रति हो । कुलीन हो || धीरज वान हो || बुद्धि मान हो || शुद्ध चलन के हो जिन के आचरण अच्छे हो !! प्रवीण हो । चातुर हो ॥ राज के हित में जिनकी रति हो । अपने मालिक का शुभ चिंतक हो और जिनकी जगत सिकायत न करते हों । पण्डित हो । परायेके चित की बातको लख ले ताहो || वीर हो || अस्त्र शस्त्र और राज विद्या के अभ्यास में परिपूर्ण हो ॥ जहांतक हो सब कर्मचारी एकदेश (स्वदेश।) हो । नकी देश हित के अनुभव से रहित || इन अच्छी संगतियों से सुकृत बनता है वह वर्तमान सुख को सहायता कर के उसको बदाकर के आनंदे सुखों के लिये उच्च योनियों में जन्म होने का कारण होता है सुकृत जादे करके अच्छी संगती से होता है | सब में सब गुण होना असंभव है वा दुर्लभ है बड़े स बड़ों में और अच्छे से अच्छों मेभी कोइ कोइ
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दोष अवश्य ही होता है इसवास्तै थोड़े अपराद्ध पर देखा न देखा (आंखटाली) करना चाहिये और अच्छे करने पर प्रसन होना चाहिये और एमा वर्ताव शुद्ध चितवालों के माथरखे नके शट ठग धूर्त और झूटों के साथ मे और एमे ठग झुटों को दर ही रखना चाहिये जबतक उनके आचरण साफ तौर से परीक्षा के साथ शुद्ध न हो जाये ।। ये मब इकीस गुण कम जादा इकोस पुरुषोमे तो होवे ही । सोही राजावों की सत्सङ्गति है ।
श्रीमत्परम पवित्र सोम पाठ ६ राज्यांगानि प्रोच्यते राज्यशासन स्याटावंगान्यज समनसि चिंतयेत् ॥ प्रत्येकांगाधिकृतेन राज्ञो मंत्रिणा भाव्यम् तेच प्रत्येकांगाधिकृता सचिव प्रधान मंत्रिणोऽधस्तात् कार्य विदधीरन् । १ प्रतिदिनं सभ्यता बलान्विता साम•
न्ता वशवदा सेनावेतन परिगृहीत
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www. kobatirth.org राजावद्याा
[७१]
तथैवच
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~-INDORE
२ धर्मेण सहाय सधनोपायः ३ आय व्यय समीक्षणम् ॥ ४ प्रजा सुविविध विद्यानां प्रचारः ध.
मोपदेश प्रवन्धः॥ शिल्पौषधालय चिकित्सालय शरीर व्यच्छेदालयानाथालय वायः जल
शुद्धिः पुर स्वच्छतादि प्रजाकार्याः॥ ६न्यायः मर्यादाश्च ॥ ७ अपर नृपैः सहकार्याःतथा स्वराज्यो मिाश्रितानां वृतान्तानां पर राष्ट्रषच परेषांवृतान्तानां गुप्त पुरुषणवा चारः परिज्ञानम् ॥ ८ पुन्य धर्म ईश्वराराधनमुपाशनम् विप्राणामधिकारे भूम्यायःतथा रक्षा न्याय प्रबन्धः सर्वे शासनकायोणि
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[७२]
राजावचा क्षत्रियाधीनत्वेन क्रयते तथैव गणितश्च लेखक कार्याणि वैश्य हस्ते ॥ प्रचर्यात्मक कार्माणि शूद्राधिकारे॥
মাথ श्रीमत्परम पवित्र सोम पाठ ६ राज्य के अग कहे जाते हैं। राज्य शासन करने के आठ अंगो को ध्यान में रखने चाहिये । प्रत्येक अंग का अधिकृत्य ( स्वामी) राज का मंत्री हो और तमाम प्रधान मंत्री के अधिकार में कार्य करते रहैं ॥ १ प्रतिदिने सभ्य (शिक्षिता) बलवान सामन्तों
की सेना अपने वश में हो ॥ और इसी तरह नोकर फोजों की सेना भी । २ धर्म के साथ पेदास का उपाव ३ जमा खरच देखता रहै ४ प्रजावों में तरह तरह की विद्यावों का प्रचार
और धर्म प्रचार
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राज्य शासनम
शिन्यौषधालय , चिकिरालय शरी
पालय वायापाल
मालयः मागि
m/MAMAAR रसमलामहम्पसा
महायता मालामाल माया विकारमेन की
नापान
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जानकार
गनिनिवरी
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१
/धमत्यराराम नमपाशनम हवा निधन
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राजविद्या।
[७३] ५ शिल्प औषधालय (सफाखाना) चिकित्सालय चीराफाड़े का घर अनाथ आश्रम वायु जल की शुद्धी और पुरस्वच्छता आदि प्रजा के कायः ६ न्याय मर्यादा ७ दुसरे राजावों के साथ कार्यः तथा अपने राज्य के भिन्न भिन्न वृतान्तों का दुसरे राजावों में
और दुसरों के वृतान्तों को गुप्त वेष पुरुषों करके जान्ता रहै ॥ ८ पुन्य धर्म ईश्वर आगधना ।। ये कार्य ब्राह्मणों के अधिकार में हो पृथिवी की पेदाश तथा रक्षा न्याय के प्रबन्ध और सब हुकम के कार्य मर्वे क्षत्रिय अफमरों के आधीन में हो इसी तरह गणित लेखा कार्य वैश्य के हात में हो।
और सेवा याने नीचि नोकरीये शुद्रों के अ. धिकार में हो ।।
श्रीमत्परम पवित्र सोम पाठ ७ प्रातिदिने सभ्यता शिक्षिता बलान्विता
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[७४]
राजविद्या। सामन्तानां वशंवदा सेना वेतन परि. गृहीत तथैवच ।। सेना च परराष्ट्रयोः रक्षायै रक्षाधिकृत पुरुषाणां सहाय्यर्थ च साम्राज्य रक्षायैः संग्रह्या ॥ साप्रति दिन सभ्यता बलान्वितावश्य मेव ॥ प्रत्येक स्वबलं वा सर्वेषां स्वेषां बान्धवानां संवन्धीनां स्वे स्व सेना बलं न कदापि न्यूनं कुर्यात् येषां सर्वेषमाहि राज्यम् । समस्त वेतन परिगृहीत सेना वीर कुलीन धीमान क्षत्रिय समीक्षासु परीक्षता हस्ते दद्यात् ॥ क्षत्रियाणां मान प्रतिष्टा स्थिरतायै तेभ्यः पृथक न्यायलयश्च दण्ड सग्रहः न तु मिश्रित सर्व साधारण प्रजानुसारणव परिवर्तते॥ यदि क्षत्रियापि सर्व साधारण प्रजानु. सारणव परिवर्तयन्ति प्रथम तेषां धर्म
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मानस्य महति क्षतिर्जायते द्वितियं च तेषां वीरता महोत्साहनाशजायले विना वीरता न राज्य स्थितिः ततियं तेषां जात्यभिमान होनं जायते तेन च तेशप साधारण वर्तिमवलबते तेन तद्राज्ञः बल विनश्यति ॥ सर्वे क्षत्रियाणां योग्यता प्रति समये समीक्षणाया॥ तेषां योग्यतानुसारेण भूमि पतित्वमवश्यं प्रदान मेव ।। अयं परं सारगुपरी राज्यस्य स्थिरतां दृढ करोति ।। तन परिगृहीत सेना केवला चिकालायोगमाः पर महत प्रयोजनाय चिरकालाय ईश्वर भावेन मानेन सह भूमि प्रदानम् तथैव दायविभागयोग्यतानुसारेण दातव्यम्।।
भापार्थ श्रीमत्परम पवित्र सोम पाठ ७
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[७६] राजविद्या। प्रति दिन शिक्षिता सभ्यता बलवान सामन्तों की अपने वश में सेना इसी तरह नोकर सेना ।। सेना पुर और राज्य की रक्षा के लिये हो और रक्षाधिकृत पुरुषों ( रखवाल ) की सहायता के लिये हो और साम्राज्य की रक्षा के लिये हो । वा हमेसा शिक्षिता सभ्यता और बलवान अवश्य हो । प्रत्येक को अपना बल वा अपने समस्त बान्धवों का संबन्धीयों का और अपनी अपनी सेनाबल न कभी भी कम करना चाहिये इन सबों के आश्रे ही राज्य है ॥ समस्त वेतन ( नोकर) सेना वीर कुलीन बुद्धिमान क्षत्रिय पास शुद्धा की देख भाल मे उसके हात में हो। क्षत्रियों की मान प्रतिष्टा स्थिरता के लिये उनके लिये जुदा न्यायालय और दण्ड संग्रह हो न के मिले हुवे सर्व साधारण प्रजा के साथ वर्ते जाय और जो क्षत्रिय भी सर्व साधारण प्रजाके माफिक वर्तेजाय तो प्रथम उनके धर्म और मान की बड़ी हानि होती है दुसरा उन की वीरता और मनोत्साह का
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राजविद्या।
[७७] नाश हो जाता है और विना वीरता राज्य कीस्थि. ति नहींहै तीरा इसतरह वर्तनेसे उनका जाति
अभिमान हीन होजाताहै जिससे वेभी साधारण वर्ती को पकड़ लेते हैं जिस्ले उस राजाका बलनाश होजाताहै ॥ समस्त क्षत्रियों को योग्यता हर समय देखनी चाहिये ! उनकी योग्यता के अनु. सार पृथिवी पर मालकी देनी चाहिये । ये परम सार उपरी राज्य की स्थिरता को द्रढ करताहै ॥ नोकर सेना थोड़े काल के लिये उपयोगी है परंत बड़े प्रयोजन के लिये और बाहत काल के लिये मालकी भाव के साथ और मान इजतके साथ पृथिवी नाहै इसी तरह दाय विभाग (भाइ बंट और दुसरा हक का बंट) उनकी योग्यता नुसार देना चाहिय ॥
श्रीमत्परम पवित्र सोम पाठ ८ धर्मेण सहाय साधनोपायः सेव राज्ञः नव निधयः पृथिवो जलादिभिः परि.
