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[ ७८ ]
राजविद्या ।
श्रमेण सपादशत लाभः प्राप्यते ॥ कृषा धान पत्र प्रकाण्ड शाक तूलं वीज फल पुष्पादि विंशति ॥ वनेन पुष्प मूलौषधी वल्कलादि विंशति ॥ वृक्ष वनस्पत्यादि प्राप्तौ काष्ट फल पुष्प निर्यास मधून्यादि विंशति ॥ आकरजेनाष्ट विंशति ॥ पशवादिभिः सप्तस्त्रिशत्धा ॥ करश्चपट त्रिंशत्या ॥ पृथिव्य पतेजादि समेत यंत्र कला कौशलम् ॥ विविध भाजना निवस्त्वादिच निर्माणम् ॥ पृथिवी वाय्वाकाशादिभिः विविधानि विमाना न्याकाश गामीन्यस्त्राणिच ॥ कालोहि महाँ धननिधिः यदि सवृधान याप्येत ॥ दिग्भ्यो यथेष्ट संचार लाभः ॥ स्वात्मानं स्वार्थेन स्वल्प सुखार्थेन तुच्छी न कि येत ॥ परमार्थतः सा परम पवित्र महा
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