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राजविद्या।
(१६)
१ पवाप्रिय पार धर्म से प्रभावों को प्रीति
रुचाके अनुसारहो। २ जादितार्थ परमार्थिक न्याय जगतों की स्वस्ति सुख शान्ति स्थिति और ऐसे प्रबंधोंकी स्थिरता के लिये हो । ३ सत्यन्याय यथार्थ निर्णय और निर्पक्षता से प्रजाके सन्मख प्रगट प्रकाशहो । ४ सात्व कनय प्रजावों की वृद्धि के कारण से हो राजा प्रनाको धरोवर की भांति अधिकार में रखें ५ राजासिक न्याय राजा प्रजावों में सुखशान्ति से हो । राजविभव अधिक अधिक प्रकाश कीया जाताहै और इन सबकी सदा स्थिति है जबतक कि इन पांचों में तमोरूप स्वार्थ न
आजाता है ।। ६ स्वार्थिक वा तामालेक न्याय स्वार्थ की प्रधानतासे कीया जाता है ये नाममात्र न्याय
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