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राजविद्या। (उमर) का बदना है । ज्ञान के सार को देखना जिसके प्रभाव से स्वतन्त्र आज्ञा (हकम) चलना। जो चाह सा मिले । शरीर नाशवान है और जीव कभी नाश नहीं होता । ब्रह्म अक्षर (अ. नाशवान ) है और अधियज्ञ में स्वयं हूं । परम स्वभाव वा प्रकृति ( कुदरती ) नियम तथा प्रा. णियों की उत्पति और वृद्धि का कार्य कर्म है। क्षम वीरत्वम और अपनी आत्मा का ज्ञान है। और ज्ञान योग मे जिसकी स्थिति है। इस विद्या के अभ्यास से मेरे आधेक अंश की प्राप्ती होती है और वह राज्य सुस्थिर अचल और ध्रुव है
और क्षत्रियों कामान प्रतिष्ठा स्थिति और आधार है । इस विद्या के उपदेश बल, बुद्धि, श्रद्धा, भाक्ति, इष्ट और पुरुषार्थ मे प्रथिवी पति होता रहता है और उच्च जन्न पाता है सभाव से स्वार्थ सुख भोगेश्वर्य मोह अधिकार है इनका अधिक्ता से दुर्बुधि । दुर्बुधि से दुष्कृत और दुष्कृत से दुःख और नीच गती पाता है सुकृत काम मे और
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