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राजविद्या ।
( ४५ )
रंन्यं विनश्यति लोभलिप्सया ॥ षष्ठा नि वर्णानि वर्गेषु पश्यत् ॥
यावदेवह्यधिक प्रजावधिकसन्मार्गे प्रक्तु शक्नोति तावदेह्यधि कुञ्चाधिपतिः न संशयः ॥
( भाषार्थ )
जितनी अधिक प्रजाको अधिक सन्मार्ग में चला सकता है उतना ही अधिक उच्च अधिपति
होता है ||
रक्षित्स्थान्प्राकृन्मनुषक्कृतश्चति ॥
( भाषार्थ )
रक्षित्स्थान प्राकृत याने स्वाभाविक और
मनुष्यकृत होते है |
प्रारम्भ स्वेष्टे प्रेमणा सायोगमाया प्रसन्नाक्षत्रियान् श्रद्धयान्वितान्ददाति योगः माययास्थितिश्च ॥ योगक्षात्रहदे
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