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राजविद्या ।
करोति तदा दुर्गतिराप्नोति यथा समुद्रजले मनं भवति विनश्यति ॥
भाषार्थ
स्वार्थ सुख में अधिक पड़कर अज्ञानता से करने के कामों में ढीलापन्न करता है और पुरुपार्थ को छोड़ता है और विषय सुखों में पड़ता है । जैसे विन ज्ञान का पशू गद्धा बल हीन हो कर नीचे पड़ जाता है तो उसको दुसरे पशुपक्षी तोड़ कर खा जाते हैं । इसी तरह पुरुषार्थहीन पुरुषों की भी मांत होता है ।
अपनी जाति के बान्धव सम्बन्धी भूम्याधि प्रति ग्रामाधिपति सामन्त बिना २ हाथों केसा है । इसी तरह अगम बुद्धि वाले पण्डित बुद्धिमान वृधाजिन को जगत का अनुभव पूरा हो इनके विना बिना पैरों कैसा है ।
शुद्ध बलिष्ट भोजन सामग्री सुख की प्राप्ति है परंत व्यायाम ( कसरत ) और मेहनत के अभ्यास विना पेट बदकर असमर्थ हो जाता है !
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