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[ ७८ ]
राजविद्या ।
श्रमेण सपादशत लाभः प्राप्यते ॥ कृषा धान पत्र प्रकाण्ड शाक तूलं वीज फल पुष्पादि विंशति ॥ वनेन पुष्प मूलौषधी वल्कलादि विंशति ॥ वृक्ष वनस्पत्यादि प्राप्तौ काष्ट फल पुष्प निर्यास मधून्यादि विंशति ॥ आकरजेनाष्ट विंशति ॥ पशवादिभिः सप्तस्त्रिशत्धा ॥ करश्चपट त्रिंशत्या ॥ पृथिव्य पतेजादि समेत यंत्र कला कौशलम् ॥ विविध भाजना निवस्त्वादिच निर्माणम् ॥ पृथिवी वाय्वाकाशादिभिः विविधानि विमाना न्याकाश गामीन्यस्त्राणिच ॥ कालोहि महाँ धननिधिः यदि सवृधान याप्येत ॥ दिग्भ्यो यथेष्ट संचार लाभः ॥ स्वात्मानं स्वार्थेन स्वल्प सुखार्थेन तुच्छी न कि येत ॥ परमार्थतः सा परम पवित्र महा
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स्वा
निराश प्रजनराये जा
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रिक्षा यायः रक्षा न्यायस्वराज्यम् ध
शिपाया
न्यायपास मारा
महापा
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नगमाधम प्रायभानामरोगेसाधारणपञजलर निशानामाश्य
स्वधर्मराजस्थान रामराया
स्वधर्मेरात स्थिति
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जनप
मेरा
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॥
राजा राज्य कार्य मार्ग पूर्णाकुमा नगरका कुरा समेतान् वाशीघ्र शशका
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म
धनागार
जापरिश्रममाणनादसम
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विविधवस्त्राम
124 20201
राम
मुक्ति
या
नाममा राह
स
समृ
माझे मुका
कुस
या
जिल्ला प्राति ॥
Fema
परमनगरा तानेन स्वगिन गुना चाकानित स्वस्याः। मन्त्रमा राज्यशास्त्री सहाजिर।
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राजविद्या। [७६ ] न्सर्वोत्तमश्च मन्यते ॥ मन्सोत्साहः संवर्द्धयः तैस्परमोलाभः ॥ एते नवान. धयः॥नवकोषा-अन्न वस्त्र मणिमुक्ता. द भण्डार धनं तैल घृत रसादि तृणा गार विविध वस्तव शस्त्रास्त्र युद्ध सामग्रय ॥ राजविद्योपशेन स्वार्थ नैराश्यमश्रद्धां चाप्य पौरुषं परित्यजते ॥ सर्व स्वं जयाति ॥ विना प्रजाहितार्थ रक्षा न्याय प्रजाभ्यः धनमुपार्जनं निस्संतानं भूत्वा निर्ययान्ति दुर्घटनमाप्नोति आयुश्वाल्प।
भाषार्थ
॥ श्री मत्परम पवित्र सोम पाठ ८ ॥ धर्म के साथ पेदाश करने के उपाव वहीं राजा के नव खजानें है ॥ पृथिवी जलादि से परिश्रम करने से सवासो लाभ प्राप्त होते हैं । खेती से
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[८०]
राजविद्या। धान पत्ता (पान) डांकला शाग रूइ बीज फल पुष्पादि बीस लाभ है। वन से पुष्प जड़ औषधी छाल आदि बीस ॥ वृक्ष बनस्पति आदि से प्राप्त होये हुरे लकडी फल फूल गूंद सेहत आदि बीस लाभ है खान से २८ अठाइस है पशू आदि से सेंतीस लाभ है | और लाग बहाग छतीत है। पृथिवी जल तेजादि से यंत्र कला कौशलम् तरह २ के विमान और आकाश में चलने वाले अस्त्राः॥ समय (वक्त) ही बड़ा भारी खजाना है जो वह वृथा में बिताया जाय ।। दिशावों से चाहे जिधर चलने का लाभ || अपणी आत्मा का स्वार्थ और अल्प मुख से तुच्छ (छोटीन करना चाहिये ॥ परमार्थ सेवा परम पवित्र बडी सबसे उत्तम मानी गई है ।। मनको उत्माह को बड़ाना चाहिये तिससे वह परम लाभ है । येही नव खजानें है ।। नव कोष-अन्न कोष-वस्त्र-मणि मुकतादि-भण्डार धन-तेल घृत रसादि तृणागारविविध वस्तव शस्त्रास्त्र युद्ध सामग्रीयः ॥ राज
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१०
राजविद्या । [१] विद्या के उपदेश से स्वार्थ को निराश को अश्रद्धा को और अपुरुषार्थ को छोड़ना चाहिये वह सब को जीत लेता है।
श्रीमत्परम पवित्र सोम पाठ ९ आय व्यय समीक्षणम् ॥ आय व्ययो प्रक्षणीयः आयद्वया यथा संभव: नाधिकः कर्तव्य प्रति समयेऽल्पाथवाऽ धिकं सुसुख संग्रह्यम् ॥ अल्पारि रक्षणम् ॥ आस्मञ्जगात तिस्त्रो गतयों भवन्ति वित्तस्य ॥ दानमुत्तम श्रेष्टगति सैव लभतेऽखण्डं प्रकाशमानं कीरतिः सुखमब्ययम्। मध्यमम् भोगः तृतियम् धोगात नाशः ॥ स्वार्थ ठुख भोगेश्वर्याधिक्तायुसं क्षतिजयते यतः प्रकृति नियमः पुर्व प्रारब्ध सचित कर्मानुसार शरीरं न्यूनाधिक
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राजविद्या ।
सुख दुःख भोगेण सहः प्रप्यन्ते ॥ एतान् शीघ्रं शीघ्रं चाधिकाधिक भूक्त्वा तथा संचय न कृत्वाच शरीरं निश्शेषान्मृ त्युं प्राप्नोति ॥ दीर्घायुः कांक्षिताजना एतान् शीघ्रमभूक्त्वा न समापयति परं सचयं करोति अवश्यं दीर्घायुर्भवति ॥ यावन्ति संचित कमाणि चावशिष्टानि सचितानि च वद्धन्ते तावन्ति शरीरा युःसुधि वज्रयति ॥ इदं मनुष्य एवहि कर्तुं शक्नोति मनुष्याधीन भवेतत् ॥ न शीघ्रं भूक्त्वा न समापयेत् स योग प्रोच्यते तस्यायुर्वर्ष संख्या बहुनि वर्षा णि वर्द्धते ॥ पथ्याशनेन संयमेन निय मेन च योगाभ्यासेनानन्त सिद्धिर्युक्तं शरीरमम्रतां प्राप्नोति ॥ एतेवैशस्य यो योगिनश्च हस्ते भवेताम् ||
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राजविद्य ।
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[ ८३]
भाषार्थ
श्रीमत्परम पवित्र सोम पाठ ९
जमा खरच देखना चाहिये | जमा और खरच दोन देखना चाहिये || जमाते खर जहां तक संभव हो जादा नहीं || हर समय थोड़ा वा जादे सुख के साथ संग्रह करना चाहिये | थोडेसे घणे की रक्षा करनी चाहिये || इस जगत में धन की तीन गति होती है दान उत्तम श्रेष्ठ गति है जिससे अखण्ड प्रकाश मान यश (कीर्ति) और हमेश का सुख मिलता है । मध्यम गति भोग है | और नीच गति नाश है || स्वार्थ सुख भोंग की अधिकता आयुम को क्षय करती है । प्रकृति ( कुदरत ) नियम से पूर्व प्रारब्ध संचित्कर्मानु सार शरीर कम जादे सुख दुःख भोग के साथ पाता है | इन स्वार्थ सुख भोगों को जलदी जलदी अधिक अधिक भोगता हुवा और संचय न करता हुवा शरीर बाकी न रहता हुवा मोत ही को पालता है || दीर्घायु बड़ी उमर की इच्छा
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[८४]
राजविद्या। करने वाला जल्दी जल्दी न भुगत कर समाप्त नहीं करता है | परत् संचय करता है वह अवश्य दीर्घायु (बड़ी उमर) होता है । जबतक संचित कर्म बाकी रहते हैं और संचय बढ. ता है जबतक शरीर की आयुस की अवधी बढती है | ये मनुष्य ही कर सकता है और मनुष्य के ही आधिन है। न तो जलदी सुगत. ता है और न समाप्त करता है वह योगी है । उसकी आयुस के वर्षों की संख्या बड़ जाती है । पथ्य से अपणा आपा हात मे रखने से नियम से और योगा भ्यास से अनन्त सिधि सहित शरीर अमरता को पाता है ये वैश्य और यागी के हात मे है ॥
श्रीमत्परम पवित्र सोम पाठ १० शिल्पषिधालय चिकित्सालय शरीर व्यच्छेदालयानाथालय वायुः जलशुद्धि पुर स्वच्छतादि प्रजा कार्याणि ॥ यद्रा
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राजविद्या। [८५] ज्याय दशांशं प्रजाहिताथम् । तेन शिल्पविद्या प्रचारानाथालयोषधालय चिकित्सालय शरीर ब्यच्छेदालय वायु जल शुद्धि पुरस्वच्छतादि तथाऽन्ध परवनाथ बालका विधवा स्त्रीणां तथा स्वपाषऽसमथानांच पोषणम् पशु चि कित्सादि परमावश्य कार्या प्रतिष्ठापनम्॥न्यायालयाद्यांधकरणानां वादीनां शुल्क शालादि राज्यायालयानांच स्थापनम् ॥ प्रजानामवश्यक कार्यानुसारे चितम्॥यद्वस्तुनःस्थिरतावश्यकः तया काङक्षिता चेतर्हि सा स्थैर्य मूलेवस्या॥ यंत्रकला कार्याणि वर्णशंकर शूद्रयोहस्ते परं समीक्षा सुपरीक्षित ब्राह्मणाय स्वामी प्रकारण (भावेन) प्रदद्यात् ॥
