Book Title: Pragnapana Sutra Part 03
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
अठारहवाँ कायस्थिति पद - लेश्या द्वार
२६७
विवेचन - जो जीव लेश्या से युक्त हों वे सलेश्य कहलाते हैं। सलेश्य दो प्रकार के कहे गये हैं - १. अनादि अपर्यवसित और २. अनादि सपर्यवसित। जो कभी भी संसार का अन्त नहीं करते वे
अनादि अपर्यवसित और जो संसार से पार हो सकते हैं वे अनादि सपर्यवसित कहलाते हैं। . कण्हलेस्से णं भंते! कण्हलेस्से त्ति कालओ केवच्चिर होइ?
गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं अंतोमुहत्तमब्भहियाई।
भावार्थ-प्रश्न-हे भगवन्! कृष्णलेश्या वाला जीव कितने काल तक कृष्णलेश्या वाला रहता है?
उत्तर - हे गौतम! कृष्णलेश्या वाला जीव जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागरोपम तक लगातार कृष्णलेश्या वाला रहता है।
विवेचन - तिर्यंचों और मनुष्यों के लेश्या सम्बन्धी द्रव्य अंतर्मुहूर्त से प्रारम्भ हो कर परभव (अगले भव) के प्रथम अन्तर्मुहूर्त तक रहते हैं उसके बाद अवश्य ही बदल जाते हैं किन्तु नैरयिकों और देवों में लेश्या सम्बन्धी द्रव्य पूर्वभव संबंधी अंतिम अन्तर्मुहूर्त से प्रारम्भ होकर परभव के प्रथम अन्तर्मुहूर्त तक स्थायी रहते हैं। इसलिए लेश्याओं का जघन्य काल सर्वत्र मनुष्यों और तिर्यंचों की अपेक्षा से तथा उत्कृष्ट काल देवों और नैरयिकों की अपेक्षा समझना चाहिए। प्रस्तुत सूत्र में कृष्ण लेश्या की जो उत्कृष्ट कायस्थिति अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागरोपम कही गयी है वह सातवीं नरक : पृथ्वी की अपेक्षा समझनी चाहिये। व्योंकि उसमें रहे हुए नैरयिक कृष्ण लेश्या वाले होते हैं और उनकी उत्कृष्ट स्थिति ३३ सागरोपम की कही गयी है। पूर्वभव का अंतिम और परभव का प्रथम यों दो. अंतर्मुहूर्त होते हैं वे दोनों मिल कर भी अन्तर्मुहूर्त जितने ही होते हैं क्योंकि अन्तर्मुहूर्त के भी असंख्य भेद होते हैं।
णीललेस्से णं भंते! णीललेस्से त्ति पुच्छा?
गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं दस सागरोवमाइं पलिओवमा संखिज्जइ भाग मब्भहियाइं।
भावार्थ-प्रश्न - हे भगवन् ! नीललेश्या वाला जीव कितने काल तंक नीललेश्या वाला रहता है? - उत्तर - हे गौतम! नीललेश्या वाला जीव जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक दस सागरोपम तक लगातार नीललेश्या वाला रहता है। - विवेचन - नील लेश्या की उत्कृष्ट कायस्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक दस पागरोपम की कही गयी है। यह पांचवीं नरक पृथ्वी की अपेक्षा समझनी चाहिये क्योंकि पांचवीं नरक के प्रथम प्रस्तट (पाथड़े) में नील लेश्या होती है। वहाँ उत्कृष्ट स्थिति इतनी ही है। पूर्व भव का चरम
..
माहवाहा
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org