Book Title: Pragnapana Sutra Part 03
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 357
________________ ३४४ प्रज्ञापना सूत्र क्योंकि सभी सम्मूच्छिम जीव एक हुण्डक संस्थान वाले ही होते हैं। तीन सूत्र सामान्य गर्भज तिर्यंच पंचेन्द्रियों के भी होते हैं किन्तु इन तीन सूत्रों में छहों प्रकार के संस्थान कहना चाहिए क्योंकि गर्भज तिर्यंच पंचेन्द्रियों में समचतुरस्र आदि छहों संस्थान संभव है । इस प्रकार सामान्य तिर्यंच पंचेन्द्रिय विषयक नव आलापक होते हैं। KÖY KÖYÜ ÖNÖKÖKÖN ÖVŐHŐÓÓÓÓÓ जलयर तिरिक्ख जोणिय पंचिंदिय ओरालिय सरीरे णं भंते! किंसंठाणसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा! छव्विह संठाण संठिए पण्णत्ते । तंजहा - समचउरंसे जाव हुंडे । भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! जलचर तिर्यंच योनिक पंचेन्द्रिय औदारिक शरीर किस संस्थान वाला कहा गया है ? उत्तर - हे गौतम! जलचर तिर्यंच योनिक पंचेन्द्रिय औदारिक शरीर छहों प्रकार के संस्थान वाला कहा गया है, जैसे- समचतुरस्र यावत् हुण्डक संस्थान । एवं पज्जत्तापज्जत्ताण वि । भावार्थ - इसी प्रकार पर्याप्तक, अपर्याप्तक जलचर तिर्यंच योनिक पंचेन्द्रिय औदारिक शरीरों के भी संस्थान छहों प्रकार के समझने चाहिए। सम्मुच्छिम जलयरा हुंड संठाणसंठिया, एएसिं चेव पज्जत्ता अपज्जत्तगा वि एवं चेव । भावार्थ- सम्मूच्छिम - जलचर तिर्यंच पंचेन्द्रिय के औदारिक शरीर हुण्डक संस्थान वाले हैं। उनके पर्याप्त, अपर्याप्तकों के औदारिक शरीर भी इसी प्रकार हुण्डक संस्थान के होते हैं। गब्भवक्कंतिय जलयरा छव्विह संठाणसंठिया, एवं पज्जत्तापज्जत्ताण वि । भावार्थ - गर्भज जलचर तिर्यंच पंचेन्द्रियों के औदारिक शरीर छहों प्रकार के संस्थान वाले हैं। इसी प्रकार पर्याप्तक, अपर्याप्तक गर्भज जलचर तिर्यंच पंचेन्द्रियों के औदारिक शरीर भी छहों संस्थान वाले समझने चाहिए। एवं थलयराण वि णव सुत्ताणि । भावार्थ - इसी प्रकार स्थलचर तिर्यंच पंचेन्द्रिय औदारिक शरीर संस्थानों के नौ सूत्र भी पूर्वोक्त प्रकार से समझ लेने चाहिए। Jain Education International एवं चउप्पय थलयराण वि उरपरिसप्प थलयराण वि भुयपरिसप्प थलयराण वि । भावार्थ - इसी प्रकार चतुष्पद-स्थलचरों, उरः परिसर्प - स्थलचरों एवं भुजपरिसर्प - स्थलचरों के औदारिक शरीर संस्थानों के नौ-नौ सूत्र भी पूर्वोक्त प्रकार से समझ लेने चाहिए। For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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