Book Title: Pragnapana Sutra Part 03
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
पन्द्रहवां इन्द्रिय पद-प्रथम उद्देशक - विषय द्वार
४३
호오오오호호호호호호호호호호호후
00ooooooooooooooo
ooooooooooooooooo000호호호호호호호호호호호호호오오오
और स्पर्शनेन्द्रिय स्पर्शों का प्रतिसंवेदन (अनुभव) करती है, ऐसा अभिलाप शब्द प्रयोग करना चाहिए।
पविट्ठाई भंते! सद्दाइं सुणेइ, अपविट्ठाइं सद्दाइं सुणेइ?
गोयमा! पविट्ठाइं सद्दाइं सुणेइ, णो अपविट्ठाई सद्दाइं सुणेइ, एवं जहा पुट्ठाणि तहा पविट्ठाणि वि॥ ४३७॥
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! श्रोत्रेन्द्रिय प्रविष्ट शब्दों को सुनती है या अप्रविष्ट शब्दों को सुनती है?
उत्तर - हे गौतम! श्रोत्रेन्द्रिय प्रविष्ट शब्दों को सुनती है, अप्रविष्ट शब्दों को नहीं सुनती। इसी प्रकार जैसे स्पृष्ट के विषय में कहा, उसी प्रकार प्रविष्ट के विषय में भी कहना चाहिए।
विवेचन - शंका - स्पृष्ट और प्रविष्ट में क्या अंतर है?
समाधान - स्पृष्ट तो शरीर में रेत लगने की तरह होता है किन्तु प्रविष्ट मुख में कौर (कवल-ग्रास) जाने की तरह है। इसलिए इन दोनों के शब्दार्थ भिन्न होने से अलग कथन किया गया है। इन्द्रियों द्वारा अपने अपने उपकरण में प्रविष्ट विषयों को ग्रहण करना प्रविष्ट कहलाता है। जैसे श्रोत्रेन्द्रिय प्रविष्ट अर्थात् कर्ण कुहर में प्राप्त शब्दों को सुनती है, अप्रविष्ट शब्दों को नहीं। चक्षुरिन्द्रिय आँखों में अप्रविष्ट रूप को ग्रहण करती है। घ्राणेन्द्रिय रसनेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय अपने अपने उपकरण में प्रविष्ट विषय को ग्रहण करती है।
९. विषय द्वार सोइंदियस्स णं भंते! केवइए विसए पण्णत्ते?
गोयमा! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखिजइभागो, उक्कोसेणं बारसेहिं जोयणेहितो अच्छिण्णे पोग्गले पुढे पविट्ठाइं सद्दाइं सुणेइ।
कठिन शब्दार्थ - अच्छिण्णे - अविच्छिन्न। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! श्रोत्रेन्द्रिय का विषय कितना कहा गया है?
उत्तर - हे गौतम! श्रोत्रेन्द्रिय जघन्य अंगुल के असंख्यात भाग दूर शब्दों को एवं उत्कृष्ट बारह (१२) योज़न दूर से आए अविच्छिन्न (विच्छिन्न, विनष्ट या बिखरे हुए न हो ऐसे) शब्द वर्गणा के पुद्गल के स्पृष्ट होने पर प्रविष्ट शब्दों को सुनती है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org