Book Title: Pragnapana Sutra Part 03
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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________________ इक्कीसवां अवगाहना-संस्थान पद - प्रमाण द्वार 367 विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में नैरयिक पंचेन्द्रियों के वैक्रिय शरीर की जघन्य और उत्कृष्ट अवगाहना का निरूपण किया गया है। नैरयिकों की भवधारणीय जन्म प्राप्त अवगाहना उत्कृष्ट 500 धनुष प्रमाण और उत्तरवैक्रिय अवगाहना हजार धनुष प्रमाण सातवीं नरक की अपेक्षा समझनी चाहिए। इसके अलावा इतनी भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय शरीर की अवगाहना असंभव है। अब सूत्रकार प्रत्येक नरक पृथ्वी की अलग अलग अवगाहना का निरूपण करते हैं जो इस प्रकार है - रयणप्पभा पुढवि णेरइयाणं भंते! केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता? गोयमा! दुविहा पण्णत्ता। तंजहा - भवधारणिजा य उत्तरवेउव्विया य। तत्थ णंजा सा भवधारणिजा सा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखिजइभागं, उक्कोसेणं सत्त धणइं तिण्णि रयणीओ छच्च अंगुलाई। तत्थ णं जा सा उत्तरवेउव्विया सा जहण्णेणं अंगुलस्स संखिजइभागं उक्कोसेणं पण्णरस धणूई अड्डाइजाओ रयणीओ। भावार्थ-प्रश्न-हे भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों की शरीर की अवगाहना कितनी कही गई है? उत्तर - हे गौतम! रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों की शरीर की अवगाहना दो प्रकार की कही गई है, यथा - भवधारणीया और उत्तरवैक्रिया। उनमें से भवधारणीया-शरीर की अवगाहना जघन्य से अंगुल के असंख्यातवें भाग है और उत्कृष्ट से सात धनुष, तीन रत्नि (तीन हाथ) और छह अंगुल की है। उनकी उत्तरवैक्रिय अवगाहना जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग और उत्कृष्ट पन्द्रह धनुष ढाई रत्लि की है। सक्करप्पभाए पुच्छा? गोयमा! जाव तत्थ णं जा सा भवधारणिज्जा सा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखिजइभाग, उक्कोसेणं पण्णरस धणूई अड्डाइजाओ रयणीओ। तत्थ णं जा सा उत्तरवेउल्विया सा जहण्णेणं अंगुलस्स संखिजइभागं, उक्कोसेणं एक्कतीसं धणूइं एक्का य रयणी। ___ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! इसी प्रकार की पृच्छा शर्कराप्रभा के नैरयिकों की शरीर की अवगाहना के विषय में करनी चाहिए। उत्तर - हे गौतम! यावत् दो प्रकार की अवगाहना कही गई है, उनमें से भवधारणीया अवगाहना जघन्य से अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट पन्द्रह धनुष, ढाई रत्नि की है तथा उत्तरवैक्रिया अवगाहना जघन्य से अंगुल के संख्यातवें भाग है और उत्कृष्ट इकतीस धनुष एक रलि की है। वालुयप्पभाए भवधारणिजा एक्कतीसं धणूई एक्का रयणी, उत्तरवेउव्विया वावढेि धणूई दो रयणीओ। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org