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राजविद्या। प्रकृति भाग्यं कर्म तथा मामाप परं मनुज शरीराय न कोयहमवशेषितम् मनुष्यः मामाप वशं (स्वाधीन) कतु शक्कनोति। यदि स्वार्थ सुख मेथिल्या. म धिक्तां त्यक्त्वा शुद्ध भावेन पुरुषा थे च करोति सार्वकालं सत युगैव प्रवतते सर्वां संसाधयते॥विशुद्ध ज्ञाने न श. क्ति पुरुषार्थेन ययं चिन्तयते कामं तंतं प्राप्नोति ॥ सर्वयुपयोग्यभ्यासे परिपूर्ण योग्यता सर्वांच प्राप्यते ॥
भाषार्थ इस विद्या के अभाव से अच्छा विचार तेज आछी बुद्धि बल श्रद्धा शक्ति और पुरुषार्थ से हीन मेरी प्रकृति मायाको भाग्यको कमीको और मेरे को भी दोप लगाते हैं परन्त मनुष्य शरीर के लिये मैंने कुछ भी बाकी नहीं छोड़ा है मनुष्य
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