Book Title: Pragnapana Sutra Part 03
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 360
________________ इक्कीसवां अवगाहना-संस्थान पद - प्रमाण द्वार ३४७ भावार्थ - बादर पर्याप्तक एवं अपर्याप्तक पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय औदारिक शरीरों की अवगाहना की वक्तव्यता भी इसी प्रकार समझनी चाहिए। इस प्रकार पृथ्वीकायिकों के शरीरावगाहना सम्बन्धी ये नौ भेद (आलापक) हुए। . जहा पुढविक्काइयाणं तहा आउक्काइयाण वि तेउक्काइयाण वि वाउक्काइयाण वि। भावार्थ - जिस प्रकार पृथ्वीकायिकों के औदारिक शरीरावगाहना सम्बन्धी नौ आलापक (भेद) हुए, उसी प्रकार अप्कायिक, तेजस्कायिक और वायुकायिक जीवों के भी औदारिकशरीरावगाहनासम्बन्धी आलापक कहने चाहिए। विवेचन - जिस प्रकार औधिक-सामान्य औदारिक शरीर की अवगाहना कही है उसी प्रकार एकेन्द्रिय औदारिक शरीर की अवगाहना समझनी चाहिए। पृथ्वी, अप्, तेजस् और वायु, सूक्ष्म और बादर तथा प्रत्येक के पर्याप्तक और अपर्याप्तक औदारिक शरीर की जघन्य और उत्कृष्ट अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग की होती है। पृथ्वीकाय आदि के नौ-नौ सूत्र (आलापक) इस प्रकार होते हैं - १. औधिक-सामान्य-सूत्र २. औधिक अपर्याप्त सूत्र ३. औधिक पर्याप्त सूत्र ४. सूक्ष्म सूत्र ५. सूक्ष्म अपर्याप्त सूत्र ६. सूक्ष्म पर्याप्त सूत्र ७. बादर सूत्र ८. बादर अपर्याप्त सूत्र और ९. बादर पर्याप्त सूत्र। वणस्सइकाइय ओरालियसरीरस्स णं भंते! केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता? गोयमा! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखिजइभागं, उक्कोसेणं साइरेगं जोयणसहस्सं। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! वनस्पतिकायिकों के औदारिक शरीर की अवगाहना कितनी है? उत्तर - हे गौतम! वनस्पतिकायिकों के औदारिक शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट कुछ अधिक हजार योजन की है। अपजत्तगाणं जहण्णेण वि उक्कोसेणं वि अंगुलस्स असंखिजइभागं। भावार्थ - वनस्पतिकायिक अपर्याप्तकों के औदारिक शरीर की जघन्य और उत्कृष्ट अवगाहना भी अंगुल के असंख्यातवें भाग की है। ... पजत्तगाणं जहण्णेणं अंगुलस्स असंखिजइभागं, उक्कोसेणं साइरेगं जोयणसहस्सं। भावार्थ - वनस्पतिकायिक पर्याप्तकों के औदारिक शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाम और उत्कृष्ट कुछ अधिक हजार योजन की है। बायराणं जहण्णेणं अंगुलस्स असंखिजइभाग, उक्कोसेणं साइरेगं जोयणसहस्सं, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412