Book Title: Pragnapana Sutra Part 03
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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________________ इक्कीसवां अवगाहना-संस्थान पद - प्रमाण द्वार 383 पृथ्वी के अधस्तनचरमान्त तक, तिरछी स्वयम्भूरमण समुद्र की बाहरी वेदिका तक एवं ऊपर ईषत्प्राग्भारपृथ्वी तक असुरकुमार के तैजस शरीर की अवगाहना होती है। एवं जाव थणियकुमार तेयग सरीरस्स। भावार्थ - असुरकुमार के तैजस शरीर की अवगाहना के समान नागकुमार से लेकर स्तनितकुमार तक की तैजस शरीर की अवगाहना समझ लेनी चाहिए। .. वाणमंतर जोइसिय सोहम्मीसाणगा य एवं चेव। भावार्थ - वाणव्यन्तर, ज्योतिषी एवं सौधर्म ईशान कल्प के देवों की तैजस शरीर की अवगाहना भी इसी प्रकार (असुरकुमार के समान) समझनी चाहिए। विवेचन - भवनपति, वाणव्यंतर, ज्योतिषी और पहले दूसरे देवलोक के देवों की लम्बाई की अपेक्षा तैजस शरीर की जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट अवगाहना नीचे तीसरी नरक पृथ्वी के नीचे के चरमान्त तक, तिरछी स्वयं भूरमण समुद्र की बाह्य वेदिका के अन्त तक तथा ऊर्ध्वलोक में ईषत्प्राग्भाग पृथ्वी तक होती है। असुरकुमार से लेकर स्तनितकुमार तक के भवनपति वाणव्यंतर, ज्योतिषी, सौधर्म और ईशान देवलोक के देव एकेन्द्रियों में भी उत्पन्न होते हैं। जब वे अपने आभरण रूप अंगद-बाजुबन्ध आदि में या कुंडल आदि में या पद्म राग आदि मणियों में मूछित होकर उसी के अध्यवसाय-परिणाम वाले होकर वे उन आभूषणों में पृथ्वीकायिक के रूप में उत्पन्न होते हैं तब जघन्य से अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण तैजस शरीर की अवगाहना होती है। . जब भवनपति आदि देव तीसरी नरक पृथ्वी के नीचे के चरमान्त तक किसी प्रयोजन से जाते हैं और किसी कारण से आयुष्य का क्षय हो जाने से मर कर तिरछे स्वयंभूरमण समुद्र की बाह्यवेदिका के अंत में अथवा ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी के अन्तभाग में पृथ्वीकायिक के रूप में उत्पन्न होते हैं उस समय उनके तैजस शरीर की उत्कृष्ट अवगाहना होती है। सणंकुमार देवस्स णं भंते! मारणंतिय समुग्घाएणं समोहयस्स तेया सरीरस्स केमहालिया सरीरोगाहणा०? गोयमा! सरीरप्पमाणमेत्ता विक्खंभबाहल्लेणं, आयामेणं जहण्णेणं अंगुलस्स असंखिजइभागं, उक्कोसेणं अहे जाव महापायालाणं दोच्चे तिभागे, तिरियं जाव सयंभुरमणे समुद्दे, उड्डे जाव अच्चुओ कप्पो। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! मारणान्तिक समुद्घात से समवहत सनत्कुमार देव तैजस शरीर की अवगाहना कितनी बड़ी कही गई है? उत्तर - हे गौतम! विष्कम्भ एवं बाहल्य की अपेक्षा से शरीर-प्रमाण मात्र होती है और आयाम Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org