Book Title: Pragnapana Sutra Part 03
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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________________ इक्कीसवां अवगाहना-संस्थान पद - द्रव्य प्रदेश अल्पबहुत्व द्वार LOrda मात्र द्रव्य की संख्या से थोड़े हैं क्योंकि वे उत्कृष्ट भी सहस्र पृथक्त्व (दो हजार से नौ हजार तक) ही होते हैं। 'उक्कोसेणं उ जुगवं पुहुत्तमेत्तं सहस्साणं' - एक समय में उत्कृष्ट सहस्रपृथक्त्व होते हैं ऐसा शास्त्र वचन भी है। उनसे द्रव्य की अपेक्षा वैक्रिय शरीर असंख्यात गुणा हैं क्योंकि सभी नैरयिकों, सभी देवों, कितनेक तिर्यंच पंचेन्द्रियों, मनुष्यों और बादर वायुकायिकों के भी वैक्रिय शरीर होते हैं। वैक्रिय शरीर की अपेक्षा औदारिक शरीर द्रव्यार्थ रूप से असंख्यात गुणा हैं। क्योंकि पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय, तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्यों को औदारिक शरीर होता है। उनसे भी तैजस और कार्मण शरीर द्रव्य की अपेक्षा अनन्त गुणा हैं क्योंकि अनन्तानन्त सूक्ष्म और बादर जीवों के ये दोनों शरीर होते हैं। स्वस्थान की अपेक्षा तैजस और कार्मण शरीर परस्पर तुल्य है क्योंकि दोनों सहचारी हैं एक के अभाव में दूसरे का भी अभाव होता है। आहारक शरीर वाले उत्कृष्ट संख्याता (सहस्र पृथक्त्व) जितने ही होते हैं। वैक्रिय शरीर वाले असंख्याता श्रेणियों जितने होते हैं। औदारिक शरीर वाले असंख्यात लोक के आकाश प्रदेश प्रमाण होते हैं। तैजस कार्मण शरीर वाले अनन्त लोक के आकाश प्रदेश प्रमाण होते हैं। . . 2. प्रदेश की अपेक्षा - सबसे थोड़े आहारक शरीर के प्रदेश होते हैं यद्यपि वैक्रिय शरीर योग्य वर्गणाओं से आहारक शरीर वर्गणा परमाणुओं की अपेक्षा अनंतगुणी है तथापि थोड़ी वर्गणा से ही आहारक शरीर होता है क्योंकि वह हस्त प्रमाण है जबकि बहुत वैक्रिय शरीर वर्गणाओं से वैक्रिय शरीर होता है क्योंकि वह उत्कृष्ट लाख योजन प्रमाण है। संख्या से भी आहारक शरीर सबसे थोड़े हैं क्योंकि वे सहस्र पृथक्त्व प्रमाण ही होते हैं जबकि वैक्रिय शरीर असंख्यात श्रेणि गत आकाश प्रदेशों के बराबर होते हैं। इसलिए आहारक शरीरों से प्रदेश की अपेक्षा वैक्रिय शरीर असंख्यात गुणा होते हैं। उनसे भी औदारिक शरीर प्रदेश की अपेक्षा असंख्यात गुणा हैं क्योंकि वे असंख्यात लोकाकाश के प्रदेश प्रमाण होने से उनके प्रदेश बहुत होते हैं। उनसे भी तैजस शरीर के प्रदेश अनन्त गुणा हैं क्योंकि द्रव्यार्थ रूप से औदारिक शरीरों से वे अनन्त गुणा हैं। उनसे भी कार्मण शरीर प्रदेश की अपेक्षा अनन्त गुणा हैं क्योंकि तैजस वर्गणाओं से कार्मणवर्गणाएँ परमाणुओं की अपेक्षा अनन्तगुणी हैं। ... यद्यपि आहारक शरीर के प्रदेश सूक्ष्म व बहुत परमाणुओं से निष्पन्न होने के कारण एक जीव के औदारिक शरीर के प्रदेशों की अपेक्षा तो अधिक होते हैं, परन्तु यहाँ पूरे लोक के औदारिक शरीरों के प्रदेशों का कथन होने से आहारक शरीर के प्रदेश सबसे कम बताये हैं। आहारक शरीर की अपेक्षा वैक्रिय शरीर के द्रव्य अधिक होते हैं तथा उससे भी औदारिक शरीर के द्रव्य अधिक होते हैं। अत: इनके प्रदेश भी अधिक होते हैं तथा अवगाहना आगे-आगे बड़ी होने से ज्यादा वर्गणाएं ग्रहण होने से प्रदेश भी असंख्यातगुणा ज्यादा हो जाते हैं। तैजस शरीर तक के तो अट्ठस्पर्शी-अनन्त प्रदेशी स्कन्ध होने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org