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(१८)
राजविद्या।
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यावदेतषु पंचेषु तमोरूप स्वार्थ नाप्नोत॥ ३स्वार्थिक वा तामासिकन्याय स्वार्थ प्रधानेन कुरुते । नाममात्र न्याय स्वार्थिक मर्यादाऽऽधार । राजा प्रजाप सर्वेषां स्वस्ति सुखशान्ति स्थिश्च एतेषां प्रान्धाऽचिरण विनाशकानि भूत्वा राज्यं भ्रसति। राजा प्रजाष दुःख कलेश बभूय. न्ते राज्यमपर कुले संजायते ॥
भाषार्थ बलबुद्धि से रक्षा न्याय है रक्षा न्याय से राज्य है बारे बलोंसे रक्षा वुद्धिसे छ प्रकारका न्याय है शरीरिक मात्मिक बलो सिंहका मार. ना पहला बल है बुद्धि से सिंहको मारना बुद्ध बल द्वितिय है ।।
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