Book Title: Pragnapana Sutra Part 03
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 377
________________ ३६४ प्रज्ञापना सूत्र भावार्थ - समुच्चय तिर्यंच पंचेन्द्रियों की तरह जलचर, स्थलचर और खेचरों के वैक्रिय शरीरों का संस्थान भी नाना प्रकार का कहा गया है तथा स्थलचरों में चतुष्पद और परिसॉं का और परिसो में उर:परिसर्प और भुजपरिसरों के वैक्रिय शरीर का संस्थान भी नाना प्रकार का समझना चाहिए। . एवं मणुस्स पंचिंदिय वेउव्वियसरीरे वि। भावार्थ - तिर्यंच पंचेन्द्रियों की तरह मनुष्य पंचेन्द्रियों का वैक्रिय शरीर भी नाना संस्थानों वाला कहा गया है। विवेचन - तिर्यंच पंचेन्द्रियों और मनुष्यों को जन्म से वैक्रिय शरीर नहीं मिलता किन्तु तपस्या आदि के प्रभाव से जो वैक्रिय शरीर होता है वह नाना संस्थानों वाला होता है। असुरकुमार भवणवासि देव पंचिंदिय वेउव्वियसरीरे णं भंते! किंसंठाणसंठिए पण्णत्ते? गोयमा! असुरकुमाराणं देवाणं दुविहे सरीरे पण्णत्ते। तंजहा - भवधारणिजे य. उत्तरवेउव्विए य। तत्थ णं जे से भवधारणिज्जे से णं समचउरंस संठाणसंठिए पण्णत्ते, तत्थ णं जे से उत्तरवेउव्विए से णं णाणासंठाणसंठिए पण्णत्ते। . भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! असुरकुमार भवनवासी देव पंचेन्द्रियों का वैक्रिय शरीर किस संस्थान का कहा गया है? उत्तर - हे गौतम! असुरकुमार देवों का वैक्रिय शरीर दो प्रकार का कहा गया है - भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय। उनमें से जो भवधारणीय शरीर है, वह समचतुरस्र संस्थान वाला होता है तथा जो उत्तरवैक्रिय शरीर है, वह अनेक प्रकार के संस्थान वाला होता है। एवं जाव थणियकुमार देव पंचिंदिय वेउव्वियसरीरे। . भावार्थ - इसी प्रकार नागकुमार से लेकर स्तनितकुमार पर्यन्त के भी वैक्रिय शरीरों का संस्थान समझ लेना चाहिए। एवं वाणमंतराण वि, णवरं ओहिया वाणमंतरा पुच्छिज्जति। भावार्थ - इसी प्रकार वाणव्यन्तर देवों के वैक्रिय शरीर का संस्थान भी असुरकुमारादि की भांति भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय की अपेक्षा से क्रमशः समचतुरस्र तथा नाना संस्थान वाला कहना चाहिए। विशेषता यह है कि यहाँ प्रश्न इनके औधिक (समुच्चय) वाणव्यन्तर देवों के वैक्रिय शरीर के संस्थान के सम्बन्ध में होना चाहिए। एवं जोइसियाण वि ओहियाणं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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