Book Title: Pragnapana Sutra Part 03
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________ 380 प्रज्ञापना सूत्र वाला हो और जब वह मारणान्तिक समुद्घात करता है, तब उसकी उत्कृष्ट अवगाह / लोकान्त से लोकान्त तक होती है। बेइंदियस्स णं भंते! मारणंतिय समुग्घाएणं समोहयस्स तेयासरीरस्स केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता? - गोयमा! सरीरप्पमाणमेत्ता विक्खंभ-बाहल्लेणं, आयामेणं जहण्णेणं अंगुलस्स असंखिजइभागं, उक्कोसेणं तिरियलोगाओ लोगंते। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! मारणान्तिक समुद्घात से समवहत बेइन्द्रिय के तैजस शरीर की अवगाहना कितनी बड़ी कही गई है? उत्तर - हे गौतम! मारणांतिक समुद्घात से समवहत बेइन्द्रिय के तैजस शरीर की अवगाहना विष्कम्भ (विस्तार) एवं बाहल्य अर्थात् मोटाई की अपेक्षा से शरीरप्रमाण मात्र होती है। तथा लम्बाई की अपेक्षा से जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट तिर्यक् लोक से ऊर्ध्वलोकान्त या अधोलोकान्त तक अवगाहना समझनी चाहिए। एवं जाव चउरिदियस्स। भावार्थ - इसी प्रकार यावत् चउरिन्द्रिय तक के जीवों के तैजस शरीर की अवगाहना समझ लेना चाहिए। विवेचन - मारणान्तिक समुद्घात से समवहत विकलेन्द्रिय जीव की तैजस शरीर की विष्कम्भ बाहल्य की अपेक्षा अवगाहना शरीर प्रमाण और लम्बाई की अपेक्षा जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की उत्कृष्ट तिर्यक् लोक से लोकान्त तक होती है। तिर्यक् लोक से लोकान्त अर्थात् तिर्यक् लोक से अधोलोकान्त तक अथवा ऊर्ध्वलोकान्त तक। आशय यह है कि जब तिर्यक् लोक में स्थित कोई बेइन्द्रिय आदि जीव ऊर्ध्व लोकान्त या अधोलोकान्त में एकेन्द्रिय के रूप में उत्पन्न होने वाला हो और मारणान्तिक समुद्घात करे उस समय तैजस शरीर की पूर्वोक्तानुसार अवगाहना होती है। बेइन्द्रिय आदि जीव ऊर्ध्व लोक में मेरु पर्वत आदि की बावड़ियों में एवं अधोलोक के समुद्र आदि के भाग में तथा महापाताल कलशों के दो तिहाई भाग तक में भी होते हैं। ऊंचे लोक के मेरु पर्वत आदि के कुछ अंश में ही होने से तथा तिरछे लोक के समुद्र के भांग से अधोलोक का समुद्र का , भाग एवं पाताल कलशें सम्बन्धित होने से उन सब का तिर्यक् लोक में ही समावेश कर दिया संभव है। णेरइयस्स णं भंते! मारणंतिय समुग्घाएणं समोहयस्स तेयासरीरस्स केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता? ___ गोयमा! सरीरप्पमाणमेत्ता विक्खंभ बाहल्लेणं, आयामेणं जहण्णेणं साइरेगं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org