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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * ななななななななななななななななななななななななのかわからなかなかなかなかなかそく स्थिति को समझ लेना चाहिये ।
सूत्र-संख्या ३.१२ के विधानानुमार यधपि यह सिद्ध हो जाता है कि द्वितीया-विभक्ति के बहुवचन के प्रत्यय 'शा की प्राप्ति होने पर अन्त्य हस्व स्वर को दोधता की प्राप्ति होती है परन्तु पुनः सूत्र संख्या ३-१८ से उमा तात्पर्य की विशेष समुष्टि करने के लिए और अकारान्त शब्दों में काल्पक रूप से होने वालो दोपता का व्यवधान करने के लिये इस सूत्र (३-१८) का निर्माण किया है । 'दोषता की नित्यता रूप लक्ष्य-विशेष के योग को प्रदर्शित करने के लिये इस सूत्र का निर्माण करना पड़ा है। दूसरा प्रबल कारण यह है कि सूत्र-संख्या ३ २२ के विधानानुसार 'शस्' प्रत्यय के स्थान पर पुल्लिंग शब्दों में जो प्रत्यय की वैकल्पिक रूप से आदेश प्राप्ति होती है; तदनुसार यदि द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में 'णो' प्रत्यय की प्रामि हो जाती है तो ऐसी अवस्था में 'शस्' प्रत्यय 'की लोप स्थिति नहीं मानी जायगी गर्व लोप-स्थिति का अभाव होने पर अन्त्य द्वस्वस्वर को भी दीर्घता की प्राप्ति नहीं होगी। प्रकार निश्शंक और स्पष्ट अर्थ को अभिव्यक्त करने के लिये ही नथा नित्य 'दीर्घता के संबंध में उत्पन्न होने वाली शंकाओं के निवारण के लिये ही सूत्र-संख्या ३-१२ के अतिरिक्त सुत्र-संख्या ३-१८ का निर्माण करना भी आवश्यक तया उचित समझा गया है।
गिरीन्ः-संस्कृत द्वितीयान्त बहुवचन रूप है। इसके प्राकृत रूप गिरी और गिरिणो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३-४ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में 'शस्' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राप्त प्रत्यय का लोप और, ३.१८ से प्राप्त प्रत्यय 'शस' का लोप होने से अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को धीर्ष स्वर 'ई' की प्राप्नि होकर गिरी रूप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप- (गिरीन) गिरिणों में सूत्र-संख्या३.२२से मूल शब्द 'गिरि' में द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में 'शस्' प्रत्यय के स्थान पर णो' प्रत्यय की यादेश-प्राप्ति होकर द्वितीय रूप गिरिको भी सिद्ध हो जाता है।
खा:- संस्कृत द्वितीयान्त बहुवचन रूप है । इसका प्राकृन रूप बुद्धि होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३.. मेद्वतीया विभक्ति के बहुवचन में 'शस्' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राप्त प्रत्यय का लोप और ३-१८ से प्राप्त प्रत्यय 'शाम' का लोप होने से अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' को प्राप्ति होकर बुद्धी रूप सिद्ध हो जाता है।
तरून:-संस्कृत द्वितीयान्त बहुवचन रूप है । इसके प्राकृत रूप तुरू और तरुण होते है। इनमें में प्रथम रूप में सूत्र संख्या ३-४ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में 'शस' प्रत्यय को प्राप्ति होकर प्राप्त प्रत्यय का लोप ३-१८ से प्राप्त प्रत्यय 'शम का लोप होने से अन्स्य ह्रस्व स्वर 'व' को दीर्घ स्वर 'क' को प्राप्ति होकर तरू रूप सिद्ध हो जाता है।
__ द्वितीय रुप ( तरून= ) तरूणों में सूत्र-संख्या ३-२२ से मूल शब्द 'तरू' में द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में 'शस्' प्रत्यय के स्थान पर 'णो' प्रत्यय की प्रादेश-प्राप्ति होकर द्वितीय रूप तरूणो भी सिद्ध हो जाता है।