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A
[८६J राजविद्या।
শায়খ श्रीमत्परम पवित्र सोम पाठ १० शिल्प औषधालय चिकित्सालय शरीर ब्यच्छेदा. लय अनाथालय वायुः जलशुद्धि पुर स्वच्छतादि प्रजा के काम ।। राज्य की पैदाइश जिसका दशवा हिस्सा प्रजाहित के लिए मुफर्रिर हो जिस्से शिल्प विद्या का प्रचार हो अनाथालय औषधा लय (सफाखाना ) चिकित्सालय वायु जल की शुद्धि और पुर स्वच्छता ( सेहर सफाई) आंधी पांगला अनाथ बालकों विश्वास्त्रियों की तथा अपणा पोषण करने के असमर्थ हो उनके पोषण के लिये और पशु चिकित्सादि परम अवश्य काम स्थापित हो || न्यायालया अधिकरणों की वादीयों की सायरात के मकानादि राज्य के मकान स्थापित करें ।। प्रजा कार्यों के अनुसार आवश्यक्ता मुजिब स्थापित करना उचित है। जिस वस्तु (चीज ) की स्थिरता (पायदारी अवश्य है वह पायदार हो यंत्र कला के काम वर्णशंकर शूद्र
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राजविधा। [८७] के हाथ में हो परंत् उसकी देखभाल अच्छे पास शुदा ब्राह्मण के हाथ में दी जाय ॥
श्रीमत्पाम पवित्र सोम पाठ ११ प्रजासु विविध विद्यानां प्रचारः धर्म प्रचारश्च तथैवच ॥ प्रजा सुशिक्षायतुं सर्वत्राने केषाविद्यालयानां प्रतिष्ठापनम् तत्सहायकरणे तद्वराच ताभ्यो विविध विद्या विज्ञान शिक्षा प्रदान च राज्ञा परमो धर्मः प्रजानां दुःख शमने यथा संभवं प्रयातितव्यम् ॥ धर्मोपदेशका योग्या पाण्डता सर्वत्र स्थापयेत वेतन परि गृहीत वान्यथा तेषां रुच्यानुसार भोजन प्रवन्धेत मह नियोक्तव्याः धर्म प्रचारार्थम् ॥ जितान्द्रयत्वं व्यायाम परिश्रमऽभयास एवमेवास्त्र शस्त्राणामभ्यास स्वरक्षार्थ सर्वेषां जातिनामाधि.
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कारोस्ति ॥ परिपक्क वीर्ये पुष्टे तरुणे विवाह तथैवच॥ सदाचार शुद्धाधा णा तैश्च जगति सुख शान्ति स्थिरतार्थ जगडितार्थ मनुज संतति प्रथम शिक्ष णिया॥सार वा सर्वोपरी विद्योपदेश परारंभ शिक्षा परमोधर्मः ॥
भाषार्थ श्रीमत्परम पवित्र मोम पाठ ११ प्रजावों में तरह तरह भांति भांति की विद्यावों का प्रचार और इसी तरह धर्म प्रचार भी हो प्रजावां में शिक्षा करने के लिये सब जगह अनेक पाठशालायें स्थापित करना और उनके द्वारा सब तरह की विद्यायें विज्ञान शिक्षा दिलाई जाना राजावों का परम धर्म है | प्रजावां के दुःख दूर करने में जहां तक संभव हो यत्न कर। चाहिये। धर्मोपदेशक याग्य पण्डित सब तरह की जगह वेतन ( तनखा) पर वा उनकी रुचि अनुसार
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राजविद्या । [८] भाजन के प्रबन्ध के साथ मुकरिर हो धर्म प्रचा. र के लिये ॥ जितेन्द्रि स्पन्न कसरत मेहनत मे अभ्यास इसीतरह अस्त्र शस्त्रों का अभ्यास अप. नी रक्षा के लिये सब जातियों का है। इसी तरह जब वीर्य पकजाय पुष्टतरुण अवस्था में विवाह हो ॥ सदाचार शुद्ध धारणा तिरसे जगत मे सुख शान्ति की स्थिती के लिय जगत हित के लिये ये मनुष्य संतति ( परिवार ) को पहले शिखलानी चाहिये ॥ सार शिक्षा वा सर्वोपरी विद्योपदेश सरुमे देना परम धर्म है ।
श्रीमत्परम पवित्र सोम पाठ १२ न्याय मर्यादा प्रबन्धः ॥ स्वकीय रक्षाधिकारस्तु सर्वषामास्ति तेषां दोषो न पश्यते ॥ धर्म विधायकस्य सहायता संपादकापि धार्मिमक एवज्ञयः तथैवा धर्मविधायकस्य पक्षपात्य धार्मिक एव॥ मनसामात्मना शुद्धतां समीक्षणम् वा
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राजविधा।
परिज्ञान न्याये ॥ अज्ञानेकृते वा ज्ञेषु बालकेषु भादकद्रव्यमत्तषु उन्मादत्सु नाधिक दोषामन्यते॥ समृधि विनश्य त्यनयात् ॥ एको विवाह श्रेयः यदि धमाधिकारास्ति द्वितिय तृतिय चतुर्थमपि तेनाधिकोनाधिकारः तरुणे चिरकाले वियोग वा स्त्रिपुरुषवाक्षतिजात नियोग वा पुनर्विवाहो'स्वजात्या रुंच्यानुसारा धिकारः॥सम्यगालाच्या प्रचारिताऽ ज्ञा ध्रुवा मयांदा निरुच्यत यथाप्रजासु सुखशान्ति:स्थितिश्च प्रबन्धानांस्थैर्यम् स्थितेमूलम् ॥ यदिसुखशान्तिः किमाथा वैकल्प मापते तर्हितामाज्ञां कृत्स्नशोभा गतावा विपरि वर्तयेत् पश्चान्मन्वंतरामु सार सौनतनाऽऽज्ञा तद्विपरि वर्तनम् पापजागोचरं विधयम् ॥ राज्यशासन
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राजविद्या
कार्यामालोचितुं समयो नियमयितव्यः॥ यदि कस्यश्चिनूतनाज्ञाया स्वप्रजा सुप्र. चाल तस्य तस्याश्चत्प्राचीन पद्धत्यानि रसनस्य तत्पाश्वतनस्य वावश्यकता समामते तदात्रविधेयम् एतत्परिणामो. माय १ मत्मजासु २ स्वसाम्राज्ये ३अ. परराष्ट्रषु यत्पजास ५ सर्वसाधारण प्रजासु । प्राप्तपुनरपि इहवसर कांहक भविष्यात ६कश्चिदपशवा यथर्वकुयों
हि मधरोचेत् ॥ प्रजानां साधारण न्यायो वा कार्याःप्रजातु नियति भूता नामेव पंचानां जनाना हस्तगतो भक्तुि महति ॥
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श्री मत्परम पवित्र सोम पाठ १२ न्यायायांदाप्रबन्ध ॥ अपणी रक्षा का अधिकार सब
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राजविद्या। को है जिससे दोष न देखा जाय॥धार्मिकका सहायक भी धार्मिक ही समजा जाय ॥ इसी तरह अधामिक का पक्ष पाति अधार्मिक ही है। मनसा और
आत्मा की शुद्धि देखना ओर जानना चाहीये न्याय के समय मे ॥ अज्ञान्तासे कीया हुवा वा अज्ञान से कीया हुवा अज्ञान बालकमे वा नशे की हालतमे वा उन्माद हालत मे कीया हुवा अधिक दोष न मानाजाता है ॥ अन्याय से संपदका नाश होता है । एक ही विवाह श्रष्ट है जो धर्म का अधिकार हैं तो दुसरा तीसरा और चाया भी ।। इस्से जादा अधिकार नहीहै। तरुण अवस्था मे बहुकाल से वियोग होजाने से वा स्त्री पुरुष का क्षय होजानसे नियोग वा पुनर्विवाह अपनी जातिमे रुचिके अनुसार अधिकार है ।। अच्छी तरह से वी. चार के साथ जांच की हुइ प्रचलित राजाज्ञा हमेश के लिये मर्यादा कहीजाति है जिस्म प्रजावों में सुख शान्ति संपत्ति बनीरहे । सुख संपदा ही स्थिरता कामूल है ।। जो सुख शान्ति आदि मे किसी तरह
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राजविद्या।
[६३]
का फरक पड़ता हो तो उस आज्ञा को थोड़ी वा साब फेर देनी चाहिये। पीछ मन्वन्तर के अनुसार वा नइ आजा का प्रचार प्रजा को विदित कर देना चाहिए ॥ साधारण राज कार्य करने के लिये समय मुकारर होना चाहिये । जब कभी कोई नई आज्ञा अपणी प्रजावों में चलाइ जाय
और प्राचीन चलती हुइ को फेर दीजाय वा पलट ने की आवश्यक्ता हो तो इतनी बातों पर ध्यान देना चाहिये कि इसका असर मुजपर क्या पड़ता है १ मेरी प्रजावों पर क्या असर होगा २ अपणे उपरी राज्य में क्या असर होगा ३ दुसरे राजावों श्री प्रजा में क्या असर पड़ता है ४ सर्व साधारण प्रजावों में क्या असर होगा फेर एसा काम पड़ने में किस तरह होगा ५ जो कोइ दुसरा एसा करे तो मुजको कैसा मालूम होगा । प्रजादों का साधारण न्याय वा काम प्रजावों में से मुरिर किये हुवे पत्रों के ही हात भे होना चाइये ।।
