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राजविद्या।
[१३]
भाषार्थ अपने इष्ट में प्रेम रखने से वा योगयुक्तमाया वाही योगमाया प्रसन्न हुइ तीन गुणोंकरके संवर्ति वा साम्यावस्था त्रिगुणात्मिक माया क्षात्रजातियों में शुद्ध उच्च और मालकीभाव ईश्वरभ व देती है। शुद्धोचेश्वर भावही स्थिति है ।। तीनशूलां प्रकाश करती है शुद्ध उच्च ईश्वरभाव शुद्धभावसे सुख उच्चभावसे शान्ति और ईश्वरभाव से स्थिति सदा न्येही योगमाया की पूजा है ।। स्वार्थकी अधिकता से बुद्धिमें हानि होतीहै और फेर बुद्धिमें हानि होनेसे न्याय में । विनान्याय शान्ति और स्थिति दोनु नाश होती है । इसका उपाव स्वार्थ से निस्पृह (विनाइच्छावाला) होकर दानमें उत्साह रखें। सुख भोग की अधिकता से बलों में हानि होती है और फेर उसे रक्षावों में भी । उपाव इसका कसरत, और परिश्रम याने मेहनत में अभ्यास । मोहकी अधिकतासे सुखों में हानि और फेर स्वस्ति (तन्दुरस्तियों में ) उपाव इसका अपणे इष्टमें प्रेम
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