Book Title: Pragnapana Sutra Part 03
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 397
________________ 384 प्रज्ञापना सूत्र की अपेक्षा से जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की तथा उत्कृष्ट नीचे महापाताल कलश के द्वितीय त्रिभाग तक की, तिरछी स्वयम्भूरणसमुद्र तक की और ऊपर अच्युतकल्प तक की इसकी तैजस शरीर की अवगाहना होती है। एवं जाव सहस्सारदेवस्स। भावार्थ - सनत्कुमारदेव की तैजस शरीर की अवगाहना के समान माहेन्द्रकल्प से लेकर सहस्रारकल्प के देवों तक की तैजस शरीर की आवगाहना समझ लेनी चाहिए। विवेचन - सनत्कुमार से लेकर सहस्रार कल्प तक के देवों की लम्बाई की अपेक्षा तैजस शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की उत्कृष्ट नीचे महापाताल कलश के दूसरे त्रिभाग तक की, तिरछी स्वयंभूरमण समुद्र तक की और ऊपर अच्युत कल्प तक की कही गयी है। इनकी जघन्य और उत्कृष्ट अवगाहना इस प्रकार समझनी चाहिये-सनत्कुमार आदि ये देव अपने भव स्वभाव से एकेन्द्रियों में या विकलेन्द्रियों में उत्पन्न नहीं होते हैं किन्तु तिर्यंच पंचेन्द्रियों और मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं अत: मेरु पर्वत की पुष्करिणी आदि में स्नान करते समय अपने भवायुष्य का क्षय होने पर वही अपने निकटवर्ती प्रदेश में मत्स्य रूप में उत्पन्न होते हैं वहाँ अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण तैजसं शरीर की अवगाहना होती है। यदि कोई सनत्कुमार आदि देव दूसरे देव के नेश्राय से अच्युत देवलोक में चला जाए और वहीं उसका आयुष्य क्षय हो जाय तो वह काल करके तिरछे स्वयंभूरमण समुद्र के अंत में अथवा नीचे पाताल कलशों के दूसरे त्रिभाग में मत्स्य आदि के रूप में उत्पन्न होता है तब तैजस शरीर की उत्कृष्ट शरीर की अवगाहना होती है। आणयदेवस्स णं भंते! मारणंतिय समुग्घाएणं समोहयस्स तेया सरीरस्स केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता? गोयमा! सरीरप्पमाणमेत्ता विक्खंभबाहल्लेणं, आयामेणं जहण्णेणं अंगुलस्स असंखिजइभागं, उक्कोसेणं जाव अहोलोइयगामा, तिरियं जाव मणूसखेत्तं, उड्डे जाव अच्चुओ कप्पो। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! मारणान्तिक समुद्घात से समवहत आनत कल्प के देव के तैजस शरीर की अवगाहना कितनी बड़ी कही गई है? उत्तर - हे गौतम! इसकी तैजस शरीर की अवगाहना विष्कम्भ और बाहल्य की अपेक्षा से शरीर के प्रमाण के बराबर होती है और आयाम की अपेक्षा से जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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