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राजविद्या।
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[१४]
श्रीमत्परम पवित्र सोम पाठ १३ सीमाप्रान्ताऽपापः सहः कार्याः तथा स्वराज्यो मिश्रितानां वृतान्तानांच पर राष्ट्रेषु च परेषां वृतान्तानां गुप्तपुरुषः वा चारः पारिज्ञानम् ॥ सप्रेमणा धर्मेण न्यायेनच परिशुद्धभावन कार्या विधेयम् ॥ उद्धरेदात्मनाऽऽत्मानम् ॥ प्राचीनानि स्वाभाविकानि उपयोगिनी च वस्तुनि रक्षेत् ॥ परस्पर सम्मति जगद्धितार्थम् ॥ कृते प्रत्युपकारो विधेयो दीनानां जनानां गवाञ्च परिरक्षणमपि। विद्या तत्कार्ययो भर्जनाद्भगण स्व प्रमणा प्रसादं याचेल तेनमियो वैर द्वेष द्विधा परि समापयेत् । धर्मकार्येषु पर. स्पर सहाय्यता स्व प्राण पर्यन्तमपि तथाऽधर्मकार्य किञ्चिदपि न विधेयम् ॥
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राजापथा ।
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स्ववृधि वलयोर्भेदः परेषु जनेषु न प्रकाशयेत् ॥ देवानां ऋषिणां वा सर्व सा धारणां जलाकाश पाताल वा पदादि पंथाः वाणिज्यंचैक राज्य प्रजानामपर राज्य प्रजाभ्यो निरुद्धो न भवेत् ॥ कस्याप्येकस्य राजा सहायतां न दद्यात् किन्तु यत्र तयोपराधी तदेशस्य राज्ञायाचितो तस्मै
राजस्यापराधिनमपर
समीत ॥
भाषार्थ
श्रीमत्परम पवित्र सोम पाठ १३
सीमापरे दुसरे राजावों के साथ कार्य तथा अपने राज्य के मिश्रित वृतान्तों का हाल दुसरे राज्य के वृतान्तों का हाल यस वेष पुरुषों से जानता रहे || प्रेम धर्म और न्याय के साथ और शुद्ध भावना से कार्यों को करे || आत्मा से आत्मा उच्च रखे || प्राचीन स्वाभाविक और उपयोगी
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[६६]
राजविद्या। वस्तुवों की रक्षा रखे ॥ आपस में जगद्धित के लिये सम्मति (सलाह) करे ॥ उपकार का पीछा उपकार करे ॥ दीन जन और गौवों की रक्षा करे ॥ अविद्या और अविद्या के कार्यों को नाश करने वाले संकर भगवान मालिक से प्रसाद (मेहर ) मागे जिस्से आपस का वैर विरोद्ध दिद्धा समाप्त हो ॥ धर्म कार्यों में आपस की सहायता प्राणों तक करनी चाहिये। और अधर्म का काम कुछ भी न करना चाहिये। अपणे बुद्धि बलका भेद दुसरों में प्रकाश न करे ॥ देव ऋषि वा सर्व साधारणों के जल आकाश पाताल और भूमि पर के मार्गों को विणज (ब्योपार) एक राज का प्रजाका दुसरे राज्य की प्रजा के साथ न रोके ॥ किसी एक राजके अपराधी को दुसरा राजा सहायता नदेपरन्त जहां का अपराधी हो उस देश के राजा के मांगने पर उसके हवाले कर दे ॥
श्रीमत्परम पवित्र सोम पाठ १४ पुण्य धर्मेश्वराराधनमुपाशनम् । सर्व
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4
.
राजविद्या
[१७] भूतस्थं ममैवात्म प्रकाश: सर्व शक्ति मत्या योग मायया सर्व शक्त्योर्यः जगत्प्रसृतम् ॥ सर्वत्र विश्वरूपं ममेव माया पश्यन्ते सर्वेषां भूतानां पृथक पृथक स्थितिमक्यं भावेन पश्यति ॥ तदेव सर्व विस्तृत जगञ्चराचरम् ॥ दया विनाहिं राजा स्तथा कोमलता विना। धार्मिका शास्त्रहीनाश्च मता लोके नि. रर्थकाः सुपात्रे जगद्धिताथै दान पुण्यं विधयम्॥मिथ्याति तृष्णा जगति दुःखं प्राप्य तेषां सर्वस्वं च विलक्ष्यन्ति ॥पारमार्थिक्या बुद्धया सभ्यताः संयमत्वम वश्यमेवः॥प्रजा वृत्तान्तं श्रणुयात् तेन ज्ञानं संवाप्यते ॥ ज्ञानमेव महाँप्रवलं बलम् ॥ राजानाति प्रबलो दण्डोपि दातव्या ॥ मनुष्य जातिषु या जातयः
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[१८]
राजविद्या। बुभुक्षिताः वा दरिद्रा भवेयुः तज्जातिया जनान् यथोचितेषु कार्येषु मा निध
ओत येन तेषां पालनं निवाहस्युः तेन पाप कार्याणि तेनानुतिष्टयः धर्मः ॥ क्षत्रिय शरीराय स्व राजविद्यायां श्रद्धा पुरुषार्थ ममैवाराधन सुपाशनं सर्वम् । यदिश्रयः परिबाज पण्डित हस्त ।।
भाषार्थ श्रीमत्परम पवित्र सोल पाठ १४ पुण्य धर्म है धर की आराधना उपाशना समस्त प्राणियों म भरी ही आत्मा का प्रकाश है ॥ सर्व शक्तिमयि योग माया से दोनु सर्व शक्तयों से जो जगत विस्तृत है सब जगह विश्वरूप में ही माया सब में देखी जाती है समस्त प्राणियों की जुदि जुदि स्थिति को मनुष्य की बुद्धि ही देखती है उससे ये सब चराचर विस्तृत है। विना दया कोमलता के राजा और धार्मिक (धर्मोप
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राजविद्या
[६६ ।
देशक) शास्त्र से हीन जगत में निरर्थक (निकम्मे) है । इस तत्त्व को जान्ता हुवा दान पुण्य करना चाहिये । सुपात्र को जगत हित के लिये दान पुण्य करे ।। अति तृष्णा जगत में मिथ्या है वे लोग अति तृष्णा वाले दुःख पाते हुवे अपना सर्वस्त्र को नाश करलेते है । परमार्थिक बुद्धि से सभ्यता और संयम ( अपने आपे को अपने वश में रखना अवश्य है ।। प्रजा के हाल को सुनना चाहिये इससे ज्ञान की प्राप्ती होती है। ज्ञान ही महा प्रबल बल है ।। राजा को अति प्रबल दण्ड न देना चाहिये ।। मनुष्य जातियों में भूखी जा. तियां व दरिद्री होजाय उन मनुष्यों को राजा यथाचित कामा में लगादे जिससे उनका पालन विवाह होता है तिससे वे पाप कर्मों में न प्रवरी होवे सोही धर्म है । क्षत्रिय शरीर के लिये अप. नी राजविद्या में श्रद्धा पुरुषार्थ मेरी ही आराधना उपासना सब ही है । ये कार्य सन्यासी पण्डित के हात में हो ॥
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। १००]
राजविद्या। श्रीमत्परम पवित्र सोम पाठ १५ राज्ञां धनं मानं धर्मों ध्वजश्च ॥राज्ञाः धनं मानश्च वीर सुभटानां पण्डितानां परोपकारिणां गाणनां च सत्कारार्थ मेव पुनश्च दीन जनानां तथैव स्व पोषेऽस: मर्थानां परिपालनार्थ प्रजाहितार्थ धर्मार्थ च ॥ सत्यानां पारमार्थिकोपयोगीनां च विषयाणांग्रहणमेव लोभकार्यो नान्यत्र॥ मानाहेभ्यो भूपोयच्छेत यथार्थ मान मुत्तमम् ॥ यदि कश्चित्परुष उपालंभ योग्य पुरुषाक्षर भर्तसनीयो वा भवेत॥ तदोच्च पदाधिकारिणा महा पुरुषेण च तद्रहास वक्तब्यम् ॥ याद मध्यमोपि मानाहः स्यान्ताहि सोपिमान पात्रेषु ज्ञात्वा तस्मै मानः प्रदेव एवं तददाने चेष्ट धर्माप्तराङमुखःसंपयेत् तत्प्रतिका
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राजावधा।
। १०१ । रश्च सर्व जन समर्माक्षं इष्ट देवतायै यथा पराधं दण्ड विनिमयो बलीविधियः ॥ ध्वज लक्षणमाह-पुरुषण सत्य सघन भाव्यम् ॥ स्व प्रतिज्ञा धर्मेण निर्वाहा॥ दानमभ्यमाजेवं दमश्चाहाराातक्ता दया भूतेष्वचापलम्मार्दवम् ॥ धर्म तत्परता सुपात्रे दाने समुत्साहिता होरदोहो सत्यं शार्य धृतिःत्यागस्तेज तपः शान्तिरपैशुनम् ॥ स्वार्थत्यागो. त्साहः क्षगाऽक्रोधः पारमाथिक् बुद्धि
नि योग व्यवस्थितिः परोपकारः स्व दश सेवाऽहिंसा निरपराधीयेच दाक्ष स्वयमश्विर भावश्चनाति मानिता ध्वज लक्षणम् ॥
'मापार्थ श्रीमत्परम पवित्र सोम पाठ १५
