Book Title: Pragnapana Sutra Part 03
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
अठारहवाँ कायस्थितिं पद - कषाय द्वार
कषायी रूप में रहता है। इसी प्रकार मान कषायी और मायाकषायी की कालावस्थिति कहनी चाहिए ।
विवेचन - कषाय सहित जीव सकषायी कहलाता है । सकषायी के सवेदक की तरह ही तीन भेद होते हैं। अतः सारा वर्णन सवेदी की तरह समझना चाहिये । क्रोध, मान और माया कषाय में से किसी एक कषाय का उदय जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्ट भी अंतर्मुहूर्त्त तक ही रह सकता है क्योंकि जीव का स्वभाव ही ऐसा है। इसलिए कहा है कि क्रोध आदि कषाय का उदय अंतर्मुहूर्त्त से अधिक नहीं रहता ।
लोभकसाई णं भंते! लोभकसाइत्ति पुच्छा ?
गोयमा! जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं ।
भावार्थ - प्रश्न
२६५
Jain Education International
हे भगवन् ! लोभकषायी, लोभकषायी के रूप में कितने काल तक
लगातार रहता है ?
उत्तर - हे गौतम! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त्त तक लोभ कषायी निरन्तर लोभ कषाय पर्याय से युक्त रहता है।
विवेचन - लोभ कषायी की कायस्थिति जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त की कही है जब कोई उपशमक जीव उपशम श्रेणी के अंत में उपशांत वीतराग हो कर श्रेणी से गिरता हुआ लोभ के अणुओं का प्रथम समय वेदन करता हुआ काल करके देवलोक में उत्पन्न होता है और . वहाँ उत्पन्न होता हुआ क्रोध कषायी या मान कषायी या माया कषायी होता है तब एक समय तक ही लोभ कषाय में रहने से लोभ कषाय की स्थिति एक समय की होती है ।
शंका - यदि ऐसा है तो लोभ कषायी की तरह क्रोध आदि कषाय के लिए भी एक समय क्यों नहीं कहा गया है ?
समाधान जीव स्वभाव से ही ऐसा नहीं होता है। श्रेणी से गिरता हुआ जीव माया के वेदन के प्रथम समय में, मान के वेदन के प्रथम समय में, क्रोध के वेदन के प्रथम समय में यदि काल करे और काल करके देवलोक में उत्पन्न हो तो भी स्वभाव से जिस कषाय के उदय के साथ जीव ने काल किया था वही कषाय आगामी भव में भी अंतर्मुहूर्त्त तक वेदी जाती है इसी से यह प्रमाणित होता है कि क्रोध, मान और माया कषाय अन्तर्मुहूर्त्त तक रहती है ।
श्रेणी चढ़ते हुए लोभ कषाय की एक समय की स्थिति क्रोध और मान से लोभ में जाने की अपेक्षा तो घटित नहीं होती। लेकिन माया से जाने की अपेक्षा घटित हो सकती है। क्योंकि श्रेणी
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org