Book Title: Pragnapana Sutra Part 03
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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अठारहवाँ कायस्थिति पद - योग द्वार
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५. योग द्वार
सजोगी णं भंते! सजोगि त्ति कालओ केवच्चिरं होइ ?
गोयमा ! सजोगी दुविहे पण्णत्ते । तंजहा - अणाइए वा अपज्जवसिए, अणाइए वा सपज्जवसिए ।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! सयोगी जीव कितने काल तक सयोगीपर्याय में रहता है ? उत्तर - हे गौतम! सयोगी जीव दो प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं अपर्यवसित और २. अनादि - सपर्यवसित।
१. अनादि
मणजोगीणं भंते! मणजोगि त्ति कालओ केवच्चिरं होइ ? गोयमा! जहणणेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं ।
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विवेचन- मन, वचन और काया का व्यापार योग कहलाता है। जो योग सहित है वह सयोगी कहलाता है। सयोगी जीव के दो भेद हैं- अनादि अनंत और अनादि सान्त । जो जीव कभी मोक्ष में नहीं जायेंगे वे सदैव किसी न किसी योग से सयोगी होंगे अतः अनादि अनन्त हैं। जो जीव मोक्ष में जायेंगे वे अनादि सान्त सयोगी हैं क्योंकि मुक्त अवस्था में योग का सर्वथा अभाव होता है।
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भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! मनोयोगी कितने काल तक मनोयोगी अवस्था में रहता है ? उत्तर - हे गौतम! मनोयोगी जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त्त तक मनोयोगी अवस्था में रहता है।
विवेचन- मनोयोगी जीव की कायस्थिति जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त्त की कही है। जब कोई जीव औदारिक काय योग से प्रथम समय में मन के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करके दूसरे समय में उन्हें मन रूप में परिणत करके त्यागता है और तीसरे समय में रुक जाता है या मृत्यु को प्राप्त हो जाता है तब वह एक समय तक मनोयोगी रहता है। क्योंकि प्रथम ग्रहण के. समय औदारिक योग वाला होता है, दूसरे समय मनोयोग वाला होता है और तीसरे समय रुक जाता है या मृत्यु को प्राप्त हो जाता है । उत्कृष्ट स्थिति अंतर्मुहूर्त की होती है क्योंकि मनोयोग्य पुद्गलों को निरंतर ग्रहण करते और त्यागते हुए अंतर्मुहूर्त्त पश्चात् अवश्य ही जीव उससे स्वभावतः रुक जाता है। इसके पश्चात् पुनः मनोयोग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है और छोड़ता है परन्तु काल की सूक्ष्मता के कारण कदाचित् उसका संवेदन ( अनुभव) नहीं होता। इसलिए उत्कृष्ट से मनोयोगी अंतर्मुहूर्त तक होता है।
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