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[ १०२] राजविद्य। राजा का धन मान धर्म और उच्चपन्न ॥ राजा का धन और मान वीर सुभटों के लिये पण्डितों के लिये परोपकारियों के लिये और मुणियों के लिये इन चारों के सत्कार के लिये है फेर दीन जनों (गरीब आदमी) के लिय इसी तरह ज अपणा पोषण ( पालन ) करने से असमर्थ हैं उनके लिय प्रजाहित लिये और धर्म कार्यों के लिये है ।। सत्य पारमार्थिक और उपयोगी कामों के करने में लाभ न हो और जगह ॥ मान योग्य जनों का गज। यथाय यथोचित उत्तम मान दे ॥ यदि कोइ उच्चपद वाला ओल बा देन योग्य वा जादा बुरा बतलाने योग्य हो तो बड़ आदमी को एकान्त में कहना चाहिये ॥ जोकोई मध्य दर्जे का पुरुष भी मान योग्य हो उसको भी मान पात्रों में जान मान देना चाहिये । इस तरह मान न देने से इष्ट से बेमुख होता है जिा सका उपाय सब के सामने इष्ट देव को जेस पराध हो बल दे कृच्छ चढावे ॥ ध्वज लक्षण
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राजविद्या )
[ १०३ ]
यह है उत्तम जनको अपणी बात का सच्चा होना चाहिये || अपणी प्रतिज्ञा ( कोल) धर्म के साथ निबाहना | दान || अभय ( डरना ) नहीं शर्ल स्वभाव || इन्द्रियों अपनें बश में दबाइ खना अहार के सिवाय प्राणियों पर दया रखना। (भूखा होतो आहार के सिवाय वृथा न मारना) वापलतान रखना || नरमी रखना || धर्मने तत्पर ( तैयार ) रहना || सुपात्र को दान देनेमें उत्साह रखना !! लज्जा | द्रोह न रखना || सच्चा शूरवीर होना धीरज रखना || बुरे नीच कामों का त्याग करना || अच्छे पारमार्थिक कामों में तेजी रखना ॥ मेहनत के साथ काम करना शान्ति रखना । कुटिलता न रखना | स्वार्थ के त्याग करन में ( छोड़ने में ) उत्साह रखना || क्षमा रखना || क्रोध न करना । पारमार्थिक वृद्धि रखना || ज्ञान योग्य में स्थिति रखना || परोप कार करना || अपने देश की सेवा करना (सच्चा देश भक्त होना || निरपरधि का (हिंसा ( मारना
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वा दुःख देना) न करना ॥ सज्जनों से चतुरता सीखना । अपने आपे में मालकी भाव रखना। अति मानवाला वा अति अभीमानी न होना यही धज (ऊचपन) के लक्षण है !!
श्रीमत्परम पवित्र सोम पाठ १५ राज्य धुरम् ॥ भूपतिः सर्व राज्य धुरं स्वयं न प्रियात परं पारमार्थिकेषु वि. श्वस्तेषु शुभाचारेषु प्रशस्त गुणेषु प्राज्ञेषु पण्डितषु सुकुलेषु धर्मात्मषु कार्यज्ञ समीक्षकारिध्वनु भविष न्याय सत्परतेषु निजस्वामिन शुभाचिन्तकेष्व भियोग रहितेमुच मंत्रिषु यथावत्पविभजेत् ॥ प्रजोचितेषु कार्यषु गृण्हीयात्सम्मात. विशाम्॥ यथा संभवः यथा योग्यं कार्य विधेयम् ॥ याथा तथ्येन यथा योग्य युक्तेन विधयम् । प्रजाभ्यः साधारण
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राजविद्या। । १०५। न्यायो वा कार्याः प्रजासु नियति भूतानामेव पंचानां जनानां हस्तगतो भवितुमर्हति ॥ प्रजानां शुद्ध भावना शुद्धाधारणा विकृति विरोधि कार्येषु वा विपरोत् कृत्येषु जगद्धानि करेषु विषयेषु हस्ताक्षेपो राज्याधिकारोस्ति । यतोऽ नयोः सम्यक्शुद्धि सर्वाभ्यः प्रजाभ्य' सुख शान्ति प्रदास्तः वैपरीत्यचास्याः प्रजाभ्यो दुःख प्रदानिरोद्धया। वृद्धानुभवी मंत्री सर्व राज गुह्यं ज्ञाता न कदापि पृथक् कुर्याद परं स्वकीयमेव विधयाकर्मचारिमधिकाभियोग युक्तं युक्तेन पृथक् कुर्यात् न त्वीदशं राज कार्ये नियुञ्जीत ॥
মাদাখ श्रीमत्परम पवित्र मोम पाठ १६
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राजावद्या ।
[ ९८५ राज्य भार ( राज्य कार्याणी ) राजा सब राज्य का भार अपने ही ऊपर न ले पात् पारमार्थिक विश्वास पात्र शुभ आचरण वाले दिव्य गुणवाले शुद्ध विचारव.न पंण्डित कुलवान धर्मात्मा काम को जानने वाले काम को संभालने वाले तजरुबे कार न्याय और सत्य में जिनकी राति हो और अपणे मालिक के शुभ चिन्तक हो और जिनकी सिकायत न हो सलाहकार हो ऐसा में मुआसिम तौर से राज्य कार्यों के भार को बांट द | प्रजब के उचित कार्यों में प्रजाकी भी सम्मति ले ॥ मुमकिन हो जैसा योग्य हो कार्य को देना चाहिये ।। जैसा चाहिये उसी तरह किया जाय ॥ प्रजावों के साधारण न्याय और साधारण काम प्रजा में सही अच्छे बड़े २ पांचों के हात में होने यग्य है ॥ प्रजावों की शुद्ध धारणा शुद्ध भावना को बिगाड़ने के कामों में वा उसे कामों में इसी तरह जगत् हानिकारक काम में हस्ता. क्षेप ( दस्तंदाजी) करना राज्य को आधिकार
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(राजविद्या) [१०७ ] है इन दोनों की शुद्धि (शुद्धभावना और शुद्ध धारणा) ब प्रजावों को सुख शान्ति देने वाली
और इसे उलटी चाल प्रजाव. दुःख देने के कार्य है। बुढा तरुबेकार मंत्री राज्य की तमाम गुप्त बातों ( भेदों ) को जानता हो एलेको अलग न करना चाहिये पन्तू उनको अपना कीये हुवे रखना चाहि ये और सिकायत वाले कर्मचारियों को युक्तिसे जुदा करना चाहिये ऐसा को राज्य कार्य में न रखें।
श्रीमत्परम पवित्र सोम पाठ १७ दान पारीतोषिक वितरणम्॥राजा वा महान पुरुपोवा नाति मुक्तहरोनाति कृपणश्चभवेयुः सह प्रश्न्यत्वमा दार्य च प्रजारजन खलु नुप त्रभ्यः पारितो षिक वितरण न राज्ञो गौरबम् वद्धते व
औपनिकन पारितोषिकंमद्रादेः मान स्थ भम्याश्चभवति ॥ साधारण निधने भ्यस्तद्वितरणं महायकरणं यथावस्त्रं १
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( राजविद्या )
[ १०८
स्तुपशवः अन्यच्च यच्छरीरोपयोगी वि शेषकार्येषु मानस्य भूम्यादेश्व वितरण विशेषतः श्रेयः वरिक्षात्रेयाणां भूम्या दे भिः समाननं येन राज्यस्य बलप्रतिष्ठा च सुदृढस्थैर्यम् । वरिक्षत्रियाणां यशो धनः । कुपात्रदाना द्भवेद्दरिद्रः ॥ परं स पात्रेषु पुण्यमार्गेषु च भवत्प्रभुर्धना चन्द्र तारकम् सः भवति देवः स्वगजयति ली लयाच ॥ द्रव्यानामर्थानां त्यागेव हि सुफचे महालाभः ॥ घनविनश्यति लो भलिप्सया ॥ सहासिकै लक्ष्मी जयति तथव राजविद्याया भूमिः शीघ्रम् ॥
॥ भाषाय ||
श्रीमत्परमपवित्र सोमपाठ १७ दान इनाम बांटना ।। राजा और बड़े बड़े आदमी ( धनाढ्य ) नबिल कुलही खुले हात (घनको बेतरह से उड़ाना ) न अति लालची हो || प्रबन्ध के साथ उदार चित्त
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__ राजविद्या। [१०६ ] हो ॥ निश्चय करके सुपात्र को दान ( इनाम ) दना प्रजाका काम और राजाका गौरव बढाता है इनाम रूपेका और मान भूमि का है ॥ साधारण निर्धनों की सहायता करना कपड़ा कोई जरूरी चीज और पशू देकर के और कोई भी चीज शरी र के काम की हो देना चाहिये । और विशष कार्यों के लिये पृथ्विी का दान श्रेष्ठ है वीर क्षत्रि योंको भूमि देकर सम्मान कीया जाता है जिस्से राज्य का बल और प्रतिष्ठा अच्छि दृढ और स्थिर ता को पाता है । वीर क्षत्रियों के लिये यश ही धन है ।। कुपात्र को दान देने से दरीद्री हो जाता है। परंतू सुपात्रों को और पुण्य मागो में देने से चंद्र और तारों की स्थिति तक धन का धणी होता रहता है और वह देवता हो जाता है
और स्वग को भी खेल को तरह जात लेता है दृव्य और धन का द न देना ही अच्छा फल और बड़ा लाभ है ।। धन अति लोभ में पड़ने से नाश हामाता है ॥ सहासी ( पुरुषार्थि) लक्षों को
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[ ११० ]
राजविद्या ।
