Book Title: Pragnapana Sutra Part 03
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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इक्कीसवां अवगाहना-संस्थान पद प्रमाण द्वार
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गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है।
हे भगवन्! देव बाहर के पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा करने में समर्थ है ?
हाँ गौतम! समर्थ है।
इससे स्पष्ट होता है कि बाहर के पुद्गलों को ग्रहण करने से ही उत्तरवैक्रिय होता है।
नैरयिकों के अत्यंत अशुभ कर्म के उदय से भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय दोनों शरीर हुण्डक संस्थान वाले होते हैं। उनका भवधारणीय शरीर भवस्वभाव से ही ऐसे पक्षी के समान बीभत्स हुण्डक संस्थान वाला होता है जिसके सारे पंख और गर्दन आदि के रोम उखाड़ दिये गये हों। जो उत्तरवैक्रिय होता है वह भी "हम सुन्दर शरीर बनाएंगे" इस इच्छा से शुरू किया होने पर भी अत्यंत अशुभ नाम कर्म के उदय से अशुभ ही होता है अतः वह भी हुण्डक संस्थान वाला ही होता है।
रयणप्पभा पुढवि णेरइय पंचिंदिय वेडव्विय सरीरे णं भंते! किं संठाणसंठिए पण्णत्ते ?
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गोयमा! रयणप्पभा पुढवि णेरड्याणं दुविहे सरीरे पण्णत्ते । तंजहा - भवधारणिज्जे य उत्तरवेडव्विए य । तत्थ णं जे से भवधारणिज्जे से णं हुंडे, जे से उत्तरवेडव्विए से वि हुंडे । एवं जाव असत्तमा पुढवि णेरइय वेडव्विय सरीरे ।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक पंचेन्द्रियों का वैक्रिय शरीर किस संस्थान का कहा गया है ?
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उत्तर - हे गौतम! रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक-पंचेन्द्रियों का वैक्रिय शरीर दो प्रकार का कहा गया है - भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय । उनमें से जो भवधारणीय वैक्रिय शरीर है, वह हुंडक संस्थान वाला है और उत्तरवैक्रिय भी हुंडक संस्थान वाला होता है। इसी प्रकार शर्कराप्रभा पृथ्वी से लेकर अधः सप्तम पृथ्वी तक के नैरयिकों के दोनों प्रकार के वैक्रिय शरीर हुंडक संस्थान वाले होते हैं।
तिरिक्खजोणिय पंचिंदिय वेउव्विय सरीरे णं भंते! किं संठाणसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा! णाणा संठाणसंठिए पण्णत्ते ।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! तिर्यंचयोनिक पंचेन्द्रियों का वैक्रिय शरीर किस संस्थान का कहा गया है ?
उत्तर - हे गौतम! तिर्यंचयोनिक पंचेन्द्रियों का वैक्रिय शरीर अनेक संस्थानों वाला कहा गया है। एवं जाव जलयर थलयर खहयराण वि । थलयराण वि चउप्पय परिसप्पाण वि, परिसप्पाण वि उरपरिसप्प भुयपरिसप्पाण वि ।
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