Book Title: Pragnapana Sutra Part 03
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
इक्कीसवां अवगाहना-संस्थान पद - संस्थान द्वार
३३९
गोयमा! मसूरचंद संठाणसंठिए पण्णत्ते।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय औदारिक शरीर किस प्रकार के संस्थान वाला कहा गया है?
उत्तर - हे गौतम! पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय औदारिक शरीर मसूर-चन्द्र (मसूर की दाल) जैसे संस्थान वाला कहा गया है।
एवं सुहुम पुढविकाइयाण वि।
भावार्थ - इसी प्रकार सूक्ष्म पृथ्वीकायिकों का औदारिक शरीर संस्थान भी मसूर की दाल के समान है।
बायराण वि एवं चेव। भावार्थ - बादर पृथ्वीकायिकों का औदारिक शरीर संस्थान भी इसी के समान समझना चाहिए। पज्जत्तापजत्ताण वि एवं चेव।
भावार्थ - पर्याप्तक और अपर्याप्तक पृथ्वीकायिकों का औदारिक शरीर संस्थान भी इसी प्रकार : का जानना चाहिए।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में औदारिक शरीर के संस्थानों की प्ररूपणा की गयी है। औदारिक शरीर अनेक प्रकार के संस्थान वाला है क्योंकि जीव की जाति के भेद से संस्थान के भेद होते हैं। एकेन्द्रिय औदारिक शरीर के अनेक प्रकार के संस्थान कहे गये हैं क्योंकि पृथ्वीकाय आदि के अलग अलग संस्थान होते हैं। उनमें सूक्ष्म, बादर, पर्याप्तक और अपर्याप्तक पृथ्वीकायिकों का औदारिक शरीर संस्थान मसूर के दाल की-चन्द्राकार अर्द्धभाग की-आकृति जैसा है।
आउक्काइय एगिदिय ओरालिय सरीरे णं भंते! किं संठिए पण्णते? गोयमा! थिबुय बिंदु संठाणसंठिए पण्णत्ते।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! अप्कायिक एकेन्द्रिय औदारिक शरीर का संस्थान कैसा कहा गया है?
उत्तर - हे गौतम! अप्कायिकों के शरीर का संस्थान स्तिबुकबिन्दु (स्थिर जलबिन्दु) जैसा कहा गया है।
एवं सहम बायर पज्जत्तापज्जत्ताण वि।
भावार्थ - इसी प्रकार का संस्थान अप्कायिकों के सूक्ष्म, बादर, पर्याप्तक और अपर्याप्तकों के शरीर का समझना चाहिए।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org