जीत लेता है इसी तरह राजविद्या से तुरंत ही पृथिवी को जीत लेता है ॥ श्रीमत्परमपवित्र सोम पाठ १८ च.र गुप्तगूढवेषपुरुषाः रक्षाधिक त पुरुषाः पायदलाश्च ॥ गूढ गुप्तवेष पु. रुषाः विश्वस्तचार चक्षुषा राजा ताभ्यां सर्वे वृतान्तमवलोकयेत् ॥ किंचित्का लाय राजाप्रजा वृत्तान्तं श्रणुयात् ॥ राष्ट्र पुरेषु ग्रामेषु वा रक्षाधिक्कृत् पुरुषा अधिकारिणः यदा तयो वा कार्य. प्रवाणा कार्यज्ञा सत्यवानाविधेयाः यदि तेषा मल्पमपि दुष्कर्म हग्गाचरं वा प्रजा दुःखीवेद्वा किंचिदपि दुराचरण ह पथ निपतत्तर्द्धितेऽवश्य दण्डनिया:अ यन्था त स्वयमन्यायपथे प्रवर्तेरन् ॥ प्रत्येकस्मिन्कार्ये राज्ञा समीक्षणा कर
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राजविद्या [१११] णीया कार्यकुशलाः पुरुषाः सर्वे वृत्ता न्तं राज्ञ निवेदयेयुः सुपरीक्षिता राजा ज्ञा एव देश प्रबन्धः नियमः प्रोच्यते तेन च समीचीनेन भाव्यम् यतःप्रजा जनाः सुखिनोभवेयुः प्रजासु सौख्य स्थितिरेव राज्यनियमप्रयोजनमस्ति ॥
भाषाथे
श्रीमत्परम पवित्र सोम पाठ १८ छाने गुप्तवेश रहकर जगत के वृत्तान्त ( हाल ) की खबर देनेवाले पुरुष रक्षाकरने वाले पुरुष और पायदला ॥ प्रजावों में फिरकर गुप्तवेष पुरुष प्रजावोंका हाल जानकर राजा का खबर देने वाले पुरुष राजा की आंखें है जिनसे राजा सब हाल को देखतार है कुच्छ काल तक राजा प्रजा का हाल सुनता रहै ।। राज्यमें शहरों में गांवोंम रक्षा करनेवाले पुरुष काम में प्रवीण काम को जानने वाले और सत्यवादी मुकरिर हो और जो
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[ ११२] राजविद्या उनका कोई भी उलटा काम मालूम हो जाय जिनसे प्रजा दुःखी हो व उनका कोइ भी दुराचार नजर आजाय तो उनको अवश्य दण्ड देना चाहिये ।। एलान करने से वे खुद भी अन्याय करने लगजाय हरेक ऐसे कामों में राजा की देख भाल होनी चाहिये । कार्यकुशल पुरुष सब वृतान्त राजा को वाकिफ करते रहैं ।। अच्छी तरह से जांच की हुइ राज्य की आज्ञायें ही प्रबन्ध और नियम है और ये नियम अच्छी तरह से जाने हुव हो जिन से प्रजा के लोकों को सुख हो ॥ प्रजावों में सुख की स्थि. तिही राजाके नियमों ( कायदे कानून )का मतलब है।
श्रीमत्परम पावत्र सोम पाठ १९ राज्ञामयोग्यता धर्मविद्यांग वीरता हनिः कुष्टी क्रूरकर्माधर्मपालका प्रजारक्ष णेऽसमर्थाऽन्यायकारी वीरक्षत्रियेभ्यो राजावेद्या ज्ञातृभ्यः भूमिहता तेभ्यश्चा
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राजविधा। [११३] दाता न सिंहासनयोग्यः॥राजाविद्यया बलबाद्धः जयास्तत्वं त्यागेन राज्य तथा साजात्यपि जात्यन्तरानु प्रवेशेन समूल मुन्मूल्यतेच पतन्तिनरकेऽशुचौ॥निरा शत्वं शास्त्रश्रद्धाविहीनत्वं क्षत्रियाणांम हाननथंद चिन्हम् राज्यां च्चातलक्षणं निश्यपातचिन्हंच विज्ञेयम् ॥ बल बुद्धि मयादेनप्राप्तो राज्यतान्नपश्यतिप्रणश्य न्ति ॥ बिषादनमालस्य परिवादो व्यस नस्त्रियोमदः मृगयाति सहः द्यूतं तथा दिवास्वप्नं वागदण्डमर्थदूषणम् ॥ दान मयोग्यम् योग्य मदानम् ॥ असयत्वं कृघ्नता विश्वास घाततांच दरत्परिवर्ज येत्॥ राज्ञामप्रबन्धन प्रजापरिश्रमेणोपा बिताद्रव्यं दुष्ट दुरुपयोगीराज्यकर्मचा रयः तथा तेषासम्बन्धयः वा अपर दुष्ट
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(राजविद्या (
[ ११४] जना दीन प्रजाजनान्हसन्ति कोषागा रादपिद्रव्यं दुरुपयोगकुर्वन्ते दीनप्रजा विलापयन्ति शापयन्ति तत्प्रभावन राजाऽचिरेणाल्पायुः भूत्वा राज्याभ्रसंति तेढष्ट कर्मचारयादि ईदृशोपार्जिता द्रव्यमनीति संभोगेषु मादकद्रव्य सेवने षु दुव्यसनेषु सदानिन्दनियकार्येषु दुष्ट कार्यषु सदा व्ययं च कुर्वन्ते ईदृशा जनानां बुडिरपि जगद्धानिकराणि दुष्ट कार्येषु भ्रमयन्ति एते सर्वराज्ञामयोग्यता विद्यते ॥राजा स्वधर्मकार्य त्यक्त्वा स्वाथसुख लिप्सया मादक द्रव्यं सवति वा निरर्थकं कार्य च करोति तौर्यत्रिक स्त्रियो मद दुव्यशनषुरातिकृत्वाऽयान्य जातिषु संगमः करोति राज्याभ्रंसति ईदृश सुन्नं सिंहासनमपरान्यान्यहर्तु
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राजविद्या [११५] तत्पर कटिबध ॥ कामालोभ तेन मोह क्रोधादहकार : एतेषां संभावोऽधिकारः समावादाधकमयोग्यता पतन्ति नरक। शुचौ॥
श्रीमत्परम पवित्र सोन पाठ १९ राजावों में अयोग्यता जो राजा धर्म से हीन विद्यासे हीन, अंगसे हीन, वीरतासे हीन,कोढीया, क्रूरकर्मा अधर्म की पालना करने वाला प्रजा की रक्षा करने में असमर्थ, अन्यायकारी, वीरक्षत्रियोंकी, राजवि. द्या जानने वालोंकी, भूमि हरने वाला और ऐसों को न देने वाला गजसिंहासन के योग्य नहीं है ॥ राजविद्या र राजविद्या के तत्व को छोड़ने से राज्य तथा वा जाति भी और जातोंमें मिलकर जड़से चली जाती है और घोर नरक में पड़ते है ।। निराशपन्न और शास्त्रों में श्रद्धाहीनता क्षत्रियों के लिये महाँन अनर्थका चिन्ह है और राज्य से भ्रष्ट होजाने के लक्षण है ये नरक में पड़ने का चिन्ह जानना ॥ बल बुद्धि की मर्यादों से पाया
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राजविद्या। [११६ ] हुवा राज्य तिनको नसभालने से नाशहोजातेहै विषाद ( दुःख ) निराश आलस्य परिवाद (विवाद-जिद्द ) विशन (बिसन ) स्त्रीयां और मदमें ( सराब-दारू) आतिजादाशिकार काशौक जूबा खेलना दिन को सोना-गाली आदि से बोलना -धनका दुषण याने देने योग्य को न देना और नदने योग्य को देना अपने आप को वशमें न रखना, कृत्न (उपकार को न मानना) विश्वास घात करना इन सबको दूरसे ही छाड़ देना ॥ राजका प्रवन्ध न हानस प्रजाकी महनत का धन दुष्ट बुरी तरह से काम में लाने वाले राज कर्मचारी वा उनके संबन्धी वा सदरे दृष्ट जन दीन गरीब प्रजाको हरतेहै और खजान तकभी द्रव्य कादुरुपयोग करत है गरीव प्रजा वलाप करता है शराप दताहे बद दुवा देताहै जिसक प्रभाव (असर) से राजा जलदी थोड़ी उमर होकरराज से भ्रष्ट होजाता है और व दुष्ट कर्मचारी आदि इस तरह पैदा कीये हुवे द्रव्य को अनाति से भागों में
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राज्ञां धने मानंघ वीर सुनान परोपकारीएगांगुलीनां च सत्कारार्थमेव पुनधरान जनानां स्वपोऽसमर्था नो परिपालनार्थम् प्रजा हिजार्थ धर्मार्थम् पांगर विना प्रजाहितार्थ रक्षान्याय प्रजन्या
धुनमुपार्जन
निस्तान यानियगनि दुर्घटनमा प्रोज उपयोगी
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दुउपयोगी
उपयो
न्यायः जगायेग
> अन्न काम
रक्षका
वस्त्र
नाहार
धन
शरीर वाहनास्त्रश स्त्राणं प्रीतिनेऽन्या को सेना
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गुणागार
विविध वस्तव
मारी
मुक्ताई तेल घृत रसादि शास्त्रास्त्र युद्ध
सामग्री प्राठ
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पात्र मनाचार पर
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सानुलदीन्याय
मायरजास्वामीन राज्ञामपूजन्य: पूजापाठनमे नाचनादानियोगे. लोपार्जिजाब्यंउपपगारापा राज्यकर्मवारयःस्थाघोसंयन्धयः(कापरस्ट जनादीनजनान्हसनि दोषागारादपि सब उडेप । योगकुर्वन्ने निनाविलापानशापयनितानावेन रान
चरे एगल्यायुःगुनाराज्याउंसनिलेश्कर्म नारयाद ईशापा जिता देव्यमनौजि मनोगघुमादक द्रव्यसेवनेषु डन्येशनेस रानिनियकार्यम् उहकार्येवव्ययेगर्वने ईदृशा जनाना ऑविश्थने। पांग बुरिम जगदानिदरारी कार्येष-लमर्यानी राज्ञामयोग्य
