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राजविद्या ।
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[ २३ ]
योपयोगं दिव्यं शक्तिश्चानुशास्ति तत्प्रत्यक्षमवगम्यते ॥
भाषार्थ
यह मनुष्य का शरीर मुजसे सारी शक्त्यों वाली प्रेरणा करने वाली माया से अनन्त शक्तियों सहित रचा हुवा है परंतु काम क्रोध लोभ मोह अहंकारों की अधिक्ता से ये तमाम शक्तियां तत्त्वों में तत्त्वमयि होकर उन में लीन होजाती है तब ये मनुष्य जेमी संगत पाता है वेसी ही साधारण वृत्ति पकड़ लेता है । वह जो उच्च पद की इच्छा करने वाला मनुष्य राजविद्या से सार जो सर्वोपरी योग है वह इन्द्रियों को वश में रखना और पाचों काम आदि के वशीभूत न होकर और उन से काम लेता हुवा दिव्य शक्तियों का प्रत्यक्ष ज्ञान कराता है ।
मया प्रथममाकाशमुत्पन्नमाकाशाद्वायु संभवः वायोस्तेजस्ततश्चापस्तत पृथिवी समुद्भवः तेषां काम क्रोध लोभ
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