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राजविद्या। [२५] के परिश्रमादि के फल सुख और धन हैं । सब शुद्ध उच्च और माल की भाव मे आपस मे बांट दना चाहिये या प्रति फल प्रत्योरकार आपस मे दना चाहिये न किमी के परिश्रम का वा प्रत्यो. पकार का फल मा ना चाहिये । जेसा कर्म वैसा फल न्याय है वही उच्च दृष्टो पालना करना धर्म है इनों मे हानि होने से सब तरह की विद्यायें देश उन्नति आपस की हित प्रीति बल बुद्धि पराक्रम और राज्य सब शनैः शनैः नाश होजाते है परिणाम में राज्य दुसरों के हात म दुसरे कुलों मे चला जाता है इम वास्ते हमेसा धर्म में न्याय म रक्षा में पारमार्थिक में परोपकार में प्रत्याप. कार में प्रतिफल देने में लोक संग्रह मे प्रवर्नि हो । धर्म के साथ पैदास करने का उपाय कर• ना ! अपने पोषण करने में असमर्थो का आंदे पांगले अनाथ बालक विधवा स्त्री अपना पोषण न करस के उन सब का पाषण करना । सब तरह की विद्यावों का प्रचार करना । धर्म के
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