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Kॐशिना राजास्वधमकाये मावास्वायेसुवालपायामादकरव्य नवनि वानिरर्थक कार्य न करोति जोत्रिक त्रियोग हुन्छ शने रजिजलाउन्यान्यनाघुि संगमःकला राज्याई : सर्जिामुन्नतिहासजमपराज्यान्य नपरकारका
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राजविद्या )
[ ११७]
नके सेवन में दुरव्यसनों में सदा निन्दनीय कार्यों में दुष्ट कर्मों में सदा खरच करते रहते है एलों की बुद्धि भी जगत के हानिकारक कामों में सदा भ्रमती है । ए सारी बातों राजा की अयोग्यता प्रगट करती है । राजा स्व धर्म कार्यों को छोड़कर स्वार्थ सुख में पड़कर वा नशे को सेवन करता है ar for अर्थक कार्य करता है नाचते गाने बजाने में स्त्रीयों में मद में दुर व्यशनों में प्रीति करता हुवा अन्या अन्य जातियों में संगम करता है राज से भ्रष्ट हो जाता है ऐसे सून्य सिंहासन को अन्या अन्य हरने के लिये तयार कमर कसे हुवे होते है कामसे लोभ लोभसे मोह और क्राधसे अहंकार इनका संभाव अधिकार हैं और संभाव से अधिकता अयोग्यता ह और जिनसे घोर नरक में पड़ते है याने भारी दुःखों में पड़ते है |
श्रीमत्परम पवित्र सोम पाठ २० राज्य शासन शक्ति प्रबन्धः सदाचार
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राजविद्या। [११८] पृथिव्यपाग्नि वायोश्च सोमसूर्यो यमे. न्द्रः एतेषां सर्वेषां तेजोवर्तिः भूपतिश्चः रेत् ॥ धर्मात्मनः पापात्मनश्च सवान् धाति तथैव राजा पृथिवो समाशील क्षमामापयेत पालयतेचापिशायथापाथकी स्वकाय गुणः यात्कभाषेवकरण धनं च विधाय एक्यापादयन्ति तथैव एक्यताविाहन दुष्कृत्यांशीघ्र बन्ध यित्वा स्वाधिकाकुयात् ॥ अग्निसमाः उपयोगी भवेज्जगतां सभ्यतास्थिति वाग्नि स्वकिय स्पृशकतारं प्रदहति तथव राजा स्वप्रीयगणमपि मर्यादात्यक्त्वा जनानां समुपालबेनक्षवातृष कुर्यात्॥ यथा वायः स्थावर जंगमेषु सवत्र तथैव नृपतिः निजगुप्त दूत. सर्व व्यापो सर्वज्ञ भूत्वा प्रजानां तथान्य राज्ञां वृतान्तं
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राजविद्या ।
[ ११६ ]
जानीयात् ॥ यथा चन्द्रमा स्वशीलता प्रकाशादिगुणैः लोकानल्हादयति तथैव राजा ॥ यथासूर्यः किञ्चित्किञ्चिज्जलमा वर्षयति निरंतरः तथैव नृपतिः प्रजाभ्यः कांग्रहणयात् तेन तेदुःखिता दरिद्रावान भवेत् ॥ धर्मराज समं पापजिनान् दण्डयति तेन ते पापकार्याणि नानुति ष्ठेयुः || देवेन्द्रसमं नरेन्द्रोन्यायमाचरेत् यथा मेघवपा शुद्धेऽशुद्धे पवित्रेऽपवित्र स्थाने च समान तथा वर्षति तेन प्रजा पुष्टतां प्राप्यते तेभ्यश्च धनन परिपूर्ण यन्ति ॥ तत्वज्ञानार्थदर्शकःराजा ॥ ज्ञान विज्ञान सहितं मन्त्री प्रस्परं प्राप्तयोः सपद्विपदोः प्रबन्धः बान्धवाना संबंधिनां सामन्तानांच सम्प्रत्या भवेयुः
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राजविद्या। [ १२०]
भाषार्थ मित्परम पवित्र सोम पाठ २० राज्य करने की शक्ति ( ताकत )प्रबन्ध और सदाचार ( अच्छे नक चाल चलन) पृथिवी जल अनि वायुः चन्द्र सय्य यम और इन्द्र इन सबके तेजसे राजा अपने तेज की धारण करें ॥ धर्मात्मा ओर पापात्मा सबको पृथिवी अपने ऊपर धारण करती है इसतिरह राजा पृथिवा समान क्षमा और पालनाभी सीखें ॥जैसे जल अपने गुणों का के जिस किसी को आना करक बान्धेरखता है इसी तरह ऐक्यता जल से सीखें एक्यता से हीन खोटेकर्म करनेवालों को तुरत बन्धवाकर अपने आधीन में करले ॥ जगत की सभ्यता की स्थिति में राजा अनि समान उपयो. गीहो ॥ अपनी . आग्निभी स्पृश (छनेवाला) करने वालों को जलादेनी इसी तरह राजा अपने प्रोवगणों को भी स्लो चलने से ओलबा और गिड़क कर तिरषकार कर देवें ॥ जसे वायु स्थावर
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(राजविद्या) [ १२१] जंगमों में (चराचरमें) सब जगह है इसी तरह राजा भी अपने गुप्त दूतों करके सर्व ब्यापी और सर्व जाण होकर सब प्रजावों और दूसरे राजावों का हाल जान्ता रहै। जैसे चंद्रमा अपणी शीत. लता और प्रकाश आदि गुणों करके लोका को सुख देता है इसी तरह राजा भी ॥ जैसे सूर्य थाड़ा थोड़ा जल हमेश अपणी किर्णो से वींच ता रहता है इसी तरह राजा भी प्रजावों से थोड़ा थोड़ा कर (लाग बाग) लेता रहै जिससे प्रजा दुःखी दरिद्री न होवे ॥ यमराज (धर्मराज) के समान राजा पापीयों को दण्डता है जिस्से वे पाप कर्म न करें || इंद्र के समान राजा न्याय करे जैसे मेघ (बादल) शुद्ध अशुद्ध पवित्र अ. पवित्र स्थान में समानही वर्षता है जिस्से (न्यायसे) प्रजा पुष्ठ ता पाती है और धन से परि पूर्ण रहती है ॥ ज्ञान के सार को देखने वाला राजा है ॥ ज्ञान विज्ञान सहित हैमंत्री होता ॥ आपस के संपद विपद के प्रबन्धों में अपनेही
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राजविद्या।
[१२२]
बान्धव संबधियों सामन्तों की सम्मति राजा लेवे॥
श्रीमत्परम पवित्र सोम पाठ २१ क्षत्रियाणां सभा शान्त्योपदेश तथा
- समाप्त्याशीष ॥
क्षत्रियाणां प्रति सम्वत्सर द्वे वारे शुभस्थाने शुद्धों सभास्याताम् तस्यां परमपवित्र राजविद्योपदेश चिन्तनीयं प्रबन्ध सम्बन्धी समाधानंचापि सुवि. चारणम् । प्रतिवर्षचैकवारं पुण्यस्थाने राज्ञां क्षत्रियाणां महासभाऽपि तेषां स्यात् ॥ राजा विशेषकार्येषु सामन्तानां च सभ्यव्यक्तिनां प्रजाजनानांसभाम्यां सम्मतिर्विषाम् ॥ प्रत्येक जात्या सभा स्थापने वा प्रचलित्कुरीति निरसनन सुरीति प्रचालने पूर्वक जाति संस्करणे
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राजविद्या। [१२३ ] शांधने वाधिकारोऽस्ति ॥ महाशक्तिः प्रश्नः मतेस्तेक्षण्यं शक्तेश्च संवर्द्धनं क्षत्रिया कथं लभते ॥ शिवावाचः राज. विद्याशाणेनैव ॥ इयविद्या क्षत्रियाणां पाथवी प्रशासन शक्तिमर्ण तक्षिणता स्ति यथाशस्त्राणि चिरंकालेन निशि तधारा विहीनानिभवन्ति तथैव क्षात्र यापि महत्कालेन शक्ति पुरुषार्थ तेजो भिर्विहीना जायन्ते ॥ शाणोल्लोखिता नि शस्त्राणि पुनस्तीक्षणानि ॥राजविद्या क्षत्रियाणांशाणवं ॥ एतच्छास्त्रा नुसार राजाशासनीयम् भवेत्महाँन भागी सुखी सदीर्घायुराशीपात्रंचमान धृतसहः सन्ततिःतिष्ठतोचरम् ।। तस्य राज्यं सुस्थिरंदृढंध्रुवंजायते ॥ यशश्चा खण्डितबहुला संतात सततं स्वर्ग भोगश्च
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राजविथा।
[१२४]
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इहलोके परलोके चारविचन्द्रतारकम् श्रद्धा पूरया तथा मानसिकतीव्रशक्त्या निस्संदेह सिद्धिर्भवति न किंचिदपि दुलभम् ॥ अयमावयोः सम्वादः सृष्टे स्वस्थि सुखशान्तिः स्थितिश्च प्रबन्धानां स्थित्यर्थम् । राज विद्योपदेशः तेन संज्जानम् । मृष्टे स्वस्थिसुखशान्तिः स्थिातश्च प्रबन्धानां स्थैर्यम् । तेन व म् बलेन रक्षा। पूर्व सुकृतेन राजविद्यो पदेशप्राप्तिःतेन शुद्धविचारशक्तिः सव बुद्धिः तयाचेष्टः तेनयथेष्टप्राप्तिः। राज विद्योपदेशेन शुद्धोच्चश्वर भावेन विचार शक्तिः तयाचष्टधमः धरण न्यायः। यत्र रक्षा न्याय तत्र राज्यं सुास्थरमच. लंध्रुवम्॥
॥ समाप्तम्
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[१२५
राजविद्या भाषार्थः
श्रीमत्परम पवित्र सोम पाठ २१
क्षत्रियों की सभा शान्ति का उपदेश और समाप्ति आशीष ॥ क्षत्रियों की प्रति संवत्सर में दोबार शुभ स्थान में शुद्धरितु में सभाहो जिन में परम पवित्र राज विद्योपदेश पर चिन्तवन हो और प्रबन्ध संबन्धी समाधान भी विचार कीये जावे ॥ वर्ष में एक वार पुण्य स्थान में राजावों क्षत्रियों की महासभा भी हो ॥ राजा विशेष कामों में साम. न्तों की और प्रजावों में से सभ्य जनों की सभा सम्मति लेवें । हरके जाति को सभा स्थापित करने और प्रचाईत कुरीति को मिटाने और अच्छी रीत को चलाने और जाति शुद्धार करनेका अधिकार है ।। महा सक्ति प्रश्न करती है ॥ अच्छी बुद्धेि को तीन वा तेज करना और शक्ति (बल) को बढ ना ये बातें क्षत्रिय कहां से पाते हैं । शिवने कहा-राजविद्या रूपी खुर
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राजविद्या।
शाण से ॥ ये विद्या क्षत्रियों की पृथिवी पर राज्य करने की शक्तिमयी (बल सहित) तीक्षणता (तेजी) है जैसे शस्त्र बहुत काल करके तेज धारा से हीन (भोटे) होजाते हैं इसी तरह क्षत्रिय भी बहुत काल करके शक्ति पुरुषार्थ और तेज से हनि होजाते हैं । शाण पर चढं हुवे शस्त्र फिर तेज होजाते हैं । राजविद्या क्षत्रियों की खुरशाण है । इस शास्त्र के अनुसार राजा राज्य करता हवा महान भागी, सुखी बड़ी ऊपर वाला और आशाष और मान के साथ और संतती (परवार) के साथ बहुत समय तक राज्य करता है और उस का राज्य अच्छा स्थिर दृढ और अचल होजात है और अखण्ड यश (कारती) और हमेश बहुत संतति (परिवार ) वाला और इस लोक और परलोक में सूर्य चन्द्र अर तारों की स्थिति तक स्वर्ग (सुख) भोग करता है ॥ पूर्ण श्रद्धा और मनकी तीन शक्ति (बल) के साथ करने से निस्सन्देह सद्धि होती है कुछ भी
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राजविद्या
[१२७]
दुर्लभ नहीं है । यह हम दोनों का संवाद सृष्टी के सुख शान्ति स्थिति और प्रबन्धों की स्थिरता के लिये है । राजा विद्योपदेश से सत्य ज्ञान है सो सृष्टी के सुखशान्ति स्थिति और प्रबन्धों की स्थिरता है जिसे बल, बल से रक्षा पूर्व सुकृत से राजविद्या के उपदेश की प्राप्ति होतीहैं. जिस से शुद्ध विचार शक्ति वाही बुद्धि है तिस इष्ट जिस से जो चाहे सोही मिले । राज विद्योपदेश से शुद्धोच्चश्वर भाव से विचार शक्तिः जिससे इष्ट धर्म धर्म से न्याय जहाँ रक्षा न्याय है वहां राज स्थिर अचल और ध्रुव है
॥ समाप्तम् ।।
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कुंवर सरदार माल थानवी के प्रबन्ध मे श्री सुमेर प्रिन्टिङ्गप्रेस जोधपुर में छपी
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दार: धर्मपदेश
उसखाये:
मनसम्म पुरुषपदशेम
कालरान्यास १.जबरनाव *पानाम्नायाम यास मनाना
पारिनेऽवश्यमवस्त्रास्त्रारण, २ संगाजःसनासम्मतिः प्राजा पाता सुधा
पजासामजन धारादर नाडकी। বােলাে ।
१० जनाविवि
घालवानी स्वामीन नान ३ रारान्यः
छमेगाहा संयमानमा
यःपना ४ शोर्यातजा वाराणम् नाररवय पुरयः सहम ताजांना सानंगेनही प्र.पला बलम न्यायममादायक नशारीरिजोनि
नयाम्पमा सवा परीनिधान्यालन समर्थनम् स्नान भान्धराना सवारी नांचाहनानातलन
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रदासरूप-स्त्रीशिक्षानि रदा सैवबलाप्रयापति दिनेश्वशास्त्राणामन्यासः पादरीर परिश्रमेडल्याप्तःवार जाना स्व-जानःबान्धवः सीसंबन्धय तेषां योग्यजावीर
चम् सर्वोपरीवियाल्यासः तया शौर्यम्जेज:तापश्चास्व धर्मन्याय मर्यादा प्रबन्धम् नानाधर्मशरीर पाणस्वा कन्चयंडब्यं धनं किनम् सदा चरणम् मामि उपयोगीपाव: चराचरगम रक्षाम् राज्यम्।
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संसयएमस्मिताद की मस्याध्यावन बुधिसवर्धनम्
स्वर देरमामाकलाब जेन: शीजलता र
मारमाधमणकार:४ पगारासमानापाणण
उपयोगी
समानार
११
गदि पिारगमम
यथार्थ निरोगनन्यारा:ज निपाजया १४
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२
ज्याय तरूपपुरुषः न्याय प्रबोधयति जपनावेन भूमिः शासनम् सः बुआक्रायः १ स्वदेश मातृभाषा स्वप्रतिज्ञा सत्यम् ३. स्व वीर वेषम् ४ स्वदेश शुद्ध बेलीष्ट भोजनम् * जो जे पुरुषार्थ: (६ निरापुराधिन्यः सम दुष्टी दया उष्टराण्ड ● विद्वान वीर गुणी जनाना साकार सुमात्र दान समूहसा यथार्थ निर्णय: निर
यात्रान
१०. शुद्धानेश्वर मानेन परिक
नग
११ प्रजा सुरन शानी स्थिति
श्रबधानां स्थेयम्
सर्व उपयोगी नं पश्येत रहाये सुधायतें
थाक्रम दया वनम
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विधा मन सम्पय तस्यामहिरपायचिजयने प्राप्यने ।
११ महियापदेशन मनसान्सी
एगेधीर्य बन गुजः २ उखारिज
शुद्ध शुगन्धिनवायः ५स्वतन्त्रताऽनयम ३ सय नेपााज
पुरुषार्थ यज्ञश्च 6 यये पाप मुयधर्म पारणा हत्यः यचड
परिममेल्यास २० सपानानम् ११एगास्नान. १२ पाहिजम् दशेनम् ।
खजम (३एडाघाराशाये
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बचारशाम सस्पदव्या ध्याननविचार शाजा संवध्यताफलावनराज्यपान सत्वरजतामञ्चन साम्यावस्थावलंब नम्-शवश्वरनावे जसथातुरवशतिःस्थि तिचपबन्धानांस्येयम् विचारणम् सर्वोपरीवि घान्यासरप्राकृत काग चना पश्यन् विवारगम्
नशानाथर्शनम् न्यायः तपठनम् ५ रात्रिकोणविज्ञ
मेर शवनमे ६
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सनावेन संधूनेऽध चंद्राकार महा सना दक्षिणे शक्ति नामे बुद्धि मन्य रक्षन्यायः
नृत्यां पायदला
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पायदला
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राजा धर्मवर्गी
प्रथमालि प्रियंक्षाएँ प्रतियदल
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पायदला
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कृत्या: पायदला श्राज्ञया क्षाणिन्त्यः पत्रे सम्मती: प्राथम्
सेनापतिराजा ] मंत्री लेखक,
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प्रजागरणा
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पायदला
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नृत्या पायरला,
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(ॐ शिव मनावन उच्चस्थाने राजावासनापनि
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विशेषमादेनोच्चस्थानेवलाकार महास्ना सम्मायचेम् । राज्यासनाचतम सामीप्यमाजाचतर मध्योचापयाताजयः
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ॐशिव
सनावेन सोपानाकार महासना टट्टेः स्वस्तिःमुख शान्ति स्थिप्रथम 6
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सामान्य पचालन विदोनवेल महासना प्रथमोग मामिप्य जियोचतरम्याने तियेच्चतमः । चतुर्थ सनमुने पञ्चमोत्र पमोच्चतम सेनिकायोमा
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शिव विरोष प्रचप्लेिन धर्मगन्यायसनापायव्ययापर न्पै सहकायो-जगनाधम १०
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राना नेमा: ४०००० च्या 2017DOEF सनापानन्दायाधीशमायोपार्जक धनालायाचा अपरले स्कमा से पाक विविधनियाधमपराक सत्ययमवशराधनपशनम पायदनारदाधिकापुरम सार अटकेस मुरुममा व्यत्) MAM ००००००० समकायापायला
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